प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी गत 5 अक्तूबर को नागपुर के रेशिम बाग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी उत्सव संपन्न हुआ। इस अवसर पर सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने शस्त्र पूजन किया और उपस्थित स्वयंसेवकों और आमंत्रित अतिथियों केसमक्ष विशेष उद्बोधन दिया। इस बार कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के नाते भारत की विश्व विख्यात पर्वतारोही पद्मश्री संतोष यादव उपस्थित रहीं।
इस वर्ष के अपने विजयादशमी उद्बोधन में श्री भागवत ने अनेक महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा की। उन्होंने जहां बाबासाहेब आंबेडकर के दिए मंत्र के अनुरूप समरस समाज बनाने का आह्वान किया तो समाज की संगठित शक्ति से प्राप्त होने वाले सुफल की भी बात की। पूज्य सरसंघचालक ने भारत की हर क्षेत्र में प्रगति का उल्लेख करते हुए विश्व में शीर्ष राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंचने पर राष्ट्र और इसके नागरिकों की सामर्थ्य का गौरवगान किया। श्री भागवत ने समाज के सभी वर्गों के लिए, सबके परामर्श और जागरण से समान जनसंख्या नीति तैयार करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंने निहित स्वार्थी ताकतों द्वारा समाज में खाई पैदा करने के दुष्प्रयासों से सावधान रहते हुए एकजुटता के सूत्रों पर चलने की प्रेरणा दी।इसी तरह उन्होंने स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के दिए मंत्रों का उल्लेख किया और भारतवासियों से भारत-भक्ति की सतत साधना में लीन रहते हुए राष्ट्र के उत्थान में जुटने को कहा। यहां हम श्री भागवत के उसी संबोधन का संपादित स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं
आज हम यहां नवरात्रि की शक्ति पूजा के पश्चात् विजय के साथ उदित होने वाली आश्विन शुक्ल दशमी के दिन विजयादशमी उत्सव के अवसर पर एकत्रित हुए हैं। शक्तिस्वरूपा जगद्जननी ही शिवसंकल्पों के सफल होने का आधार हैं। सर्वत्र पवित्रता व शान्ति स्थापना के लिए भी शक्ति का आधार अनिवार्य है। संयोग से आज की मुख्य अतिथि हैं श्रीमती संतोष यादव, जो उसी शक्ति व चैतन्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्होंने गौरीशंकर पर्वत की ऊंचाई को दो बार पादाक्रांत किया है।
संघ के कार्यक्रमों में अतिथि के नाते समाज की प्रबुद्ध व कर्तृत्व संपन्न महिलाओं की उपस्थिति की परम्परा पुरानी है। व्यक्ति निर्माण की शाखा पद्धति पुरुष व महिला के लिए क्रमश: संघ तथा समिति के माध्यम से चलती है। बाकी सभी कार्यों मे महिला—पुरुष साथ में मिलकर ही कार्य संपन्न करते हैं। भारतीय परम्परा में इसी पूरकता की दृष्टि से विचार किया गया है। हमने उस दृष्टि को भुला दिया, मातृशक्ति को सीमित कर दिया। सतत आक्रमणों की परिस्थिति ने इस मिथ्याचार को तात्कालिक वैधता प्रदान की तथा उसको एक आदत के रूप में ढाल दिया। भारत के नवोत्थान के उषाकाल की पहली आहट से हमारे सभी महापुरुषों ने इस रूढ़ि को त्यागकर, मातृशक्ति को देवता स्वरूप मानकर पूजाघर में बंद करना अथवा द्वितीय श्रेणी की मानकर रसोईघर तक मर्यादित कर देने जैसी अतियों से बचते हुए उनके प्रबोधन, सशक्तिकरण तथा समाज के सभी क्रियाकलापों में, निर्णय प्रक्रिया सहित सर्वत्र बराबरी की सहभागिता पर ही जोर दिया है। तरह-तरह के अनुभवों से गुजरते हुए विश्व में प्रचलित व्यक्तिवादी तथा स्त्रीवादी दृष्टिकोण भी अब अपने विचार इस तरफ ही मोड़ रहे हैं। 