हिन्दुस्थान के खेतिहर को जितनी प्रसन्नता, जितना उल्लास मिट्टी के आंगन में चलना सीखते हुए दुधमुंहे बच्चे की क्रीड़ा से होता है उतना ही उल्लास बालियों के भार से झुके हुए घुटने तक कीचड़ में धंसे हुए धनहर खेत से होता है।
हमारे देश में लक्ष्मी की सूरत काफी जानी पहचानी है। शुरू में लक्ष्मी को हमने ‘श्री’ रूप में देखा, शस्य-श्यामला पृथ्वी के रूप में देखा। हरे-भरे धान के उस खेत को इस लक्ष्मी के चहकते हुए छोटे शिशु के रूप में हमने देखा, जो कीच-कांदों में घुटनों के बल रेंगना और बीच-बीच में सिर हिलाकर झूमना सीखता है, जो अभी अपनी धरती मां से दूध ले रहा होता है। हिन्दुस्थान के खेतिहर को जितनी प्रसन्नता, जितना उल्लास मिट्टी के आंगन में चलना सीखते हुए दुधमुंहे बच्चे की क्रीड़ा से होता है उतना ही उल्लास बालियों के भार से झुके हुए घुटने तक कीचड़ में धंसे हुए धनहर खेत से होता है। यह धनहर खेत धान्य लक्ष्मी का पहला बेटा है और श्री देवी की अवधारणा में धान की सुनहली बाली और पंक दोनों एक साथ आते हैं। पंक से उत्पन्न होने वाला पंकज श्री का प्रिय सहोदर है।
‘श्री’ विष्णु का वरण करती हैं और विष्णु बारह आदित्यों में सबसे तेजस्वी, सबसे गतिशील और सबसे अधिक समस्त लोगों के भरणकर्ता आदित्य हैं। कमल भी सूर्य के प्रकाश से ही खिलता है, सूर्य के प्रकाश तक ही खिला रहता है, सूर्य की प्रभातकालीन आभा की तरह ही लाल रहता है। उसके गर्भ से सूर्य की किरणों की तरह स्वर्णिम किंजल्क निकलते हैं। श्री भी पंक में धंसी हुई धान की खेती की तरह स्वयं पंक नहीं है, वह पंक की संभावना है, सुनहली संभावना है। वह धरती के तप और तपाकर रीझने वाले सूर्य की रस-वृष्टि इन सबसे उत्पन्न होती है। इस श्री की प्रतिमा भी इसीलिए आदिकाल से मिट्टी की ही बनती आई है, क्योंकि मिट्टी ही से तो वह रची जाती है, वह मिट्टी से अधिक तपती है। केवल बाहरी ताप में ही नहीं तपती है, निर्धूम आवां की मंद-पर बंद-आंच में भी तपती है। और उसमें से दमककर निकलती है।
सुदूर हिंदेशिया के हिंदू-बहुल द्वीप बाली में जब-जब धान की फसल तैयार होती है, ‘देवी सिरी’ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का अनुष्ठान बड़ी सुरुचि के साथ होता है। गाजे-बाजे और नृत्य-गीत के साथ जुलूस निकलता है। स्त्रियां, विशेषकर कुमारिकाएं, सिर पर मंगल कलश लेकर चलती हैं और धान के पौधों से ‘श्री’ की आकृति बनाई जाती है। उन्हें तरह-तरह के उपहार भेंट किए जाते हैं। पर सबसे बड़ा उपहार होता है एक सौष्ठवपूर्ण छंदमय उत्सव का क्षण, जिसमें सभी सम्मिलित जन ‘देवी सिरी’ के ही प्रतिरूप बन जाते हैं। श्री का अर्थ और क्या है-अवध्य सौंदर्य, अखंडित सौभाग्य और अपूर्व शोभा।
कालिदास ने सौंदर्य का उत्कर्ष इसीलिए मातृत्व में पाया है। यहां तक कि उनकी तेजस्वी कुमारियां भी पौधों को, मृगशावकोें को, पक्षियों को स्नेह देकर मातृत्व की गरिमा से मंडित हो जाती हैं। पार्वती और शकुंतला क्रमश: शिव या दुष्यंत को केवल आकृष्ट करने के कारण सुंदर नहीं हैं, इसलिए सुंदर हैं कि उन्होंने तपोवन के प्रत्येक अबोध प्राणी को और नए पौधों को मां का स्नेह दिया है।
