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होम भारत

होली का रंग तो बनारस में जमता था -गिरिजा देवी

होली के मौके पर होली गायन की बात न चले यह मुमकिन नहीं। जब भी आपको होली, कजरी, चैती याद आएंगी,

WEB DESK by WEB DESK
Mar 7, 2023, 03:11 pm IST
in भारत, उत्तर प्रदेश, साक्षात्कार
गिरिजा देवी

गिरिजा देवी

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होली के मौके पर होली गायन की बात न चले यह मुमकिन नहीं। जब भी आपको होली, कजरी, चैती याद आएंगी, पहली आवाज जो दिमाग में उभरती है उसका नाम है- गिरिजा देवी।  वे भारतीय संगीत के उन नक्षत्रों में से हैं जिनसे हिन्दुस्थान की सुबहें आबाद और रातें गुलजार रही हैं। उनका ठेठ बनारसी अंदाज। सीधी, खरी और सधुक्कड़ी बातें, लेकिन आवाज में लोच और मिठास। आज वे हमारे बीच नहीं हैं। अब उनके शिष्यों की कतार हिन्दुस्थानी संगीत की मशाल संभाल रही है। गिरिजा देवी से 2015 में पाञ्चजन्य ने होली के अवसर पर लंबी वार्ता की थी। इस होली पर प्रस्तुत है उस वार्ता के खास अंश

होली को लेकर आज भी इतना सम्मोहन क्यों है?
होली हमारी सांस्कृतिक परंपरा की देन है। सबको मिलाकर एक कर देती है, ऐसी ताकत है इसमें। जहां तक होली की बात है तो यह तो पूरे हिन्दुस्थान में मनाई जाती है और दुनिया के तमाम देशों में भी, जहां भारत के लोग रहते हैं। गायन की बात करें तो राधा-कृष्ण की होली तो बहुत लोग गाते हैं, जैसे वृंदावन की होली।

…और काशी की होली!
(जैसे उनकी आंखों में कोई फिल्म चलने लगी हो) हमारी काशी में भी खूब होली मनाई जाती थी। परंपरा ऐसी थी कि महिलाएं घर में पकवान बनाती थीं, और गाना-बजाना भी चलता रहता था। पुरुष सुबह से ही खूब रंग खेलते थे। और फिर शाम को शहनाई बजाते हुए पचासों की तादाद में इकट्ठे होकर दूसरे मोहल्ले में जाते थे होली मिलने। लोग अबीर लगाते थे, गले मिलते थे, हिन्दू-मुसलमान सभी। होली के रंग सबको ऐसा मिला देते थे कि हिन्दू-मुसलमान के बीच फर्क मालूम ही नहीं होता था। अब कुछ तो वातावरण बदला है और कुछ लोगों के पास समय कम है, काम ज्यादा। सबको घर चलाने के लिए पैसे की जरूरत है। उसी के जुगाड़ में लोग खटते रहते हैं। फुर्सत बची ही नहीं। तो इस तरह काशी की जो होली पूरी दुनिया में मशहूर हुआ करती थी, उसमें अब बहुत कमी आ गई है।

बदलाव क्या आया है होली मनाने में?
अब बड़े लोग अपने घरों में ही होली खेलते हैं, या फिर अपने दोस्तों-रिश्तेदारों के यहां चले जाते हैं होली खेलने। लेकिन उस समय तो हलवाई लोग, कहार लोग, तमाम छोटे-छोटे काम-धंधों में लगे लोग भी समाज के जाने-माने, बड़े और ओहदेदार लोगों के साथ होली खेलते थे। छोटे-बड़े का कोई फर्क नहीं होता था। कौन पैसे वाला है, कौन कम पैसेवाला, कौन बड़े पद पर है, कौन कम पढ़ा-लिखा सफाई या धोबी का काम करने वाला… सब एक-दूसरे को होली के रंग में ऐसा रंगते थे कि पूछिए मत। ऐसा खुशी और जोश का माहौल होता था होली पर। तब ओहदे, जात-बिरादरी का कोई फासला नहीं था। लेकिन पिछले कई सालों से यह सब कम होते-होते अब तो यह होली का माहौल न के बराबर तक पहुंच गया है। समय भी अब नहीं रहा किसी के पास, क्या बच्चे, क्या बड़े। बच्चों पर भी पढ़ाई का बहुत बोझ है। हर कोई इंजीनियर, मैनेजर बनने के लिए बेचैन है। वो भी क्या करें। ढंग की नौकरी नहीं मिली तो जिंदगी कैसे काट पाएंगे आज के माहौल में। घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है।

