बीते कुछ वर्षों दौरान जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में लगातार कमी आई है, लेकिन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से लड़ने वाले सुरक्षा बलों के लिए राजौरी अब भी मोर्चा बना हुआ है। आतंकियों की पनाहगाह रहे दक्षिण कश्मीर में भी काफी हद तक शांति है, पर 34 वर्ष में राजौरी में शायद ही शांति दिखी
जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के बाजीमाल-कालाकोट इलाके में 22 नवंबर, 2023 को इस्लामी आतंकियों और भारतीय सेना के बीच मुठभेड़ हुई। दो दिन बाद यानी 24 नवंबर को जब मुठभेड़ खत्म हुई, तब तक हम सेना के दो अधिकारियों कैप्टन एमवी प्रांजल और कैप्टन शुभम गुप्ता सहित 7 सैनिकों को खो चुके थे। हालांकि इस मुठभेड़ में लश्कर के कमांडर कारी सहित दो आतंकी भी मारे गए थे।
इसी वर्ष आतंकियों ने 23 अप्रैल को राजौरी-पुंछ मार्ग पर भट्टा दुरियन के पास एक गांव में इफ्तार के लिए खाने-पीने का सामान ले जा रहे सेना के वाहन को निशाना बनाया था। उसमें राष्ट्रीय राइफल्स के 5 जवानों ने बलिदान दिया था।
सैन्य गतिविधियों की टोह लेने के बाद आतंकियों ने सड़क के दोनों ओर घने जंगल वाले क्षेत्र में एक तीखे मोड़ पर घात लगाकर यह हमला किया था। इस कारण वाहन में बैठे जवानों को जवाबी कार्रवाई या हमले से बचने का बहुत कम वक्त मिला था। इसके बाद 5 मई, 2023 को भी विशेष बलों के 5 जवान बलिदान हो गए थे। ये जवान निकटवर्ती केसरी हिल स्थित कंडी जंगल में आतंकी विरोधी अभियान में शामिल थे। जवाबी कार्रवाई में एक आतंकी भी मारा गया था।
कंडी जंगल, जहां ये हमले हुए और उसके बाद आतंकियों को खदेड़ने के लिए सैन्य कार्रवाई हुई वह विभिन्न कारणों से सुरक्षा बलों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकी संगठन पीपुल्स एंटी फासिस्ट फ्रंट (पीएएफएफ) ने 23 अप्रैल और उसके बाद हुए हमलों की जिम्मेदारी ली थी। इसी तरह, इस साल की शुरुआत में स्वचालित हथियारों से लैस आतंकियों के एक समूह ने राजौरी के हिंदू बहुल गांव डांगरी में कम से कम तीन घरों में घुस कर 7 लोगों की हत्या कर दी थी।
संवेदनशील है राजौरी
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 5 अगस्त, 2019 से अब तक समूचे जम्मू में आतंकियों द्वारा किए गए हमलों में 35 सुरक्षाकर्मियों सहित 37 लोग मारे जा चुके हैं। इनमें सेना के लगभग एक दर्जन जवान शामिल हैं, जो पुंछ-राजौरी सेक्टर के वन क्षेत्रों में सुरक्षा अभियान में जुटे थे। हालांकि बीते कुछ वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में लगातार कमी आई है, लेकिन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से लड़ने वाले सुरक्षा बलों के लिए राजौरी अब भी ‘हॉट स्पॉट’ बना हुआ है। 1990 से अब तक 34 वर्ष के दौरान आतंकवाद में उतार-चढ़ाव आया है, लेकिन राजौरी में शायद ही कभी शांति देखी गई हो। यहां तक कि दक्षिण कश्मीर, जो आतंकियों के लिए पनाहगाह था, वहां भी काफी हद तक शांति है।
जम्मू-कश्मीर का पुंछ-राजौरी जिला कई वर्षों से नियंत्रण रेखा के पार से पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों की शिकारगाह रहा है। वास्तव में समूचे जम्मू क्षेत्र खासकर, पुंछ-राजौरी में बड़े पैमाने पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियां देखी गई हैं। इन दोनों जिलों में सेना और नागरिक आवाजाही के लिए संचार की मुख्य लाइन नियंत्रण रेखा से लगती है। यहां ऊंचे-नीचे दर्रे, तेज बहती नदियां, घने जंगल वाले क्षेत्र, सुनसान व निर्जन क्षेत्र, जमीन असमतल और अनेक गुफाएं हैं, जो आतंकी गतिविधियों के लिए उपयुक्त हैं। ऐसे इलाके आतंकियों द्वारा अपनाई गई ‘हिट एंड रन’ रणनीति के लिए आदर्श वातावरण प्रदान करते हैं। आतंकी इन इलाकों में सुरक्षा बलों से सीधे मुकाबले में नहीं उलझते। पुंछ-राजौरी जिलों में खासकर, रात और खराब मौसम के दौरान नियंत्रण रेखा से सटा ऐसा भू-भाग आतंकियों को घुसपैठ के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं। एक बार नियंत्रण रेखा पार करने के बाद इन जिहादियों के पास लक्ष्यों पर हमले हेतु भीतरी इलाकों में जाने या खुद को सक्रिय करने का आदेश मिलने तक समय बिताने के लिए स्थानीय आबादी के साथ घुलने-मिलने के कई विकल्प होते हैं।