मां हुए बिना सौंदर्य की पूर्णता नहीं, नारी के सौंदर्य की पूर्णता नहीं और नारी हुए बिना तन से न सही, मन से, चित्त से नारी हुए बिना पुरुष की संपूर्णता नहीं। अत्यंत प्रागैतिहासिक काल से श्रीदेवी की मिट्टी की मूर्तियां स्पष्ट रूप से मातृत्व के उभार का संकेत देती हैं। इसके साथ ही इस प्रकार की मूर्ति प्राय: निरावरण है। यह कुछ लोगों की दृष्टि में उर्वरता का द्योतक है, पर मेरे विचार से यह श्री या भूदेवी की उन्मुक्त वत्सलता का द्योतक है।
मिट्टी की लक्ष्मी जो घर-घर हम पूजते हैं, वह केवल हमारी सांसारिकता की प्रतिमा नहीं । वह हमारी सहज चेतना की प्रतिमा है, इसीलिए तो मिट्टी की है। टूटती नहीं कि फिर गढ़ ली जाती है और टूटती भी कहां, मिट्टी में तो वह अव्यक्त रूप में बनी ही रहती है। उसे केवल पानी और धर्मचक्र की आवश्यकता रहती है
कालिदास ने इसीलिए वसुधा को ‘उदाररमणीय’ कहा है। इसकी रमणीयता का जादू इसकी कभी भी शेष न होने वाली उदारता में है। श्री या पृथ्वी की अवधारणा सहजता, परिपूर्णता, उदारता और बंधुरता के समुच्चित आकार के रूप में है। जो हमारे साहित्य में है, वही हमारी सौंदर्य-शास्त्रीय अवधारणा भी है। सौंदर्य गहराई और ऊंचाई के संतुलित संयोग के बिना अकल्पनीय है।
लक्ष्मी की एक दूसरी पहचान है, जो ऊपर से ऊपर वाली पहचान से अलग दिखती है, पर भीतर से उससे एकदम जुड़ी हुई है। लक्ष्मी समुद्र के मंथन से उद्भूत हुई हैं। दूसरे शब्दों में, समष्टि प्रयत्न से समष्टि संभावना का मंथन हो तब लक्ष्मी उत्पन्न होती हैं। और लक्ष्मी के साथ विष भी उत्पन्न होता है, अमृत और सुरा भी उत्पन्न होते हैं। प्रयत्न करने का जैसा संकल्प होगा, वैसे ही लक्ष्मी मिलेगी। यदि दूसरों को क्षति पहुंचाना ही प्रयत्न के पीछे उद्देश्य लिए होगा तो वह लक्ष्मी विष लिए आएगी और उस विष को निगलने के लिए किसी संहारकर्ता की तलाश करनी होगी।
यदि प्रयत्न के पीछे अपने को बड़ा सिद्ध करने का भाव होगा तो लक्ष्मी सुरा लिए हुए आएगी और उसी सुरा के माध्यम से चली भी जाएगी। और अंत में, यदि लक्ष्मी दूसरों के लिए अर्पित होने का भाव लेकर उपजाई जाएगी तो वहां अमृत लेकर आएगी। अमृत होना अपने लिए नहीं होता, क्योंकि अमृत होने का अर्थ है- जीवन का विराम न होना। जीवन का अर्थ है- प्रवाह का विराम न होना, दूसरों के लिए प्रवाहित होने का विराम न होना। समुद्र-मंथन की पौराणिक कथा में लक्ष्मी समुद्र से निकलती है। वाराह के द्वारा पृथ्वी के उद्धार की कथा में भी पृथ्वी (स्थल के रूप में) जल से निकल करके उभरती है।