2017 में विभिन्न संगठनों में काम करने वाली महिला कार्यकर्ताओं ने मिलकर भारत की महिलाओं का बहुत व्यापक व सर्वांगीण सर्वेक्षण किया। वह शासन को भी पहुंचाया गया। उस सर्वेक्षण के निष्कर्षों से भी मातृशक्ति के प्रबोधन, सशक्तिकरण तथा उनकी समान सहभागिता की आवश्यकता रेखांकित होती है। यह कार्य कुटुम्ब स्तर से प्रारम्भ होकर संगठनों तक स्वीकृत व प्रचलित होगा तभी मातृशक्ति सहित सम्पूर्ण समाज की संहति राष्ट्रीय नवोत्थान में अपनी भूमिका का सफल निर्वाह कर सकेगी।
नवोत्थान से बढ़ा वैश्विक महत्व
इस राष्ट्रीय नवोत्थान की प्रक्रिया को अब सामान्य व्यक्ति भी अनुभव कर रहा है। अपने प्रिय भारत के बल, शील तथा वैश्विक प्रतिष्ठा में वृद्धि का निरन्तर क्रम देखकर हम सभी आनन्दित हैं। शासन के द्वारा सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाली नीतियों का अनुसरण हो रहा है। विश्व के राष्ट्रों में अब भारत का महत्व तथा विश्वसनीयता बढ़ गयी है। सुरक्षा क्षेत्र में हम अधिकाधिक स्वावलंबी होते जा रहे हैं। कोरोना की विपदा से निकलकर तेजी से संभलकर हमारी अर्थव्यवस्था पूर्व स्थिति प्राप्त कर रही है। आधुनिक भारत के इस आगे बढ़ते कदमों के आर्थिक, तकनीकी तथा सांस्कृतिक बुनियादी ढांचे का वर्णन नयी दिल्ली में कर्तव्य-पथ के उद्घाटन समारोह के समय प्रधानमंत्री जी से सबने सुना ही है। शासन के द्वारा स्पष्ट रूप से घोषित यह दिशा अभिनन्दन योग्य है। परन्तु इस दिशा में हम सब मन—वचन—कर्म से एक होकर चलें, इसकी आवश्यकता है। आत्मनिर्भरता के पथ पर बढ़ने के लिए अपने राष्ट्र के आत्मस्वरूप, शासन, प्रशासन व समाज स्पष्ट तथा समान रूप से समझता हो, यह अनिवार्य है। अपने—अपने स्थान व परिस्थिति में उसके आधार पर बढ़ते हुए आवश्यकता पड़ने पर कुछ लचीलापन धारण करना पड़ता है। तब आपसी समझदारी तथा विश्वास मिलकर आगे बढ़ना बनाए रखते हैं। विचार की स्पष्टता, समान दृष्टि तथा दृढ़ता, लचीलेपन की मर्यादा का भान गलतियों व भटकाव से बचाता है। जब शासन—प्रशासन, विभिन्न नेतागण तथा समाज इस प्रकार स्वार्थ व भेदभावों से परे होकर सहचित्त हो कर्तव्यपथ पर बढ़ते हैं, तब राष्ट्र प्रगति की दिशा में अग्रसर होता है। शासन—प्रशासन तथा नेतागण अपने कर्तव्यों को करेंगे ही, समाज को भी अपने कर्तव्यों का विचारपूर्वक निर्वहन करना चाहिए।
‘रा.स्व. संघ और सनातन धर्म दोनों का भाव समान’
संघ के विजयादशमी उत्सव में मुख्य अतिथि के नाते उपस्थित पद्मश्री संतोष यादव ने अपने संबोधन में कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सनातन धर्म, दोनों का भाव समान है। संघ का कार्य ईश्वरीय कार्य है। सभी को संघ कार्य को देखने, समझने और आगे बढ़ाने की जरूरत है।
श्रीमती संतोष यादव ने आगे कहा कि, ‘प्रारब्ध पहले भयो जन्म पाछे’, ऐसा बचपन से सुनती आई हूं, और आज उसका अनुभव हो रहा है। बचपन से मेरे विचार सुनकर लोग मुझसे पूछा करते थे कि ‘क्या तुम संघ से जुड़ी हो’? तब मुझे संघ कार्य का बोध नहीं था, लेकिन मेरे क्रियाकलाप और विचारों से लोगों को लगता था कि मंै संघ—विचारों से प्रेरित हूं। इसी प्रारब्ध के चलते आज संघ के सर्वोच्च मंच पर आने का सम्मान प्राप्त हुआ है।
विश्व प्रसिद्ध पर्वतारोही श्रीमती यादव ने कहा कि पूरे विश्व को संघकार्य को देखना, समझना चाहिए। भारतीय सभ्यता हमें मिलकर रहना और जीना सिखाती है और संघ भी इसी विचार को लेकर चलता है। संघ के कार्यकर्ता और प्रचारक मातृभूमि एवं विश्व कल्याण के भाव को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। संघ सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में लीन है। संघ की राष्ट्रभावना मुझे संघ की ओर आकर्षित करती है। उत्तर में हिमालय से दक्षिण में सागर तक फैला हमारा देश सनातन भूमि है।