नियंत्रण रेखा पार करने के बाद आतंकी पूरब में भूदल, दरहाल की ओर जा सकते हैं और फिर मुगल रोड के रास्ते पीर पंजाल की ओर बढ़ सकते हैं और घाटी में शोपियां तक जा सकते हैं। उनके पास जम्मू, नगरोटा, उधमपुर, रियासी, डोडा, किश्तवाड़ आदि मार्गों से जाने का विकल्प भी है, जो ऊबड़-खाबड़ जंगली रास्तों से होकर जाते हैं और जिन पर सुरक्षा बलों की पर्याप्त निगरानी होती है। इसलिए, राजौरी पाकिस्तान की योजना और उसके नापाक मंसूबों के केंद्र में है, ताकि भारत में खून-खराबा कर इस संघ शासित क्षेत्र में उपद्रव जारी रखा जा सके।
यह महत्वपूर्ण है कि पिछले एक दशक में हर मौसम में निगरानी उपकरणों जैसे आधुनिक साधनों से लैस सुरक्षा बलों की भारी तैनाती, बेहतर खुफिया जानकारी और इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा एजेंसियों के बीच अधिक कुशल समन्वय के कारण जिहादी घुसपैठियों के लिए नियंत्रण रेखा पार करना मुश्किल हो रहा है। इसके बावजूद जो घुसपैठिए इसमें कामयाब हो जाते हैं, वे सुरक्षा बलों का सामना करने का खतरा उठाने के बजाए छुपकर लंबे समय तक निष्क्रिय रहते हैं, उनमें से कुछ मारे जाते हैं। ‘स्लीपर सेल’ के रूप में जाने जाने वाले ये आतंकी स्थानीय स्रोतों पर पलते हैं और जब तक उनके आकाओं द्वारा अधिकतम राजनीतिक/सैन्य लाभ प्राप्त करने के लिए सबसे उपयुक्त समय पर हमले करने का आदेश न दिया जाए, तब तक शांत बैठे रहते हैं। जैसा कि हमने देखा, 22 मई को श्रीनगर में पर्यटन को लेकर जी-20 की बैठक से कुछ हफ्ते पहले इन स्लीपर सेल की गतिविधियों में उछाल आया था जो तब से लगातार जारी है।
भारत की सुरक्षा एजेंसियों, जिनमें आईबी, सैन्य गुप्तचर एजेंसी, स्थानीय पुलिस बल, तैनात सैन्य बल शामिल हैं, ने बहुत कुशलता से स्थिति को संभाला है और पाकिस्तान प्रायोजित जिहादी आतंकवाद को हावी नहीं होने दिया है। हालांकि ऐसे कई अवसर आए, जब आतंकी पूरी तरह से चौंकाने में सफल रहे हैं, जिसके फलस्वरूप हमारे सुरक्षा कर्मी हताहत हुए हैं। इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्य बीते तीन दशक से अधिक समय से आतंकवाद की चपेट में है।
इस अवधि में आतंकी संगठनों ने भय फैलाकर या मजहब के नाम पर या प्रलोभन देकर लोगों का विश्वास जीता और अपने स्रोतों का एक नेटवर्क तैयार किया। एजेंडे के तहत रखे गए ये लोग, जिन्हें उनके ओवर ग्राउंड वर्कर (ओजीडब्ल्यू) के रूप में भी जाना जाता है, आतंकियों को रसद सहायता, सैनिकों की तैनाती और आवाजाही की सूचना के साथ-साथ आश्रय भी प्रदान करते हैं।
आश्चर्य की बात नहीं कि इनमें से कुछ स्रोत स्थानीय पुलिस के बीच भी आतंकियों द्वारा विकसित किए गए हैं। लेकिन राज्य पुलिस बल की निष्ठा पर प्रश्न उठाए बिना हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1989-90 में राज्य में आतंकवाद की शुरुआत में पाकिस्तान और राज्य में, विशेष रूप से घाटी में आतंकियों के लिए काम करने वाले कुछ पुलिसकर्मियों को पकड़ने में राज्य पुलिस सफल रही थी।
राज्य पुलिस का योगदान
हाल ही में राज्य पुलिस ने आतंकियों के विरुद्ध साहसिक और सफल अभियान चलाकर उन पर बढ़त हासिल की है। जम्मू-कश्मीर में आतंक के विरुद्ध भारत के युद्ध में आज वे सबसे आगे हैं। हालांकि पुलिस बल में कुछ ‘काली भेड़ों’ की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। जहां तक राज्य/स्थानीय स्तर पर गुप्तचर एजेंसियों का सवाल है, उन्हें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त छोटी-छोटी सूचनाओं को उचित क्रम में रख कर पुख्ता जानकारी जुटानी होती है।
