न भूलने वाला पल
एक दिन अचानक बलूच सेना ने हिंदुओं के मकानों को घेर लिया और कहा कि यदि घर छोड़कर नहीं भागोगे तो घरों में आग लगा दी जाएगी।
पृथ्वीनाथ मल्होत्रा
चिन्योट, लाहौर, पाकिस्तान
आज भी मुझे भारत विभाजन के समय की एक-एक घटना याद है। उन दिनों लाहौर से लगभग 30 किलोमीटर दूर चिन्योट के कूचाबंदी इलाके में मेरा बहुत बड़ा मकान था। पिताजी लाहौर में साड़ी का कारोबार करते थे। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी थे। उन दिनों उनके पास कार्यवाह का दायित्व था। हम दो भाई और तीन बहनें थे। उस समय कोई सार्वजनिक सवारी नहीं होती थी। इस कारण मेरे पिताजी ने एक घोड़ा रखा हुआ था और वे उसी से कहीं आते-जाते थे।
वे हाथ में शस्त्र भी रखते थे। वे नियमित शाखा जाते थे। एक दिन उन्हें शाखा में ही कुछ स्वयंसेवकों ने बताया कि लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बनने जा रहा है। इसलिए अब यहां से हिंदुओं को निकल जाना चाहिए, लेकिन मेरे पिताजी ने पलायन करने से बिल्कुल मना कर दिया। उनका कहना था कि घर-दुकान छोड़कर कहां जाएंगे, क्या करेंगे? हम लोग अपने हक के लिए संघर्ष करेंगे। लेकिन दिनोंदिन हालात खराब होने लगे। स्थिति ऐसी हो गई कि हिंदू अपने त्योहार भी नहीं मना पाये।
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डर के मारे हम लोग नंगे पैर, खाली हाथ घरों से निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पहुंचे। लोगों को क्रम से गाड़ी में बैठाया या कहें कि जबरदस्ती ठूंसा जा रहा था। हमें भी एक गाड़ी में ठूंस दिया गया। रास्ते में पता चला कि हमसे पहले चलीं दो गाड़ियों में सवार सभी हिंदुओं को मार दिया गया है। रास्ते में हमारी गाड़ी को भी मुसलमानों ने रोक लिया, लेकिन हिंदुओं ने हिम्मत दिखाकर उनका मुकाबला किया और हम लोग जान बचाकर भारत आ गए। हमें राष्ट्रीय सेवक संघ के स्वयंसेवकों ने बचाया। अगर स्वयंसेवक समय पर नहीं पहुंचते तो शायद हम लोग भी रेलगाड़ी के अंदर ही मारे जाते।’
भारत विभाजन के बाद तो स्थिति और बिगड़ गई। उन दिनों मैं पांच साल का था। इस छोटी उम्र में ही मैंने वे बुरे दिन देखे हैं, जो किसी दुश्मन को भी देखने को न मिलें। हिंदुओं ने अपनी बहू-बेटियों को अपने ही हाथों मार डाला। ऐसा इसलिए किया गया, ताकि कोई हिंदू लड़की या महिला किसी मुसलमान के हाथ न लग जाए।
उन दिनों मुसलमान अगर किसी हिंदू लड़की को पकड़ लेते थे, तो उसके साथ वह सब किया जाता था, जिसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। हिंदू महिलाओं के स्तन तक काट दिए गए। उनके साथ सामूहिक बलात्कार होता था। फिर तड़पा-तड़पा कर उसकी जान ले लेते थे। इसलिए हिंदू अपनी बहू-बेटियों को खुद मार देते थे।
इस माहौल में वहां रहना बहुत मुश्किल था। इस कारण अगस्त, 1947 के बाद भी लाखों हिंदू जान बचाने के लिए भारत आए। मेरा परिवार भी उन्हीं दिनों भारत आया। मुझे खूब याद है कि एक दिन अचानक बलूच सेना ने हिंदुओं के मकानों को घेर लिया और कहा कि यदि घर छोड़कर नहीं भागोगे तो घरों में आग लगा दी जाएगी।
डर के मारे हम लोग नंगे पैर, खाली हाथ घरों से निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पहुंचे। लोगों को क्रम से गाड़ी में बैठाया या कहें कि जबरदस्ती ठूंसा जा रहा था। हमें भी एक गाड़ी में ठूंस दिया गया। रास्ते में पता चला कि हमसे पहले चलीं दो गाड़ियों में सवार सभी हिंदुओं को मार दिया गया है। रास्ते में हमारी गाड़ी को भी मुसलमानों ने रोक लिया, लेकिन हिंदुओं ने हिम्मत दिखाकर उनका मुकाबला किया और हम लोग जान बचाकर भारत आ गए। हमें राष्ट्रीय सेवक संघ के स्वयंसेवकों ने बचाया। अगर स्वयंसेवक समय पर नहीं पहुंचते तो शायद हम लोग भी रेलगाड़ी के अंदर ही मारे जाते।
हमारी गाड़ी होशियारपुर पहुंची। होशियारपुर में छह महीने रहे। फिर दिल्ली आ गए। इसके बाद हम लोग 16 साल आगरा रहे और फिर दिल्ली लौट आए। पढ़ाई-लिखाई के बाद मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस, आगरा में मेरी नौकरी लग गई। वहां सात साल नौकरी करने के बाद पंजाब नेशनल बैंक में प्रबंधक बना। 2002 में बैंक से सेवानिवृत्त हुआ। आज भले ही हमारा परिवार व्यवस्थित हो गया है, लेकिन विभाजन की टीस आज भी सालती है।
प्रस्तुति– अरुण कुमार सिंह एवं अश्वनी मिश्र
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