उन्होंने कहा कि सनातन में सृजन का भाव होता है, नष्ट करने का नहीं। वर्तमान समय में विश्व को परेशान करने वाली परिस्थितियों, बाधाओं और समस्याओं का उत्तर सनातन संस्कृति के पास है। विश्व भर में मानव कल्याण के उद्देश्य को लेकर चलना, यही तो सनातन सभ्यता और संघ का कार्य है।
समय के साथ बदलें हम
इस नवोत्थान की प्रक्रिया में अभी भी बाधाओं को पार करने का काम करना पड़ेगा। पहली बाधा है रूढ़िवाद! समय के साथ लोगों की ज्ञान—निधि बढ़ती रहती है। समय के साथ कुछ चीजें बदलती हैं, कुछ विलुप्त हो जाती हैं। कुछ नयी बातें व परिस्थितियां जन्म भी लेती हैं। इसलिए नयी रचना बनाते समय हमें परम्परा व सामयिकता का समन्वय करना पड़ता है। कालबाह्य हुई चीजों का त्याग कर नयी युगानुकूल व देशानुकूल परम्पराएं बनानी पड़ती हैं, ऐसे में हमारी पहचान, संस्कृति, जीवन दृष्टि आदि को अधोरेखित करने वाले शाश्वत मूल्यों का क्षरण न हो, उनके प्रति श्रद्धा व उनका आचरण, पूर्ववत बना रहे, यह ध्यान रखना पड़ता है।
दूसरे प्रकार की बाधाएं भारत की एकता व उन्नति को न चाहने वाली ताकतों का निर्माण करती हैं। गलत अथवा असत्य विमर्श को प्रसारित कर भ्रम फैलाने, आततायी कृत्य करने अथवा उसको प्रोत्साहन देने और समाज में आतंक, कलह व अराजकता को बढ़ाते रहने की उन ताकतों की कार्यपद्धति अनुभव में आ ही रही है। समाज के विभिन्न वर्गों में स्वार्थ व द्वेष के आधार पर दूरियां और वैमनस्यता पैदा करने का काम स्वतंत्र भारत में भी उनके द्वारा चल रहा है। उनके बहकावे में न फंसते हुए, उनकी भाषा, पंथ, प्रांत, नीति कोई भी हो, उनके प्रति निर्मोही होकर निर्भयतापूर्वक उनका निषेध व प्रतिकार करना चाहिए। शासन व प्रशासन द्वारा इन ताकतों पर नियंत्रण व इनके निर्मूलन के प्रयासों में हमको सहायक बनना चाहिए। समाज का सबल व सफल सहयोग ही देश की सुरक्षा व एकात्मता को पूर्णत: सुनिश्चित कर सकता है।
यह अनुभवसिद्ध बात है कि समाज की सशक्त भूमिका के बिना कोई अच्छा काम अथवा कोई परिवर्तन यशस्वी व स्थायी नहीं हो सकता। अच्छी व्यवस्था भी लोगों का मन बनाए बिना अथवा लोगों ने मन से स्वीकार हुए बिना नहीं चल पाती।
शिक्षा में समाज की भूमिका
विश्व में आए अथवा लाए गए सभी बड़े व स्थायी परिवर्तनों में समाज की जागृति के बाद ही व्यवस्थाओं तथा तंत्र में परिवर्तन आया है। मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीति बननी चाहिए यह अत्यंत उचित विचार है। नयी शिक्षा नीति के तहत उस ओर शासन—प्रशासन पर्याप्त ध्यान दे भी रहा है। परन्तु क्या अभिभावक अपने बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाना चाहते हैं? अथवा वे अपने बच्चों को तथाकथित आर्थिक लाभ अथवा कैरियर (जिसके लिए शिक्षा से भी अधिक आवश्यकता उद्यम, साहस व सूझबूझ की होती है) की मृग-मरीचिका के पीछे चली अंधी दौड़ में दौड़ाना चाहते हैं? शासन से मातृभाषा की प्रतिष्ठा की अपेक्षा करते समय हमें यह भी देखना होगा कि हम हमारे हस्ताक्षर मातृभाषा में करते हैं या नहीं? हमारे घर पर नाम की पट्टी मातृभाषा में लगी है कि नहीं? घर में होने वाले कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्र मातृभाषा में भेजे जाते हैं या नहीं?