पृथ्वी भी विष्णु-पत्नी है, क्योंकि उसकी गति सूर्यरूप विष्णु के आकर्षण से नियमित है। समुद्र-मंथन वाली लक्ष्मी भी विष्णु को ही पति रूप में वरण करती है, क्योंकि वे सबसे अधिक क्षमाशील हैं। उनकी छाती पर श्री वत्स का चिह्न उनके क्षमाशील होने का प्रमाण है। यह चिह्न भृगु के चरण-आघात का चिह्न है। लक्ष्मी इसी चिह्न के साथ एक होकर विष्णु के हृदय में निवास करती हैं। इसी अर्थ में लक्ष्मी और पृथ्वी दोनों में समानता है कि दोनों उद्यम, धैर्य, क्षमा और सत्व गुण को सबसे अधिक महत्व देती हैं। दोनों जगत् के पालनकर्ता की अर्धांगिनी हैं। दोनों में एक अनंत अव्यक्त जल से उभरकर समस्त प्राणियों की आश्रयदात्री होने का भाव है।
लक्ष्मी का यह स्वरूप हिंदू घर के लिए सबसे अधिक आत्मीय है। इसीलिए हिंदू गृहिणी की अवतारणा लक्ष्मी के रूप में की गई है। वह भी चाभी संभालने के कारण लक्ष्मी नहीं है, बल्कि इसलिए लक्ष्मी है कि उसके रहने से घर भरा रहता है। घर भरा इसलिए रहता है कि वह बराबर दूसरों को भरता रहे। यदि ऐसा न हो तो वह घर सांप का घर हो जाए। सांप धन के ऊपर कुंडली मारकर बैठा रहता है, पर लक्ष्मी उस सांप के ऊपर सोए हुए विष्णु की छाती के ऊपर विराजमान रहती हैं।
वह अनंत महासागर की कन्या हैं और अनंतशायी विष्णु की अंकशायिनी हैं। वे समस्त जगत् का संभरण करने वाली हैं। गृहलक्ष्मी भी लक्ष्मी के इसी गुण को अपनाकर वास्तविक अर्थ में लक्ष्मी होती है। लक्ष्मी पूर्ण उत्सर्ग है, वह देवताओं के लिए तेज से उद्भूत होती है। यह तेज भी देवताओं का है जो महिषासुर के आगे निस्तेज हो गए हैं, क्योंकि वे अलग-अलग अधिकार पर आसीन थे। उनमें सम्मिलित अधिकार की भावना का भाव नहीं था। वही देवता मस्त होकर जब विष्णु और शिव के पास जाते हैं तो महिषासुर के अन्यायपूर्ण अत्याचार की चर्चा से शिव और विष्णु क्रुद्ध हो जाते हैं और इस सात्विक क्रोध के कारण उनके भीतर छिपा तेज जाग जाता है।
उसी तेजोराशि से महालक्ष्मी प्रकट होती हैं और प्रत्येक देवता अपनी-अपनी विशिष्ट भेंट अर्पित करते हैं। इस रूप में भी महालक्ष्मी कमलासना हैं, कमल के रूप में विराजमान हैं। कमल से संबंध उनका इस रूप में भी बना रहता है। कमल ऐसे सौंदर्य और सौष्ठव का प्रतिमान है, जो प्रकाशधर्मी होने के साथ-साथ रसधर्मी भी है। महालक्ष्मी की यह अवधारणा निश्चित रूप से इस पर बल देती है कि देवता होना अकेले पर्याप्त नहीं, प्रकाशधर्मी होना अकेले पर्याप्त नहीं। रसधर्मी भी होना चाहिए, ज्ञान मात्र पर्याप्त नहीं है।
महिषासुर से हारने वाले देवता प्रकाशधर्मी हैं, ज्ञानी हैं पर उनके भीतर का भाव सोया है। इसीलिए महिषासुर अंधकारधर्मी होने के बावजूद सक्रिय और आवेगवान् होने के कारण देवों को परास्त कर देता है। महालक्ष्मी की उत्पत्ति देवताओं के आवेग से हुई है। कोई भी धर्म तब तक धर्म नहीं हो सकता जब तक कि वह अन्याय का प्रतिरोध करने की क्षमता न रखता हो। यह क्षमता जिसमें होती है उसमें एक ओर चित्त में कृपा होती है, दूसरी ओर समर में निष्ठुरता, एक ओर उदयकालीन चंद्रमा की मोहक छवि होती है, दूसरी ओर आंखों में ऐसी लपट होती है, जो अंधकार की शक्तियों को भस्म करती है। एक ओर वह कमलासना है, दूसरी ओर सिंहवाहिनी है।
