सेंगोल का विरोध, उसके इतिहास को झुठलाकर उसे “नेहरु जी की वॉकिंग स्टिक” मनवाने की सनक भरी कोशिशें, कथित सेकुलरिज्म के लिए मर्सिया गाते वामपंथी पत्रकारों के लेख, समारोह का विरोध, किसी छटपटाहट की ओर इशारा कर रहा है.
सेंगोल, धर्म व न्याय आधारित सनातन भारतीय शासन व्यवस्था का प्रतीक है, यह शास्त्र सिद्ध भी है और प्रमाण सिद्ध भी, परन्तु आज बीती सदियों और स्वाधीनता पश्चात के दशकों के विस्मरण, भय और षड्यंत्रों की ओर ध्यान खींचने वाला माध्यम भी बन गया है. एक तरफ सुधी नागरिक, इसमें अपने शाश्वत जीवन मूल्यों और गौरव को देख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इकोसिस्टम में हाहाकार मचा है, जिसे इसमें अपने अस्तित्व की समाप्ति दिखाई पड़ रही है. सेंगोल का विरोध, उसके इतिहास को झुठलाकर उसे “नेहरु जी की वॉकिंग स्टिक” मनवाने की सनक भरी कोशिशें, कथित सेकुलरिज्म के लिए मर्सिया गाते वामपंथी पत्रकारों के लेख, समारोह का विरोध, किसी छटपटाहट की ओर इशारा कर रहा है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने 28 मई के उद्घाटन को नेहरूवाद और नेहरु की अंत्येष्टि ( 28 मई 1964) से जोड़ा, तो राजद ने संसद भवन के साथ ताबूत का चित्र ट्वीट कर डाला.
इकोसिस्टम की एक और आपत्ति ये कि 28 मई वीर सावरकर की जन्मतिथि है. उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि सावरकर भारत के प्रथम क्रांति संगठनकर्ता, लेखक, 1857 का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले पहले इतिहासकार , विचारक, विदेशी वस्त्रों की पहली होली जलाने वाले, दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले और समाज में छुआछूत मिटाने के लिए अपने जीवन के कई दशक खपाने वाला चरित्र हैं, उन्हें इस नाम से चिढ़ है क्योंकि सावरकर हिंदुत्व के आग्रही रहे. हिंदुत्व को सर्वोच्च न्यायालय ने रिलीजन के दायरे में न रखते हुए ‘जीवन जीने का तरीका’ (वे ऑफ़ लाइफ) कहा है. ये ‘वे ऑफ़ लाइफ’ भारतवासियों के जीने का तरीका है. भारत की पहचान है. इसीलिए संविधान की मूल प्रति में राम-जानकी -लक्ष्मण का चित्र है. गीता का उपदेश देते कृष्ण का चित्र है. वहाँ नटराज हैं, देवी-देवता, तप करते ऋषि-मुनि हैं. भगवान बुद्ध और महावीर हैं.
सेंगोल, धर्म व न्याय आधारित सनातन भारतीय शासन व्यवस्था का प्रतीक है
यह शास्त्र सिद्ध भी है और प्रमाण सिद्ध भी हैं
इसमें सुधी नागरिक, अपने शाश्वत जीवन मूल्यों और गौरव को देख रहे हैं
सावरकर भारत के प्रथम क्रांति संगठनकर्ता
1857 का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले पहले इतिहासकार
सावरकर हिंदुत्व के आग्रही रहे
‘जीवन जीने का तरीका’ (वे ऑफ़ लाइफ) कहा है.
ये ‘वे ऑफ़ लाइफ’ भारतवासियों के जीने का तरीका है.
भारत की पहचान है.
संविधान की मूल प्रति में राम-जानकी-लक्ष्मण का चित्र है.
गीता का उपदेश देते कृष्ण का चित्र है.
वहाँ नटराज हैं, देवी-देवता,
तप करते ऋषि-मुनि हैं.