सभी चाहते हैं कि नई शिक्षा नीति के कारण छात्र एक अच्छा मनुष्य बने, उसमें देशभक्ति की भावना जगे, वह सुसंस्कृत नागरिक बने। परन्तु क्या सुशिक्षित, संपन्न व प्रबुद्ध अभिभावक भी शिक्षा के इस समग्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर अपने बच्चों को विद्यालयों, महाविद्यालयों में भेजते हैं? फिर शिक्षा केवल कक्षाओं में नहीं होती। घर में संस्कारों का वातावरण रखने में अभिभावकों की; समाज में भद्रता, सामाजिक अनुशासन इत्यादि का वातावरण ठीक रखने वाले माध्यमों की, जननेताओं की तथा पर्व, त्योहार, उत्सव, मेलों आदि सामाजिक आयोजनों की भूमिका का भी उतना ही महत्व होता है। उस पक्ष पर हम कितना ध्यान देते हैं? इसके बिना केवल विद्यालयीन शिक्षा कदापि प्रभावी नहीं हो सकती है।
यह संघ का भी प्रस्ताव है कि शासन के द्वारा विविध प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां समन्वित कर स्वास्थ्य की सस्ती, उत्तम गुणवत्ता की, सर्वत्र सुलभ तथा व्यापारिक मानसिकता से मुक्त व्यवस्था देने वाला स्वास्थ्य तंत्र खड़ा हो। शासन की प्रेरणा व समर्थन से भी व्यक्तिगत व सामाजिक स्वच्छता, योग तथा व्यायाम के उपक्रम चलते हैं। समाज में भी ऐसा आग्रह रखने वाले, इन बातों का महत्व बताने वाले बहुत हैं। लेकिन इन सबकी उपेक्षा कर समाज अपने पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे तो कौन सी व्यवस्था सबके स्वास्थ्य को ठीक रख सकेगी?
सामाजिक समता से आएगा स्थायी परिवर्तन
संविधान के कारण राजनीतिक तथा आर्थिक समता का पथ प्रशस्त हो गया, परन्तु पूज्य बाबा साहेब आंबेडकर जी ने चेतावनी दी थी कि सामाजिक समता को लाए बिना वास्तविक व टिकाऊ परिवर्तन नही आएगा। बाद में कथित रूप से इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर कई नियम आदि बने। परन्तु विषमता का मूल तो मन तथा आचरण की आदत में है। जब तक व्यक्तिगत तथा कौटुंबिक स्तर पर आपस में मित्रता, सहज अनौपचारिक आने—जाने, उठने—बैठने के संबंध नहीं बनते तथा सामाजिक स्तर पर मंदिर, पानी, श्मशान सर्व हिन्दू समाज के लिए नहीं खुलते, तब तक समता की बात केवल स्वप्न की बात रह जाएगी।
हमारी अपेक्षा है कि तंत्र के द्वारा जो परिवर्तन लाया जाए, वे बातें हमारे आचरण में भी हों तो परिवर्तन की प्रक्रिया को गति व बल मिलता है, वह स्थायी हो जाता है। ऐसा न होने से परिवर्तन प्रक्रिया अवरुद्ध हो सकती है और परिवर्तन स्थायित्व की ओर नहीं बढ़ता। परिवर्तन के लिए समाज की विशिष्ट मानसिकता बनना अनिवार्य है। अपनी विचार परम्परा पर आधारित उपभोगवाद व शोषण—रहित विकास को साधने के लिए समाज तथा स्वयं के जीवन से भोगवृत्ति व शोषक प्रवृत्ति को जड़—मूल से मिटाना पड़ेगा।
समाज का बल संगठित हो