महिषासुर तामस होते हुए भी अपनी संगठित सक्रियता के कारण तामस से भी निकृष्ट हो जाते हैं और इसीलिए उनकी हार होती है। उनका उद्धार उनके राजस-भाव के उदय से होता है और राजस-भाव सात्विक निष्क्रियता से बड़ा होता है। भारतीय विचारधारा अर्थ और काम की एषणा को छोटा नहीं मानती। छोटा मानती है उस समझदारी को और अहंकार को, जो उन्हें छोटा कर देते हैं।
महिषासुर इसी ‘मेरा’ और ‘मैं’ के कारण देवी की शक्ति के आगे छोटा हो जाता है। महालक्ष्मी की उपासना का अर्थ एक ओर जहां संपूर्ण जीवन के रागात्मक संबंध से जुड़ना है, वहीं दूसरी ओर उसका उद्देश्य इस राग को ढकने वाले मद और मोह से मुक्त होना भी है। महालक्ष्मी संपूर्ण जीवन की प्यास हैं, संपूर्ण जीवन की भूख हैं, संपूर्ण जीवन की स्मृति हैं और यदि कभी भ्रांति है तो इसलिए कि संपूर्ण जीवन के साथ घूमते हुए चक्कर आ ही जाता है।
हिन्दुस्थान के खेतिहर को जितना उल्लास मिट्टी के आंगन में चलना सीखते हुए दुधमुंहे बच्चे की क्रीड़ा से होता है उतना ही उल्लास कीचड़ में धंसे हुए धनहर खेत से होता है। यह धनहर खेत धान्य लक्ष्मी का पहला बेटा है और श्री देवी की अवधारणा में धान की सुनहली बाली और पंक दोनों एक साथ आते हैं
लक्ष्मी की ये भिन्न-भिन्न प्रकार की पहचानें जिस एक बिंदु पर जुड़ती हैं वह हैं विष्णु। दूसरे शब्दों में यह व्यापक होने का भाव है, व्याप्त करने का भाव है। यह आकस्मिक संयोग के कारण नहीं हुआ कि इस देश से इस देश का संस्कार बाहर ले जाने वाले पहले यात्री जब चंपा (आधुनिक वियतनाम) में पहुंचे तो उनके साथ लक्ष्मी और विष्णु थे। लक्ष्मी आत्म-विस्तार की देवी हैं, धन-विस्तार की नहीं। वह इंद्रियों की अधिष्ठात्री हैं, लेकिन समस्त प्राणियों, चेतन-अर्धचेतन, समस्त जीव-जगत् की इंद्रियों की अधिष्ठात्री भी हैं और इस अभिप्राय से अधिष्ठात्री हैं कि समस्त प्राणियों के साथ हमारा प्रत्यक्ष संबंध है-
इंद्रियाणामधिष्ठात्री।
भूतेषु सततं तस्मै व्याप्तिदेव्यै नमो नम:।।
महालक्ष्मी विश्व के रागात्मक प्रसार की देवी है पर वह छोटी आसक्ति नहीं है, वह महा आसक्ति है, ऐसी विशाल आसक्ति, जिसमें सबको समेटकर ले चलने का संकल्प है। यह लक्ष्मी न तिजोरियों में बंद होती है, न उल्लू की सवारी करती है, न विद्या की उपेक्षा। यह महाकाली की छोटी बहन है, महासरस्वती की बड़ी बहन है।
मिट्टी की लक्ष्मी जो घर-घर हम पूजते हैं, वह केवल हमारी सांसारिकता की प्रतिमा नहीं हैं। वह हमारी सहज चेतना की प्रतिमा है, इसीलिए तो मिट्टी की है। टूटती नहीं कि फिर गढ़ ली जाती है और टूटती भी कहां, मिट्टी में तो वह अव्यक्त रूप में बनी ही रहती है। उसे केवल पानी और धर्मचक्र की आवश्यकता रहती है और रहती है दूसरों की प्यास बुझाने के लिए घड़े और सकोरे रचने का आवेग लिए हाथों की।
(साभार : भारतीय संस्कृति के आधार)
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