एक तरफ हल्द्वानी रेलवे की जमीन मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तारीख पर सभी लोगों की निगाहें हैं, दूसरी तरफ उत्तराखंड सरकार के निर्देश पर जिला प्रशासन ने अपनी कागजी कार्रवाई भी शुरू कर दी है।
जानकारी के मुताबिक जिला प्रशासन ने यहां वर्षों से काबिज उन लोगों को अपनी जमीन के कागजात की छाया प्रति हल्द्वानी एसडीएम तहसीलदार कार्यालय में देने को कहा है, जो कि ये दावा करते हैं कि उनके पास लीज के दास्तवेज हैं या फिर उनका मालिकाना हक है। जिला प्रशासन ये दस्तावेज अपने राजस्व विभाग के लैंड रिकार्ड से मिलाना चाहता है। जिलाधिकारी धीराज सिंह गर्ब्याल के अनुसार हम ये दस्तावेज मिलान करके ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि ये भूमि रेलवे की है, कब्जेदार की है अथवा सरकार की।
जानकारी के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में अगली तारीख में रेलवे के साथ-साथ उत्तराखंड सरकार को भी अपना पक्ष रखने की जरूरत पड़ सकती है, क्योंकि यदि सुप्रीम कोर्ट ये कहती है कि काबिज लोगों का पुनर्वास भी किया जाए तो उत्तराखंड सरकार अपनी भूमि पर बसे लोगों के बारे में कोई योजना अपने दायरे में रह कर बना सकती है। दरअसल रेलवे का दावा सबसे पहले करीब 29 एकड़ में बसे 4365 परिवारों के करीब चौदह हजार लोगों को लेकर है। जो कि रेलवे स्टेशन के समीप है। स्टेशन से और आगे करीब दो किमी मंडी तक जो लोग काबिज हैं, वो ये दावा करते हैं कि ये जमीन हमारी है और हमारे पास कागज है या पट्टा है। कुल 78 एकड़ पर रेलवे अपनी हद बता रहा है, जो कि रेल पटरी से पन्द्रह मीटर तक चिन्हित की गई है।
उत्तराखंड सरकार और रेलवे को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का इंतजार है। यदि कोर्ट इसे अतिक्रमण मानते हुए यहां काबिज लोगों को कहीं पुनर्वास करने के आदेश भी देती है तो ऐसे में उन्हीं लोगों का पुनर्वास हो पाएगा, जो बीपीएल श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोग जो की जीएसटी और आयकर दे रहे होंगे, वो संभवत: पुनर्वास के पात्र नहीं होंगे। उन्हें अपना अवैध कब्जा छोड़ना या तोड़ना होगा। ऐसी भी जानकारी है कि यहां कथित अवैध रूप से काबिज बहुत से लोगों ने पहले ही अपनी वैकल्पिक व्यवस्था की हुई है। कुछ गरीब तबके के झोपड़ पट्टी वालों ने बाईपास और रेलवे के बीच वन विभाग की जमीन को घेर कर अपनी झोपड़ियां बना भी ली थी क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं रेलवे की कार्रवाई में वे बेघर होकर कहीं के न रहे।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट में ये मामला सुर्खियों में रहेगा, कब्जेदार पक्ष ये साबित करेगा कि हम 50 हजार बेघर हो रहे हैं, जहां रेलवे प्रशासन ये तर्क देगा कि 4365 घरों में चौदह हजार के करीब लोग रहते हैं, न कि 50 हजार। ये तर्क सामने भी बहस का हिस्सा हो सकता है कि यहां काबिज लोग केवल मुस्लिम ही नहीं हैं, बल्कि हिंदू भी हैं।
उत्तराखंड सरकार पहले ही कह चुकी है कि वो इस विवाद में कोई पक्ष नहीं है, ये विवाद रेलवे और कब्जेदारो का है। इस मामले में सरकार के स्कूल, अस्पताल, पानी की टंकियां और अन्य संपत्ति भी चिन्हित हैं। उत्तराखंड सरकार की निगाहें भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों पर हैं यदि वो इस जमीन को खाली करने के आदेश देती है तो सबसे पहले उसे भी अपनी संपत्ति छोड़नी होगी।
सोशल मीडिया में हल्द्वानी रेलवे का मुद्दा काफी सुर्खियों में रहा, हाई कोर्ट के आदेश को अभी अगले तिथि यानी सात फरवरी तक रोका गया है। अगली सुनवाई में ये तर्क वितर्क होंगे कि सुप्रीम कोर्ट पूर्व में भी रेलवे की जमीनों को अवैध कब्जेदारो से खाली करवा चुका है। संभवत: रेलवे पूर्व में उन्हीं आदेशों को सामने रख कर दलील पेश करेगा। देखना अब ये है कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय क्या रुख अपनाता है।
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