यह अपेक्षा स्वाभाविक ही कही जाएगी कि भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में आर्थिक तथा विकास नीति रोजगार-उन्मुख हो। परन्तु रोजगार यानी केवल नौकरी नहीं, इतनी समझदारी समाज में भी लानी होगी। कोई काम प्रतिष्ठा में छोटा या हल्का नहीं है। परिश्रम, पूंजी तथा बौद्धिक श्रम, सभी का महत्व समान है। हम सबमें यह मान्यता व तद्नुरूप आचरण होना आवश्यक है। उद्यमिता की ओर जाने वाली प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना होगा। सरकार से अपेक्षा रहती ही है कि प्रत्येक जिले में रोजगार प्रशिक्षण की विकेन्द्रित योजना बने तथा अपने जिले में ही रोजगार प्राप्त हो सकें, गांवों में विकास के कार्यक्रमों से शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात आदि सुविधाएं सुलभ हों। परन्तु कोरोना आपदा के समय कार्यरत रहे कार्यकर्ताओं ने यह भी अनुभव किया है कि समाज का संगठित बल भी बहुत कुछ कर सकता है। आर्थिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों, लघु उद्यमियों, कुछ सम्पन्न सज्जनों, कला—कौशल के जानकारों, प्रशिक्षकों तथा स्थानीय स्वयंसेवकों ने लगभग 275 जिलों में स्वदेशी जागरण मंच के साथ मिलकर यह प्रयोग प्रारम्भ किया है। जानकारी मिल रही है कि वे इस प्रारम्भिक अवस्था में ही रोजगार सृजन में उल्लेखनीय योगदान देने में सफल हुए हैं।
आवश्यक है समान जनसंख्या नीति
राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समाज के सहभाग का यह विचार व आग्रह शासन को उसके दायित्व से मुक्त करने के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र के उत्थान में समाज के सहभाग को साथ लेने की आवश्यकता तथा उसके लिए अनुकूल नीति निर्धारण की ओर इंगित करता है। यह सच है कि अपने देश की जनसंख्या विशाल है। जनसंख्या का विचार आजकल दोनों प्रकार से होता है। इस जनसंख्या के लिए उतनी मात्रा में साधन आवश्यक होंगे, वह बढ़ती चली जाए तो उससे भारी बोझ या कहें असहनीय बोझ पैदा होगा। इसलिए उसे नियंत्रित रखने के पहलू को ध्यान में रखकर योजना बनाई जाती है। विचार का दूसरा प्रकार भी सामने आता है, उसमें जनसंख्या को एक निधि भी माना जाता है। उसके उचित प्रशिक्षण व अधिकतम उपयोग की बात सोची जाती है। पूरे विश्व की जनसंख्या को देखते हैं तो एक बात ध्यान में आती है। चीन ने अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने की नीति बदलकर अब उसकी वृद्धि के लिए प्रोत्साहन देना प्रारंभ किया है। अपने देश का हित भी जनसंख्या के विचार को प्रभावित करता है। आज हम सबसे युवा देश हैं। आगे 50 वर्ष के पश्चात आज के तरुण प्रौढ़ बनेंगे, तब उनको संभालने के लिए कितने तरुण आवश्यक होंगे, यह गणित हमें भी करना होगा। देश का जन अपने पुरुषार्थ से देश को वैभवशाली बनाता है, साथ ही स्वयं का व समाज का जीवन निर्वाह भी सुरक्षित करता है। यह विषय जनता के योगक्षेम की राष्ट्रीय पहचान व सुरक्षा के अतिरिक्त और भी कुछ पहलुओं से जुड़ा है। संतान की संख्या का विषय माताओं के स्वास्थ्य, आर्थिक क्षमता, शिक्षा, इच्छा से जुड़ा है। यह प्रत्येक परिवार की आवश्यकता से भी जुड़ा है। जनसंख्या पर्यावरण को भी प्रभावित करती है।
कहने का अर्थ है कि जनसंख्या नीति इन सभी बातों का समग्र व एकात्म विचार करके बने, सभी पर समान रूप से लागू हो, लोक—प्रबोधन द्वारा इसके पूर्ण पालन की मानसिकता बनाई जाए। तभी जनसंख्या नियंत्रण के नियम परिणाम ला सकेंगे।