भगवान बुद्ध और महावीर हैं.
कुतर्क दिए जा रहे हैं कि सेंगोल राजतंत्र का प्रतीक है, ‘सेकुलर’ संसद की ‘सेरेमनी’ में नंदी का क्या काम है आदि. राजनीतिक मजबूरियों के चलते कुछ लोग उद्घाटन कौन करे, इस पर केंद्रित रहे, लेकिन इन मजबूर नेताओं के बौद्धिक सिपहसालार, कामरेड, समारोह में पुरोहितों की उपस्थिति, पूजन , अन्य भारतीय प्रतीकों पर खुलकर जुबानी कोड़े बरसा रहे हैं. “धर्म का यहाँ क्या काम? “ पूछने वाले जवाब नहीं देते कि अशोक चक्र वास्तव में धर्मचक्र है, उसे संविधान निर्माताओं ने क्यों अपनाया? नंदी से सेकुलरिज्म को ख़तरा है तो शेरों के प्रतीक चिन्ह को क्यों अपनाया गया? संविधान की मूल प्रति में पहला चित्र सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त हुए नंदी का है.
क्या नृसिंह भगवान की, सिंह की सवारी करने वाली शक्ति, की जानकारी संविधान निर्माताओं को नहीं थी? धर्म शब्द से संविधान को इतना परहेज होता तो हमारी खुफिया एजेंसी रॉ का ध्येय वाक्य “धर्मो रक्षति रक्षितः” क्यों है जिसका अर्थ होता है “धर्म की रक्षा करो, धर्म हमारी रक्षा करता है.” धर्म का अर्थ क्या है? संविधान की मूल प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द क्यों नहीं जोड़ा गया था?
सियासत के लिए संविधान की उद्देश्यिका को बदला…
हमारे देश की विडंबना देखिए, कि सर्वोच्च न्यायालय में महाभारत से लिया हुआ ध्येय वाक्य लिखा है “यतो धर्मस्ततो जयः”, अर्थात, “जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है,” लेकिन, आपातकाल की पृष्ठभूमि में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने, संविधान की उद्देश्यिका में ही परिवर्तन करते हुए धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ दिया. राजनीति से प्रेरित यह कदम भारत के ज्ञानकोष और इतिहास के साथ अन्याय था.
भारतीय परंपरा कहें, अथवा सनातन परंपरा या हिंदू परंपरा, में सदा से धर्म का अर्थ न्याय, कर्तव्य और स्वभाव से रहा है. सबका कल्याण जिसमें है वह आचरण, धार्मिक या धर्माचरण कहा गया. धर्म अर्थात रिलीजन नहीं, उसके लिए पूजा, उपासना आदि शब्द रहे हैं. अन्यथा गीता की शुरुआत में “धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे” शब्द क्यों आता, जहाँ दोनों ओर से एक ही कुटुंब के लोग युद्ध करने खड़े थे. इसे धर्म युद्ध कहा गया, क्योंकि भारत का दर्शन है कि “धर्मेणैव प्रजाः सर्वाः रक्षन्ति स्म परस्परं” धर्म के कारण प्रजा जन परस्पर एक दूसरे की रक्षा करते हैं.
संविधान निर्माता ये बात जानते थे. इसलिए संविधान निर्माताओं ने संविधान की उद्देश्यिका में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उपयोग नहीं किया था. 26 नवंबर 1949 को स्वीकृत हमारे संविधान की उद्देश्यिका इस प्रकार थी…
“हम, भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार,अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए; दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनाँक 26 नवंबर 1949 ईo “मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत 2006 विक्रमी” को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”
यहाँ धर्मनिरपेक्ष शब्द क्यों नहीं है? उपरोक्त वाक्यों पर मनन करें तो ध्यान आएगा कि यह हिंदुत्व की ही एक व्याख्या है. ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (सब सुखी हों) ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम’ (परोपकार पुण्य है, दूसरे को पीड़ा देना पाप है), ‘अहम् ब्रह्मास्मि, तत्वमसि’ (मैं ब्रहम हूँ,.. वह तुम हो) का यही तो दर्शन है. वेदों में राष्ट्र कल्याण की कामना करती अनेक ऋचाएँ है. अथर्ववेद कहता है कि कल्याण की कामना से ऋषियों ने तप करके इस राष्ट्र का निर्माण किया. प्राचीनकाल से हमारी राष्ट्रीयता की कल्पना का आधार मानव कल्याण है.
