मारवाड़ का इलाका यानी भारत और राजस्थान, दोनों का पश्चिमी छोर। थार मरुस्थल वाले इन सरहदी शहरों जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर का मिजाज देसी है और यही खूबी सैलानियों को यहां खींच लाती है। ये इलाके बेहद तपिश के लिए जाने जाते हैं। सूरज का प्रचंड ताप सबसे ज्यादा यहीं दिखता है। यहां की बस्तियों में कुछ रंग अगर फीके हैं, कुछ तड़प है तो सिर्फ पानी की कमी के चलते। इतिहास की गाथाओं को जानने के लिए हम यहां के किलों, स्मारकों, मन्दिरों, संग्रहालयों में जाते हैं, दाल, बाटी, चूरमे का लुत्फ लेते हुए लोक गायकी को मन में बसाए हुए लौट भी आते हैं, मगर सुदूर बसे गांवों की प्यास से वाकिफ नहीं हो पाते।
जोधपुर से करीब 70 किलोमीटर अन्दर है गांव ‘नादिया कल्लां’। साल 2008 में महाराणा प्रताप यूथ क्लब बनाकर युवाओं ने यहां की रंगत बदल दी। महाराणा प्रताप युवा मण्डल के सक्रिय साथियों में गणपत राम मेघवाल, तुलछ पूरी गोस्वामी के अलावा भरत सिंह, शेर सिंह, कान सिंह, रातूराम, श्याम सेन, दयाल सिंह शामिल हैं।
इस मंडली के सक्रिय सदस्य जसवंत के साथ मिलकर पूरी टीम ने पिछले चार साल में जल-स्रोतों के संरक्षण, वृक्षारोपण और वाटिकाएं बनाने के साथ ही गोपाल गौशाला में पशुओं के लिए पानी के काम हाथ में लिये। गांव में बड़ और पीपल के पेड़ लगाने और ताल-नाड़ियों की खुदाई के लिए जंगली बबूलों की कटाई सबसे भारी काम है। प्रदेश भर में ये बबूल तालाबों की खुदाई, खेती, गोचर विकास जैसे हर काम में अड़चन बने हैं। बबूल की झाड़ियों को काटने, मिट्टी की खुदाई और समुदाय के हर काम में गांव के बुजुर्ग, युवा और महिलाएं सब साथ जुटते हैं। चार साल में पूरे गांव में करीब 6 हजार पौधे रोपकर एक-एक की देखभाल की गई है।
महाराणा प्रताप वाटिका, भीमराव आम्बेडकर वाटिका, नारायण वाटिका सहित अब तक 6 वाटिकाओं यानी नर्सरी तैयार करने का काम कतई आसान नहीं है, क्योंकि पानी की किल्लत के बीच पौधों को जिन्दा रखना मुश्किल काम है। इसीलिए वाटिकाओं में भी भामाशाहों यानी दानदाताओं की मदद लेकर टांके बनाए गए हैं ताकि पौधों को आसानी से पानी पिलाया जा सके। स्थानीय जड़ी-बूटियों और औषधीय गुण वाले पौधों के लिए खासतौर से धन्वतरी वाटिका बनाई गई है, जिसके लिए जोधपुर के आयुर्वेद विश्वविद्यालय ने मार्गदर्शन दिया।
शुष्क इलाकों में वनस्पतियों और पारिस्थितिकी पर शोध के लिए बने ‘काजरी’ जैसे कई प्रतिष्ठित संस्थानों की टीम ने यहां दौरा कर पर्यावरण और आजीविका के सुझाव दिए हैं, लेकिन असल काम खेती, पानी और मिट्टी की जुगलबंदी का है। यहां बाजरा, मोठ, ज्वार, जीरा, प्याज सहित हर मौसम का अनाज और हर मौसम की सब्जियां होती हैं। लेकिन पानी अब भी 600-700 फुट नीचे है, इसलिए न खेती करना आसान है न आजीविका चलाना।
75 घेरे, दर्जन भर तालाब
फिलहाल जो बात सबकी समझ में बैठी है, वह यह कि बड़े बदलाव और पानी के ठौर के लिए पहले पेड़ों की घनी आबादी चाहिए। इसके लिए पौधों और ट्री गार्ड का इन्तजाम कुछ संस्थाएं कर देती हैं, लेकिन युवाओं ने स्थानीय तौर पर जाली से बने ट्री-गार्ड बनाकर खुद किफायत करना सीख लिया है। पौधों को सुरक्षा देते ईंटों के घेरों पर हरा, सफेद, केसरिया रंग पोतकर ‘आजादी का अमृत उत्सव’ मनाने की तैयारी में गांव अभी से जुट गया है। गांव वालों ने पूरे 75 घेरे तैयार करने के संकल्प के साथ ही चार नए तालाब और खोद दिए हैं। करीब 7-8 तालाबों को गहरा करने का काम पूरा हुआ है। गांव वाले खुद ही जेसीबी से खुदाई और डीजल के लिए करीब 5 लाख रुपये का सहयोग दे चुके हैं।
हजारों ट्रॉली मिट्टी बाहर निकाली गई। कुछ ट्रैक्टर मालिक तो निस्वार्थ ही करीब डेढ़ महीने तक इस काम में जुटे रहे। यहां के सबसे पुराने कल्याण सागर को गहरा किया गया है। दुनिया भर में साल 2030 तक हासिल किए जाने वाले जिस टिकाऊ विकास लक्ष्य की बात बड़े मंचों पर की जा रही है, उनमें ‘नादिया कल्लां’ जैसे जमीनी काम और कुदरत के साथ तालमेल वाले जीवन की बात ही ज्यादा सुनाई देनी चाहिए।
जल संरक्षण की अद्भुत मिसाल
पूरा गांव जल और वृक्षों को लेकर बेहद सजग है। पहाड़, रेत, आस्था, परंपरा, सौहार्द सब इसके हिस्से हैं। गांव की महिलाओं के स्वयं सहायता समूह भी बन गए हैं और उनकी भागीदारी इन सब कामों में बढ़-चढ़कर है। युवा बुजुर्गों की पारंपरिक समझ का भी पूरा मान रखते हैं। कुछ साल पहले तक जंगली बबूल और सुनसान रास्तों से आना-जाना अखरता था। खुले में जंगली जानवरों का खतरा भी रहता था। अब पानी और वृक्षारोपण के काम से जैसे पूरे इलाके में सुकून है।
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