साल 2000 में भारत सरकार ने समग्रता से विचार करके एक जनसंख्या नीति निर्धारित की थी। उसमें एक महत्वपूर्ण लक्ष्य था 2.1 की प्रजनन दर को प्राप्त करना। अभी 2022 में हर पांच वर्ष में प्रकाशित होने वाली राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की रिपोर्ट आई है। जहां समाज की जागरूकता और सकारात्मक सहभागिता तथा केंद्र एवं राज्य सरकारों के सतत समन्वित प्रयासों के परिणामस्वरूप प्रजनन दर 2.1 से भी कम लगभग 2.0 पर आ गई है। जहां जनसंख्या नियंत्रण के प्रति जागरूकता और उस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में हम निरंतर अग्रसर हैं, वहीं और दो प्रश्न विचार के लिए खड़े हो रहे हैं। समाज विज्ञानी और मनोवैज्ञानिकों के मत के अनुसार, परिवारों के बहुत छोटे होने के कारण बालक-बालिकाओं के स्वस्थ समग्र विकास, परिवारों में असुरक्षा का भाव, सामाजिक तनाव, एकाकी जीवन आदि अनेक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। इससे हमारे समाज की संपूर्ण व्यवस्था के केंद्र ‘परिवार व्यवस्था’ पर भी एक प्रश्नचिन्ह लग गया है।
संस्कारित करना शिक्षा का दायित्व
साक्षरता के साथ-साथ लोगों को सुसंस्कारित करना भी शिक्षा में अंतर्भावित है। व्यक्ति साक्षर तो हुआ किंतु सुसंस्कारित नहीं हुआ तो ऐसा व्यक्ति एक तरह से राक्षस ही होता है। साक्षरता के साथ-साथ व्यवहार सिखाना और संस्कारित करना भी शिक्षा का दायित्व है। आज हम अनुभव करते हैं कि शिक्षा क्षेत्र में लोगों को सुसंस्कारित करने की दृष्टि से जितना प्रयास होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता। छात्रों को सुसंस्कारित करने का कामकेवल स्कूलों या कॉलेजों में ही नहीं, इसकी शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। घर का वायुमंडल कैसा है, उसके माता-पिता उसे किस प्रकार की शिक्षा देते हैं, यह भी उतने ही महत्व का है। छात्रों के व्यवहार का दायित्व शिक्षकों के साथ ही उनके माता-पिता और पालकों पर भी है। सभी को अपना दायित्व ठीक तरह से समझना और निभाना होगा।
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(पाञ्चजन्य में प्रकाशित श्री बालासाहेब देवरस जी के आलेख के अंश)
जनसांख्यिक असंतुलन अनुचित
इसके साथ ही, एक और महत्वपूर्ण प्रश्न जनसांख्यिक असंतुलन का भी है। 75 वर्ष पूर्व हमने अपने देश में इसका अनुभव किया ही है। इक्कीसवीं सदी में तीन नए स्वतंत्र देश अस्तित्व में आए—पूर्व तिमोर, दक्षिणी सूडान और कोसोवो। ये क्रमश: इंडोनेशिया, सूडान और सर्बिया के एक भूभाग में जनसंख्या का संतुलन बिगड़ने का ही परिणाम है। जब—जब किसी देश में जनसांख्यिक असंतुलन होता है तब-तब उस देश की भौगोलिक सीमाओं में भी परिवर्तन आता है। जन्म दर में असमानता के साथ—साथ लोभ, लालच, जबरन कन्वर्जन व देश में होने वाली घुसपैठ भी इसके बड़े कारण हैं। इन सबका विचार करना पड़ेगा। जनसंख्या नियंत्रण के साथ साथ पांथिक आधार पर जनसंख्या संतुलन भी महत्व का विषय है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
भीतर जगाएं ‘स्व’ का बोध
सब जानते हैं, प्रजातंत्र में प्रजा के मनोयोग से सहयोग का महत्व होता है। उसी से नियम बनना, स्वीकार होना तथा अपेक्षित परिणाम तक पहुंचना संभव होता है। जिन नियमों से त्वरित लाभ होते हैं अथवा कालांतर में कोई लाभ अथवा स्वार्थसिद्धि दिखाई देती है, उन्हें समझाना नहीं पड़ता। परन्तु जब देशहित या दुर्बलों के हित में अपने स्वार्थ को छोड़ना पड़े, वहां इस त्याग के लिए जनता सदैव तैयार रहे, इसके लिए समाज में ‘स्व’ का बोध व गौरव जगाए रखने की आवश्यकता होती है।