गुप्तचर एजेंसियों के समक्ष सबसे जटिल काम आकस्मिक सूचनाओं को एक साथ जोड़ना है, ताकि इन सूचनाओं को विश्वसनीय गुप्तचर जानकारी में बदला जा सके। इसका और अधिक परिशोधन, साथ ही मानव बुद्धि के माध्यम से नियमित अद्यतनीकरण, इसे वास्तविक समय के साथ-साथ कार्रवाई योग्य भी बनाता है। गुप्तचर एजेंसियों में भी एक प्रवृत्ति होती है कि वे एक-दूसरे को मात देने में लगी रहती हैं, जिसके परिणाम विनाशकारी होते हैं।
सुरक्षा बलों के स्तर पर, जहां क्षेत्र में तैनात सैनिकों को सबसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है, वहीं हर घड़ी सतर्कता के उच्चतम स्तर को बनाए रखना मुश्किल होता है। भट्टा दुरियन की घटना में ऐसा प्रतीत होता है कि सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में शायद रोड ओपनिंग पार्टियों (आरओपी) द्वारा तलाशी ली गई थी, लेकिन उसे तब तक निगरानी में नहीं रखा गया, जब तक कि लक्षित वाहन क्षेत्र से सुरक्षित रूप से गुजर नहीं जाए।
किसी अनहोनी को देखे बिना एक ही काम को बार-बार करने पर कुछ सैनिकों में आत्मसंतुष्ट हो जाने की प्रवृत्ति होती है। एक समय के बाद आरओपी की नियमित प्रकृति नीरस हो जाती है, जिससे सुरक्षा प्रहरी शिथिल हो जाते हैं। यह स्लीपर सेल के लिए हमला करने का उपयुक्त अवसर होता है। हर स्तर पर पर्यवेक्षण के साथ ऐसे नीरस कर्तव्यों में बार-बार सैनिकों को बदलने से ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सकता है।
भट्टा दुरियन की घटना के बाद और अब नवीनतम घटना में विशेष बलों के 5 कर्मियों की क्षति और भी चिंताजनक है। विशेष बल एक रणनीतिक संपत्ति है, जिसका उपयोग राष्ट्रीय महत्व के रणनीतिक परिणाम प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसलिए बेहतर होगा कि क्षेत्र में तैनात सैनिकों को अपने परिचालन जिम्मेदारी वाले क्षेत्र में आतंकियों को खत्म करने का काम करने दिया जाए, क्योंकि वे ऐसे आपरेशनों को अंजाम देने के लिए बेहतर स्थिति में हैं।
जम्मू-कश्मीर का पुंछ-राजौरी जिला कई वर्षों से नियंत्रण रेखा के पार से पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों की शिकारगाह रहा है। वास्तव में समूचे जम्मू क्षेत्र खासकर, पुंछ-राजौरी में बड़े पैमाने पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियां देखी गई हैं।
इसके अलावा, राष्ट्रीय राइफल्स सहित आतंकवाद ग्रिड में तैनात सभी सैनिकों के प्रशिक्षण और प्रेरणा का स्तर ऐसा है कि वे जिहादी आतंकियों द्वारा उत्पन्न सभी प्रकार के खतरों का मुकाबला कर सकते हैं। वास्तव में एक इकाई, जिसने आतंकी गतिविधि में अपने लोगों को खो दिया है, वह हत्या का बदला लेने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में है। इससे न केवल उनके मनोबल को फिर से बनाने में मदद मिलेगी, बल्कि किसी और का काम करने के लिए विशेष बलों के कर्मियों को लाने की आवश्यकता भी खत्म हो जाएगी।
सुरक्षा बलों के कमांडरों को जमीनी स्तर पर प्रतिक्रियाशील होने और आतंकियों की ओर से पहले हमले का इंतजार करने के बजाए फिर से सक्रिय अभियान चलाने की आवश्यकता पर जोर देने की जरूरत है। इसके लिए आतंकियों से दो कदम आगे रहने के लिए अपने-अपने इलाकों में एक मजबूत खुफिया नेटवर्क बनाना भी जरूरी है। पिछले तीन दशक से अधिक समय से छद्म युद्ध से लड़ रहे भारतीय सुरक्षा बल आतंकियों द्वारा उत्पन्न किसी भी चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम हैं। हालांकि कुछ घटनाएं इसका अपवाद हैं।
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