अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 फरवरी, 1970 को तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा न्यायपालिका के विरुद्ध मोर्चा खोलने के संदर्भ में संसद में वक्तव्य दिया था। प्रस्तुत हैं उसी वक्तव्य के अंश-
लोकतंत्र केवल जोड़-तोड़ के आधार पर बहुमत बनाकर जैसे-तैसे चलने वाली सरकार का नाम नहीं है। लोकतंत्र सोचने, आचरण करने, व्यवहार करने और जीवन बिताने का एक तरीका है, लोकतंत्र मर्यादाओं और परंपराओं के आधार पर चलता है।
बैंक राष्ट्रीयकरण के मामले में सर्वोच्च न्यायाल के ऐतिहासिक निर्णय के बाद देश में न्यायपालिका को जनता की दृष्टि से गिराने का जो योजनाबद्ध प्रयास हुआ, वह लोकतंत्र को मजबूत नहीं कर सकता। अन्य मामलों की तरह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर आघात करने के इस अभियान में भी नेतृत्व किया। इंदौर में उन्होंने कहा, ‘‘यह बतलाता है कि जो लोग कुछ परिवर्तन या नया करना चाहते हैं, उनके रास्ते में कितनी बाधाएं खड़ी कर दी जाती हैं।’’
संक्षेप में उनका अभिप्राय यह था कि सर्वोच्च न्यायालय प्रगति के मार्ग में रोड़ा है। प्रगति क्या है, क्या नहीं है, इसका निर्णय संसद करेगी। लेकिन प्रगति के आधार पर उठाए गए कदम संविधान के अंतर्गत हैं या नहीं, इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय करेगा। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय प्रगति के मार्ग में बाधा नहीं हो सकते। अगर हम सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे निर्णयों से बचना चाहते हैं तो कानून बनाते हुए हमें अधिक सावधानी से काम लेना चाहिए। लेकिन अपनी जल्दबाजी के लिए सर्वोच्च न्यायालय को दोष देना, न्यापालिका की प्रतिष्ठा को ऊंचा उठाने का तरीका नहीं है।
संविधान कोई जड़ वस्तु नहीं है। संविधान को बदलती हुई परिस्थिति का प्रतिबिंब होना पड़ेगा। संविधान में उसके संशोधन की व्यवस्था की गई है।
जब एक बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया, तो फिर खाडिलकर क्यों पीछे रहते? उन्होंने कहा, ‘‘ऐसे निर्णय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को नहीं बढ़ाते।’’ डान क्विक्जोट की तरह से सर्वोच्च न्यायालय को एक पनचक्की समझ कर अपनी जुबान की तलवार चलाते हुए खाडिलकर ने कहा, ‘‘ऐसे निर्णय सामान्य लोगों के द्वारा अधिकाधिक अवहेलित होंगे। क्या किसी राज्यमंत्री को इस तरह का भाषण करना चाहिए? क्या यह न्यायपालिका की अवहेलना करने का प्रयास नहीं है? जिन्हें जिम्मेदार व्यक्ति समझा जाता है, वे अगर इस तरह के गैर-जिम्मेदार भाषण देंगे, तो फिर जन साधारण को संयम में कैसे रखा जा सकता है?’’
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय तब तक कायम रहेगा, जब तक स्वयं सर्वोच्च न्यायालय उस निर्णय को किसी मामले में बदल न दे। यह विवाद व्यर्थ है कि संसद बड़ी है या सर्वोच्च न्यायालय बड़ा है? दोनों अपने-अपने क्षेत्र में बड़े हैं। हम कानून बनाने में बड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय कानून की व्याख्या करने में बड़ा है और दोनों में बड़ा है भारत का संविधान। दोनों को संविधान की सीमा में रहना है। संविधान कोई जड़ वस्तु नहीं है। संविधान को बदलती हुई परिस्थिति का प्रतिबिंब होना पड़ेगा। संविधान में उसके संशोधन की व्यवस्था की गई है। मगर कुछ ऐसी बात हैं जो दो-तिहाई बहुमत से बदली नहीं जा सकतीं।
संसद दो तिहाई बहुमत से भारत को एक मजहबी राज्य भी घोषित नहीं कर सकती। न हम दो तिहाई बहुमत से जन्म, जाति, वंश या मजहब के आधार पर भेदभाव करने वाली समाज व्यवस्था या राज्य की रचना कर सकते हैं। सब कुछ बदला जा सकता है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना नहीं बदली जा सकती। संविधान की प्रस्तावना बदलने का कोई प्रावधान नहीं है और इसलिए संविधान में दिए मूलभूत अधिकारों को कम करने या उन अधिकारों को समाप्त करने के पहले गंभीरतापूर्वक विचार करना पड़ेगा।
टिप्पणियाँ