यह ‘स्व’ हम सबको जोड़ता है। क्योंकि यह हमारे पूर्वजों द्वारा प्राप्त किए सत्य की प्रत्यक्षानुभूति का सीधा परिणाम है। ‘सर्व यद्भूतं यच्च भव्यं’ उसी एक शाश्वत अव्यय मूल की अभिव्यक्ति मात्र है, इसीलिए अपनी विशिष्टता पर श्रद्धापूर्वक दृढ़ रहते हुए सभी की विविधता, विशिष्टता का सम्मान व स्वीकार करना चाहिए, यह भारत ही है जो सबको यह मंत्र देता है। सब एक हैं इसलिए सबको मिलकर चलना चाहिए, मान्यताओं की विविधता हमको अलग नहीं करती। सत्य, करुणा, अंतर्बाह्य शुचिता तथा तपस, ये चार सिद्धांत सभी मान्यताओं को साथ लेकर चलते हैं। सभी विविधताओं को सुरक्षित व विकासमान रखते हुए जोड़ते हैं। इसी को हमारे यहां धर्म कहा गया। इन्हीं चार तत्वों के आधार पर सम्पूर्ण विश्व के जीवन को समन्वय, संवाद, सौहार्द तथा शान्तिपूर्वक चला सकने वाले संस्कार देने वाली संस्कृति हम सबको जोड़ती है, विश्व को कुटुम्ब के नाते जोड़ने की प्रेरणा देती है। ‘जीवने यावदादानं स्यात्प्रदानं ततोऽधिकम्’ की भावना हमें उसी से मिलती है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की यह भावना तथा ‘विश्वं भवत्येकं नीडम्’ का विशाल लक्ष्य हमें पुरुषार्थ की प्रेरणा देता है।
हमारे राष्ट्रीय जीवन का यह सनातन प्रवाह प्राचीन समय से इसी उद्देश्य से इसी रीति से चलता आया है। समय व परिस्थिति के अनुसार रूप, पथ तथा शैली बदलती गयी परन्तु मूल विचार, गन्तव्य तथा उद्देश्य सदा वही रहे हैं। इस पथ पर यह निरन्तर गति हमें अगणित वीरों के शौर्य और समर्पण, असंख्य कर्मयोगियों के भीम—परिश्रम तथा ज्ञानियों की दुर्धर तपस्या से प्राप्त हुई है। उनको हम सब अपने जीवन में अनुकरणीय आदर्शों का स्थान देते हैं। वे हम सबके गौरव निधान हैं। वे हमारे समान पूर्वज हमारे जुड़ने का एक और आधार हैं।
विविधताओं को स्वीकारते हुए साथ चलें
उन सभी ने हमारी पवित्र मातृभूमि भारतवर्ष का ही गुणगान किया है। प्राचीनकाल से सभी प्रकार की विविधता को ससम्मान स्वीकार कर साथ चलाने का हमारा स्वभाव बना; भौतिक सुख की परमावधि पर ही न रुकते हुए अपने अन्तरतम की गहराइयों को खंगालकर हमने अस्तित्व के सत्य को प्राप्त किया; विश्व को अपना ही परिवार मानकर सर्वत्र ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति व भद्रता का प्रसार किया इसका कारण यह हमारी मातृभूमि भारत ही है। प्राचीनकाल में सुजल, सुफल, मलयजशीतल भारतजननी ने प्राकृतिक रीति से सर्वथा सुरक्षित अपनी चतु:सीमा में जो सुरक्षा व निश्चिंतता दी, यह उसी का फल है। उस अखण्ड मातृभूमि की अनन्य भक्ति हमारी राष्ट्रीयता का मुख्य आधार है।
जनसंख्या असंतुलन से बचने की नीति जरूरी