होली जो है, वह धमार को बोलते है- ध्रुपद धमार। धमार में होली के ही शब्द रहते हैं सब। वो लयकारी और तबले-मृदंग के साथ होती है। उसमें तिहाइयां बहुत बड़ी-बड़ी बनती हैं। लेकिन अब होली के कई और रंग भी आए हैं। वृंदावन में जो लोग गाते हैं, उसे डफ की होली कहते हैं, क्योंकि वे उसे डफ बजाकर गाते हैं। कीर्तन में होली हो गई है। ठुमरी होली है। चैती होली गाते हैं बनारस में। बनारस में कुछ अनूठा, अलग ही रंग है होली में। तो हम जो देखे हैं, सुने हैं, वही हम अपने शागिर्दों को और बच्चों को बताते हैं।

काशी के संगीतज्ञों और कलाकारों की होली भी मशहूर रही है?
संगीतज्ञों की भी होली ऐसी ही होती थी। वो सबसे मिलते-जुलते थे। रंग चलता रहता था। खूब गाना-बजाना होता था। पर वे बाहर नहीं गाते थे होली। बनारस तो गलियों का ही शहर है। तो यहां गली जो हैं, लगभग हर गली में किसी न किसी संगीतज्ञ का घर होता है। वहीं वे खूब गाते थे और लोग भी उनसे मिलने आते-जाते रहते थे। क्या महफिल सजती थी? एक से एक बड़े कलाकार। आज तो आपको सिर्फ याद ही दिला सकती हूं लेकिन मेरी आंखों के आगे तो वह पूरा दृश्य खिंचा हुआ है, जब काशी में गली-गली होली गाई जाती थी।
हां, हमारी काशी में होलिका जलने के बाद से ही महिलाओं का घर से बाहर निकलना बंद हो जाता था। तो बाहर पुरुष लोग ही होली गाते थे, और वैसे ही फाग भी।

आप तो भारतीय संगीत की धरोहर के तौर पर जानी जाती हैं। कजरी, चैती जैसी तमाम विधाओं में होली गायन की क्या खासियत है?
होली जो है, वह धमार को बोलते है- ध्रुपद धमार। धमार में होली के ही शब्द रहते हैं सब। वो लयकारी और तबले-मृदंग के साथ होती है। उसमें तिहाइयां बहुत बड़ी-बड़ी बनती हैं। लेकिन अब होली के कई और रंग भी आए हैं। वृंदावन में जो लोग गाते हैं, उसे डफ की होली कहते हैं, क्योंकि वे उसे डफ बजाकर गाते हैं। कीर्तन में होली हो गई है। ठुमरी होली है। चैती होली गाते हैं बनारस में। बनारस में कुछ अनूठा, अलग ही रंग है होली में। तो हम जो देखे हैं, सुने हैं, वही हम अपने शागिर्दों को और बच्चों को बताते हैं।

समय के साथ क्या कुछ बदला है?
अब समय नहीं रहा किसी के पास कि फुर्सत से सुन सके। तो बस आधे घंटे में जैसे-तैसे निपटाना पड़ता है। इन विधाओं को बचाने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। संगीत के गुणी लोग और संगीतप्रेमी आगे आएं, छोटी-छोटी कमेटियां बनें, फिर उनकी एक बड़ी कमेटी हो। इस तरह से संगीत की तमाम विधाओं को, जो सैकड़ों साल से हमारी परंपरा रही हैं, बचाया जा सकता है।

आज इसकी क्या उपयोगिता है?
आज ही तो इसकी सबसे ज्यादा उपयोगिता है। लोग जितने तनाव में हैं, निराशा में हैं, उन्हें हिन्दुस्थानी संगीत ही मिटा सकता है। परिवार खुशहाल हो सकते हैं, लोग अपना काम और अच्छे से कर सकते हैं। बीमारी कम होगी।

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