लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने चंद्रमा की 16 कलाओं से संयुक्त शरद पूर्णिमा की रात्रि को जिस महारास का आयोजन किया था, उपनिषद के मनीषी उसे अध्यात्म क्षेत्र की महानतम परिघटना मानते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण का महारास आध्यात्मिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से एक गहन रहस्य है। “रास पंचाध्यायी” में 16 कलाओं के पूर्णावतार श्रीकृष्ण द्वारा रचाये गये इस महारास का विशद् वर्णन मिलता है। इस कृति में वर्णन मिलता है कि श्री (धन संपदा), भू (अचल संपत्ति), कीर्ति (यश प्रसिद्धि), इला (वाणी की सम्मोहकता), लीला (आनंद उत्सव), कांति (सौदर्य और आभा), विद्या (मेधा बुद्धि), विमला (पारदर्शिता), उत्कर्षिणि (प्रेरणा और नियोजन), ज्ञान (नीर क्षीर विवेक),क्रिया (कर्मण्यता), योग (चित्तलय), प्रहवि (अत्यंतिक विनय), सत्य (यथार्य), इसना (आधिपत्य), अनुग्रह (उपकार); यही वे 16 कलाएं थीं जिनके सम्मोहन में बंधकर समूचे ब्रजमंडल की गोपियां उस “निधि वन” की ओर खिंची चली गयीं जहां श्रीकृष्ण ने महारास के रूप में उनको आत्मसाक्षात्कर की अलौकिक अनुभूति करायी।
“रास पंचाध्यायी” में वर्णित तत्वदर्शन के मुताबिक महारास कोई काम क्रीड़ा नहीं अपिुत विशुद्ध प्रेम को सर्वोच्च अवस्था है। गोपी कृष्ण की बांसुरी की भावपूर्ण मधुर तान सुनकर गोपियां जब उनके निकट जा पहुंचीं तो भगवान श्रीकृष्ण ने यह परखने के लिए कि कहीं ये गोपियां कामवश तो यहां नहीं पहुंचीं; सतीत्व का उपदेश देकर उनके मनोभावों की परीक्षा ली। तब उन गोपियों ने यह उत्तर दिया, “हे मधुसूदन! इस लौकिक जीवन में हमारे पति हमारा पालन-पोषण करते हैं और पुत्र हमको नरक से तारते हैं लेकिन पुत्र और पति ये भूमिकाएं अल्पकाल तक ही निभाते हैं मगर आप तो जन्म-जन्मांतरों से हमारा पालन-पोषण करते आ रहे हैं इसलिए हे श्याम! हमारी परीक्षा मत लीजिए और हमें अपने उस परम आत्मभाव का साक्षात्कार कराइए।” निर्मल मन वाली गोपिकाओं के इस उत्तर में इस महारास की उच्चतम भावभूमि परिलक्षित होती है। इसके बाद गोपियां मंडलाकार खड़ी हो जाती हैं और योगेश्वर अपने महाभाव में प्रत्येक गोपी के साथ रासोत्सव मनाते हैं। महामनीषी श्री अरविंद ने इस आध्यात्मिक परिघटना को “ओवरमाइंड” की संज्ञा दी है।
सुप्रसिद्ध मनीषी पं. बलदेव उपाध्याय अपनी कृति “भारतीय दर्शन” में लिखते हैं ,”लीलाधर की रासलीला वस्तुत: जीव के पूर्ण समर्पण भाव का द्योतक है। लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण आप्तकाम थे जिन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साथ गोपिकाओं को अप्राकृत प्रेमामृत का पान कराया था। वे लिखते हैं कि सर्वात्म समर्पण करने पर प्रेमदान का यह लीला विलास मानव को अलौकिक आनंद प्रदान करता है, इसमें कलुषित कामना का रंचमात्र भी नहीं है।”
भगवान श्रीकृष्ण और शरद पूर्णिमा का संबंध 16 की संख्या से भी जुड़ता है। भारतीय दर्शन में 16 की संख्या पूर्णता का प्रतीक मानी जाती है। श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से युक्त संपूर्ण अवतार माने जाते हैं और शरद ऋतु की पूर्णिमा का सोलह कलाओं से संयुक्त चंद्रमा भी संपूर्णता और सौंदर्य का अधिपति बन अपनी कलाओं से समूचे विश्व को सम्मोहित करता है। अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, धृति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृत, प्रतिपदा; इन 16 कलाओं से संयुक्त शरद पूर्णिमा इसलिए भी सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि इस रात्रि में चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण उसका ओज सबसे तेजवान और ऊर्जावान होता है। कहते हैं इस दिन चंद्रमा से अमृत वर्षा होती है। इसीलिए इस दिन की चन्द्रकिरणों के औषधीय गुण हमें रोगमुक्त करते हैं। इसीलिए हमारे आयुर्वेद विशेषज्ञों ने गोदुग्ध व चावल से निर्मित खीर को शरद पूर्णिमा की रात में खुले आसमान तले रखने और प्रात:काल उसको प्रसाद रूप में ग्रहण करने की परम्परा बनायी थी। यह भी कहा जाता है कि इस दिन चांद को कुछ देर लगातार देखने से आंखों की रोशनी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह बात आयुर्वेदीय परीक्षणों में भी साबित हो चुकी है कि इस खीर के सेवन से मौसम बदलने पर फैलने वाले रोगों से मुक्ति मिलती है। इसलिए इसे आरोग्य का पर्व भी कहते हैं। कहा जाता है कि लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी।
शास्त्रीय कथानकों के अनुसार माता महालक्ष्मी और महर्षि वाल्मीकि का जन्म शरद पूर्णिमा को ही हुआ था। भगवान शिव और माता पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय भी इसी दिन जन्मे थे। नारद पुराण के अनुसार इस धवल चांदनी में मां लक्ष्मी पृथ्वी के मनोहर दृश्यों का आनंद उठाने भ्रमण के लिए निकलती हैं और इस अवधि जो मनुष्य जाग कर इस अमृत बेला का लाभ उठाता है, उनकी आराधना करता है, उसे अपने अनुदान वरदान देती हैं। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को कोजागरी पूर्णिमा ( कौन जाग रहा) भी कहा जाता है। मिथिलांचल में कोजागरी पूर्णिमा पर मां महालक्ष्मी की पूजा विधि-विधान से की जाती है। बंगाल और उत्तर भारत में जहां यह उत्सव शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है वहीं दक्षिण भारत में क्वार पूर्णिमा के रूप में। वहां इस दिन गजलक्ष्मी की पूजा होती है।
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