जिन अर्थों में आज धर्मनिरपेक्ष शब्द को परिभाषित किया जाता है , उसके लिए संविधान निर्माताओं ने भारत की सनातन परंपरा के अनुरूप “विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” का उपयोग किया. धर्मनिरपेक्ष जैसे अर्थहीन शब्द का उपयोग नहीं किया. धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद, ये दो अभारतीय शब्द, श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 1976 में संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े. स्वाधीन भारत का इतिहास साक्षी है कि कितने अधर्म इस शब्द की आड़ में छिप गए.
‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (सब सुखी हों) ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम’ (परोपकार पुण्य है, दूसरे को पीड़ा देना पाप है), ‘अहम् ब्रह्मास्मि, तत्वमसि’ (मैं ब्रहम हूँ,.. वह तुम हो) का यही तो दर्शन है. वेदों में राष्ट्र कल्याण की कामना करती अनेक ऋचाएँ है. अथर्ववेद कहता है कि कल्याण की कामना से ऋषियों ने तप करके इस राष्ट्र का निर्माण किया. प्राचीनकाल से हमारी राष्ट्रीयता की कल्पना का आधार मानव कल्याण है.
न्याय और कर्तव्यपालन का प्रतीक –
हजारों वर्षों से सेंगोल न्याय और कर्तव्यपालन का प्रतीक रहा है, न कि राजतंत्र का. जब सम्राट युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ, तब भी उनके हाथ में यह दंड थमाया गया था. भगवान् कार्तिकेय के हाथ में भी सेंगोल है. जब राजा का राज्याभिषेक होता था तो उसकी पीठ पर धर्मदंड से तीन बार प्रहार किया जाता था, जिसका अर्थ था कि तुम स्वयं भी न्याय के आधीन हो. इसलिए लोकसभा अध्यक्ष की आसंदी के पार्श्व में इसे स्थापित किया जाना स्वागत योग्य है.
नए संसद भवन में छः द्वारों पर छः मूर्तियाँ हैं, पूर्व में गरुड़, उत्तर में गज, उत्तर पूर्व में हंस, दक्षिण में अश्व , बाघ, मकर आदि. मयूर और कमल की तर्ज पर निचले व उच्च सदन को रचा गया है. राष्ट्रीय वृक्ष बरगद भी यहाँ है. शीर्ष पर विराजमान सिंह पराक्रम की मुद्रा में हैं.
