जैन धर्म के सुप्रसिद्ध तीर्थ सम्मेद शिखर को पर्यटन व ईको टूरिस्म सेंटर के रूप में विकसित करने के झारखंड सरकार के फैसले विरुद्ध बीते दिनों छिड़ा जैन धर्मावलम्बियों का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन भले ही केन्द्र सरकार की रोक के बाद थम गया है। लेकिन इस बात पर कोई दो राय नहीं है कि इस विवाद ने इस जैन तीर्थ को जन-जन के बीच लोकप्रिय जरूर बना दिया है। तो आइए जानते हैं इस पौराणिक जैन तीर्थ से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य जो इसे जैन धर्मावलम्बियों की आस्था का प्रमुख केंद्र बनाते हैं।
झारखंड राज्य के गिरीडीह जिले के मधुबन क्षेत्र की सबसे ऊंची पहाड़ी पारसनाथ चोटी के शिखर पर समुद्र तल से 520 फीट ऊंचाई पर अवस्थित और नौ किलोमीटर की परिधि में विस्तृत इस सम्मेद शिखर को लेकर जैन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि जिस तरह गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह सम्मेद शिखर के मंदिर तीर्थों की वंदना करने से 49 जन्मों के समस्त सांसारिक पापों का शमन हो जाता है। इसलिए यह ‘’सिद्धक्षेत्र’’ कहलाता है और जैन धर्म में इसे ‘’तीर्थराज’’ की उपाधि दी गयी है।
जैन धर्मशास्त्रों में तीर्थंकरों के पाँच निर्वाण क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है -कैलाश पर्वत, चम्पापुरी, पावापुरी, ऊर्जयन्त और सम्मेद शिखर। कुल 24 तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर भगवान ‘आदिनाथ’ ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर, 12वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने चंपापुरी में, 22वें तीर्थंकर भगवान नेमीनाथ ने गिरनार पर्वत और 24वें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया था। शेष 20 तीर्थंकरों के साथ अनेक महान संतों व जैन मुनियों ने सम्मेद शिखर की पुण्य भूमि में कठोर तप द्वारा मोक्ष प्राप्त किया था।
जैन धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सृष्टि रचना के समय से ही सम्मेद शिखर और अयोध्या, इन दो प्रमुख तीर्थों का अस्तित्व रहा है। इसलिए इसको ‘अमर तीर्थ’ माना जाता है। जैन कवि धानक राय इस तीर्थ की महिमा में कहते हैं- “एक बार वंदे जो कोई, ताहे नरक पशु गति नहीं होई।” सम्मेद शिखर पर्वत पर द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ ने सर्वप्रथम योग निरोध करके मोक्ष प्राप्त किया था, वहीं तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने यहीं से मोक्ष प्राप्त किया था। उनके मोक्ष के बाद भावसेन नाम के राजा ने उस पर्वत की वंदना करके श्रीप्रसन्नमुख मुनिराज की प्रेरणा से पार्श्वनाथ के स्वर्णभद्रकूट पर जिन मंदिर बनवाकर उसमें भगवान पार्श्वनाथ की नीलमणि वाली रत्नप्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। विभिन्न पौराणिक आख्यान इस बात के भी साक्षी हैं कि इस दिव्य तीर्थ की तपऊर्जा से अनुप्राणित होकर प्राचीन काल से वर्तमान समय तक विभिन्न राजाओं, आचार्यों, भट्टारक व श्रमणों ने आत्म-कल्याण और मोक्ष प्राप्ति की भावना से यहां कठोर तप किया था।
जैन धर्म के मनीषियों की मानें तो सम्मेद शिखर जैन धर्म के दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों मतों के अनुयायियों का प्रमुख तीर्थ है। माना जाता है कि जीवन में सम्मेद शिखर तीर्थ की एक बार यात्रा करने पर श्रद्धालु मृत्यु के बाद व्यक्ति को पशु योनि और नरक प्राप्त नहीं होता। जो व्यक्ति सम्मेद शिखर आकर पूरे मन, भाव और निष्ठा से भक्ति करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है और वह संसार के सभी जन्म-कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है। इस पवित्र तीर्थ का नैसर्गिक सौन्दर्य भक्तों के मन में भक्ति व प्रेम की भावना को जगाता है तथा उनको अहिंसा और शांति का संदेश देता है। यही कारण है कि जैन धर्मावलम्बी जब सम्मेद शिखर की तीर्थयात्रा पर आते हैं तो हर तीर्थयात्री का मन अपने पूज्य तीर्थंकरों का स्मरण कर अपार श्रद्धा, आस्था, उत्साह और खुशी से भर जाता है। यही नहीं, इस क्षेत्र की पवित्रता और सात्विकता के प्रभाव से यहां के वन्य क्षेत्र में निवास करने वाले शेर, बाघ आदि जंगली पशुओं का स्वाभाविक हिंसक व्यवहार तीर्थयात्रियों को कोई हानि नहीं पहुंचाता और वे भी बिना किसी भय के आनंद पूर्वक निर्द्वंद यात्रा संपन्न करते हैं।