नया संसद भवन और भी कारणों से कुछ लोगों को चुभ रहा है. यहाँ प्राचीन भारत की सीमाओं (अखंड भारत) को दर्शाता वृहद् मानचित्र (म्यूरल) मौजूद है. जिसमें भारत के प्राचीन नगर जैसे हस्तिनापुर, मथुरा, मगध, श्रावस्ती, उज्जयनी, कांचीपुर आदि और ऐतिहासिक क्षेत्र जैसे कुरुक्षेत्र ( वृहद् पंजाब, हिमाचल, व हरियाणा ) व दक्षिणापथ दर्शाए गए हैं. अब इस मानचित्र को, राष्ट्र संबंधी वैदिक रिचाओं के प्रकाश में दुनिया देखेगी तो “भारत का जन्म 1947 में हुआ”, और “ भारत राष्ट्र की अवधारणा बिलकुल नई है” जैसे ‘ज्ञान’ को कौन मानेगा? चाणक्य, गार्गी, महात्मा गाँधी, डॉ आंबेडकर, सरदार पटेल की विशाल कांस्य मूर्तियाँ और कोणार्क का रथ चक्र कैसे भाएगा क्योंकि जब आचार्य चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त की जोड़ी विमर्श के केंद्र में आएगी, तो जातिवाद की राजनीति और वर्ग संघर्ष का क्या होगा, क्योंकि चाणक्य ने जिस चन्द्रगुप्त को सँवारा वो आज की परिभाषा के अनुसार वंचित वर्ग से आने वाला एक बालक था. जब गार्गी और लोपामुद्रा जैसी महान वेदज्ञ और वेद निर्माता स्त्रियों की चर्चा चलेगी तो “स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था” पर कौन भरोसा करेगा? नए संसद भवन में छः द्वारों पर छः मूर्तियाँ हैं, पूर्व में गरुड़, उत्तर में गज, उत्तर पूर्व में हंस, दक्षिण में अश्व , बाघ, मकर आदि. मयूर और कमल की तर्ज पर निचले व उच्च सदन को रचा गया है. राष्ट्रीय वृक्ष बरगद भी यहाँ है. शीर्ष पर विराजमान सिंह पराक्रम की मुद्रा में हैं. 5008 कला नमूने यहाँ लगाए जाने हैं.
गौरव पर गुबार क्यों…
जो देश के गौरव का विषय है, उस पर लाल-पीले होने वालों की एक वैचारिक-मानसिक पृष्ठभूमि है. ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने भारत में आत्महीनता, भारतीयता के लिए जुगुप्सा पैदा करने के लिए एक विशाल तंत्र स्थापित किया, जिसने काले अंग्रेज पैदा करने शुरू किए. स्वाधीनता के बाद इस तंत्र को यथावत रखने में कई लोगों को अपने हित दिखे. सत्ता के साथ चिपके हुए कामरेड, इस तंत्र को विस्तार देने वाले अभियंता बन गए, और सत्ताधीश इसके संरक्षक. राष्ट्रीयता जिन्हें अपने स्वार्थ में बाधा लगती है ऐसे दल-बल और तंत्र भी इसके साथ जुड़ गए. भारत से जुगुप्सा रखने वाली मैकॉले जन्य उपनिवेशवादी मानसिकता , भारत की संस्कृति को मिटाने पर आमादा और वास्तव में विश्व की हर संस्कृति को नष्ट करने के अभिलाषी स्टालिन और माओ के चेले, देश से पहले मज़हब की सोच को पोसने वाले गट्ठा वोटों के ठेकेदार, इन सबको मिलाकर बना एक इकोसिस्टम. यही इकोसिस्टम आज बिफरा हुआ है. इसे संविधान की मौत, शर्म की बात और न जाने क्या-क्या बता रहा है.
नये संसद भवन में प्राचीन भारत की सीमाओं (अखंड भारत) को दर्शाता वृहद् मानचित्र (म्यूरल) मौजूद है. जिसमें भारत के प्राचीन नगर जैसे हस्तिनापुर, मथुरा, मगध, श्रावस्ती, उज्जयनी, कांचीपुर आदि और ऐतिहासिक क्षेत्र जैसे कुरुक्षेत्र ( वृहद् पंजाब, हिमाचल, व हरियाणा ) व दक्षिणापथ दर्शाए गए हैं.
शर्म की बात होनी चाहिए थी पुराने संसद भवन के बाहर लगा वो शिलान्यास पत्थर, जिस पर लिखा हुआ है “यह पत्थर श्रीमान महाराज ड्यूक ऑफ़ कनॉट साहिब ने 12 फरवरी सन 1921 ई. को स्थापित किया..” इस भवन को बनाया एडवर्ड लुटियन्स और हर्बर्ट बेकर ने. एडवर्ड लुटियन्स का बयान है “ भारत के पास अपना कोई वास्तुशास्त्र नहीं रहा है,और यदि पश्चिम से न लाया जाए तो कभी होगा भी नहीं..”
नए संसद भवन को अगले डेढ़ सौ सालों की ज़रूरतों को ध्यान रखते हुए बनाया गया है. यह पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर है. इसके लोकसभा कक्ष में 888 और राज्यसभा में 384 सांसद बैठ सकते हैं. आगामी सदी में सांसदों की बढ़ती संख्या भी यहाँ सहजता से व्यवस्थित हो सकेगी.
विचारणीय था, विशाल सिंधु घाटी सभ्यता (मोहनजोदड़ो, हड़प्पा , राखीगढ़ी, लोथल), मौर्य, गुप्त, चंदेल, विजयनगर और चोल साम्राज्य जैसी स्थापत्य कला, नगरीय प्रबंधन और एलोरा गुफाओं वाले देश के बारे में अमेरिकन पत्रकार टकर कार्लसन का ये वक्तव्य कि “ब्रिटिश लोगों ने भारत में जो शानदार इमारतें छोड़ी हैं उन्हें आज भी भारतीय उपयोग कर रहे हैं. क्या उस देश ने ( अंग्रेजों के बनाए) मुंबई रेलवे स्टेशन जैसी एक भी इमारत बनाई है? नहीं ..” कार्लसन ने ये वाक्य अमेरिका की अफगान नीति के बारे में बोलते हुए कहा था. भारत की महान विरासत के प्रति दुनिया में इस अनभिज्ञता के लिए हम जिम्मेदार है. आज भारत की संसद इस खाई को पाटने की दिशा में एक बड़ा कदम है.
एक अन्य सहज बोध की बात है कि अंग्रेजों ने इस भवन को भारत जैसे विशाल देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन के लिए तो नहीं बनाया था. उन्हें तो कुछ कथित प्रतिनिधियों इस “इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल” को वहाँ बिठालना था जिनसे गोरे साहब बात करके भारतीय असंतोष को अधिक बढ़ने से रोके रहें. याने यह व्यवस्था उसी सेफ्टी वाल्व का अगला चरण था, जिसकी बात कांग्रेस की स्थापना करने वाले ब्रिटिश नौकरशाह एलन ऑक्टेवियन ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के संदर्भ में की थी. पुरानी संसद में स्थान का अभाव था, सांसदों और कर्मचारियों दोनों के लिए. असुविधाएं थी, और 2026 पश्चात सांसदों की संख्या में प्रस्तावित वृद्धि के बाद ये समस्या और दुरूह हो जाती. 100 साल पुराने इस भवन में भूकंप रोधी तकनीक का उपयोग नहीं हुआ था.अग्नि से सुरक्षा और बदलते समय में संसद की सुरक्षा आवश्यकताओं की दृष्टि से भी पुराना संसद भवन उपयुक्त नहीं था. नए संसद भवन को अगले डेढ़ सौ सालों की ज़रूरतों को ध्यान रखते हुए बनाया गया है. यह पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर है. इसके लोकसभा कक्ष में 888 और राज्यसभा में 384 सांसद बैठ सकते हैं. आगामी सदी में सांसदों की बढ़ती संख्या भी यहाँ सहजता से व्यवस्थित हो सकेगी.
नई संसद भारत की सनातनता और नए भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक है. दुनिया इसे प्रशंसा की दृष्टि से देख रही है. भारत की संसद में भारतीयता नहीं दिखेगी तो और कहाँ दिखेगी? ध्यान रखना चाहिए कि संसद केवल चुने हुए जन प्रतिनिधियों के बैठने का स्थान मात्र नहीं है, ये उस देश की आत्मा और अस्मिता का प्रतीक भी है जिसका ये प्रतिनिधि और देश की सरकार प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका एक इतिहास है. प्रेरणाएँ हैं. जीवन मूल्य हैं और इस धरती पर अपनी एक अलग, विशिष्ट पहचान है.
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