गौरतलब हो कि कठिन और दुर्गम रास्तों से भरी चढ़ाई होने के बावजूद जैन समाज के धर्मावलम्बी साधक पूर्ण श्रद्धाभाव से सूती वस्त्रों में नंगे पाँव पदयात्रा कर सम्मेद शिखर के 27 किलोमीटर के दायरे में फैले मंदिर-मंदिर जाकर शीश नवाकर पूज्य तीर्थंकरों का वंदन करने के उपरांत ही आहार ग्रहण करते हैं। तीर्थ की वंदना यात्रा मधुबन से शुरू होती है। तीर्थयात्री गर्मियों में सुबह तीन बजे तथा सर्दियों में सुबह चार बजे से चढ़ाई शुरू हर देते हैं। पारसनाथ पहाड़ी पर बिजली व्यवस्था न होने के कारण तीर्थयात्री यात्री लाठी और टार्च साथ लेकर जाते हैं। इस तीर्थ परिधि के प्रमुख पड़ाव बीस तीर्थकरों के मोक्षस्थल हैं जहां उनके चरण चिह्न विराजमान हैं। इन्हें जैन पुराण ग्रंथों में ‘’टोंक’’ के रूप में परिभाषित किया गया है। भक्तगण श्री गौतम स्वामी की टोंक के नमन वंदन से इस यात्रा शुभारम्भ कर आगे कुंठनाथ, नेमिनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, श्रेयांसनाथ, पुष्पदंत, पद्मप्रभु, मुनि सुब्रतनाथ, चन्द्रप्रभु, ॠषभदेव, शीतलनाथ, अनन्तनाथ, सम्भवनाथ, वासुपूज्य देव व अभिनन्दन देव की टोंकों का दर्शन कर अपनी वंदना पूरी करते हैं।
इस कारण किया गया था विरोध
जैन शास्त्रों में सम्मेद शिखर शाश्वत तीर्थ के रूप में वर्णित है। जैन धर्म गुरुओं और धर्मावलम्बियों का कहना है कि हिन्दू धर्म में जो महत्ता बद्री-केदार-द्वारिका व रामेश्वरम जैसे चार धामों तथा काशी, मथुरा, अयोध्या व माँ वैष्णो देवी धाम जैसे दिव्य तीर्थो की है, सिखों के लिए अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की है, इस्लाम के लिए मक्का-मदीना और ईसाइयों के लिए वेटिकन सिटी की है; वही महत्ता जैन समाज के लिए सम्मेद शिखर की है। जैन धर्म गुरुओं का कहना है कि इस संपूर्ण क्षेत्र की प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की गयी तो यहां का पर्यावरण भी खतरे में पड़ जाएगा।
सम्मेद शिखर की प्राकृतिक सुंदरता और यहां की जैव विविधता के साथ भी भविष्य में छेड़छाड़ की जाएगी जिसके चलते इस संपूर्ण क्षेत्र की न केवल पवित्रता नष्ट होगी बल्कि यहां आने का जो आध्यात्मिक भाव और अनुभव होता है वह भी प्रभावित होगा। ईको टूरिज्म के नाम पर देश विदेश के पर्यटकों की गतिविधियां बढ़ने से तीर्थ स्थल के 100 मीटर के दायरे को छोड़कर शराब और मांस की बिक्री खुलेआम होने लगेगी। किसी भी जैन अनुयायी के लिए यह गहरी चिंता की बात है।
देश के जाने माने जैन धर्मगुरु व कथावाचक ललित सागर जी महाराज का कहना है, ‘’यह भलीभांति जान लेना चाहिए कि पर्यटन और परिक्रमा परिव्राजक में जमीन आसमान का फर्क होता है। तपोभूमि या तीर्थ क्षेत्र की लोग परिक्रमा करने जाते हैं और संतजन परिव्राजक होते हैं जो हमेशा ही तपोभूमि पर ध्यान और तीर्थों में परिक्रमा करते रहते हैं। पर्यटन के नाम पर हिन्दुओं के कई तीर्थों को नष्ट कर दिया गया है। आज बड़ी संख्या में लोग दर्शन-सत्संग नहीं बल्कि सैर-सपाटा करने तीर्थ क्षेत्र में जाते हैं और फेसबुक या इंस्टाग्राम पर पोस्ट करते हैं। खबरों में हमने पढ़ा है कि किस तरह गंगा के पवित्र तट पर लोग बैठकर डांस या शराब पार्टी कर रहे हैं। इस आचरण से तपोभूमि की पवित्रता मलिन होती है। इसलिए सम्मेद शिखर को लेकर जैन समाज का विरोध पूरी तरह न्यायोचित है।
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