यदि 1881 से 1941 तक की जनगणना के आंकड़े देखें तो ज्ञात होता है कि हिंदुओं की जनसंख्या बिना किसी अपवाद के निरंतर घटती रही और इलके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या सदैव बढ़ती रही। अर्थात इन 60 वर्षों में विश्व के एकमात्र हिंदू बहुसंख्यक देश भारत में हिंदुओं की जनसंख्या लगभग 6 प्रतिशत घट गई। हिंदू-मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का यह असंतुलन अनोखा था। इस असंतुलन का परिणाम था 1947 में भारत का विभाजन जब देश के 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। स्वतंत्र भारत में भी जनसंख्या असंतुलन की यह प्रवृत्ति जारी रही।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए पहले 1952 में और फिर 2001 में नीति/उपायों को लागू किया गया। परंतु योजनानुसार यह नीति सभी वर्गों पर समान रूप से लागू ही नहीं हुई। इसके अलावा सीमा क्षेत्रों में घुसपैठ एवं मतांतरण के कारण भी असंतुलन को बढ़ावा मिला है। इससे जनसंख्या असंतुलन बढ़ रहा है जो देश के भविष्य के लिए भयानक हो सकता है। अत: आवश्यक है कि देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण हो। बिना किसी मत, पंथ, संप्रदाय या धर्म का विचार किए यह सब पर सामूहिक रूप से लागू हो।
जनसंख्या नीति में यह देखना होगा कि जनसंख्या मात्र समस्या उत्पन्न करने वाली ही नहीं है बल्कि मानव संसाधन के रूप में उसकी आवश्यकता भी है। एक रिपोर्ट के अनुसार युवा कहे जाने वाले भारत में वर्ष 2040 तक युवाओं की जनसंख्या कम और बुजुर्गों की जनसंख्या अधिक हो जाएगा। कार्यशील मानव संसाधन कम होने से नई समस्याएं उत्पन्न होंगी जैसी कि चीन में हो रही हैं। इसलिए सतत विकास के लिए सतत मानव संसाधन बनाए रखने की दृष्टि भी जनसंख्या नीति में होनी चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रपट के अनुसार 2010 से 2019 के बीच भारत की जनसंख्या 1.2 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर से बढ़कर 1.36 अरब हो गई है जो चीन की वार्षिक वृद्धि दर के मुकाबले दोगुनी से ज्यादा है। विश्व की जनसंख्या 2019 में 7 अरब 80 करोड़ हो गई है। इस हिसाब से देखें तो हर 16वां व्यक्ति भारतीय है। भारत इतनी बड़ी आबादी का बोझ कब तक उठाएगा?
(पाञ्चजन्य में प्रकाशित सतीशचंद्र मित्तल एवं अन्य लेखकों के आलेखों से)
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प्राचीन समय से भूगोल, भाषा, पंथ, रहन—सहन, सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं की विविधताओं के बावजूद समाज, संस्कृति, राष्ट्र के नाते हमारा एक जीवन प्रवाह अक्षुण्ण चलता रहा है। इसमें सभी विविधताओं का स्वीकार है, सम्मान है, सुरक्षा है, विकास है। किसी को अपनी संकुचितता, कट्टरता, आक्रामकता व अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ता। सत्य, करुणा, अंतर्बाह्य शुचिता और इन तीनों की साधना के अतिरिक्त कुछ भी अनिवार्य नहीं। भारत—भक्ति, हमारे समान पूर्वजों के उज्ज्वल आदर्श व भारत की सनातन संस्कृति के इन तीन दीपस्तंभों के द्वारा प्रकाशित व प्रशस्त पथ पर मिलकर प्रेमपूर्वक चलना ही अपना ‘स्व’, अपना राष्ट्रधर्म है ।
प्रांरभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समाज को आवाहन का यही आशय रहा है। आज यह अनुभव आता है कि उस पुकार को सुनने—समझने को अब सभी जन तैयार हैं। अज्ञान, असत्य, द्वेष, भय अथवा स्वार्थ के कारण संघ के विरुद्ध जो दुष्प्रचार चलता है, उसका प्रभाव कम हो रहा है। कारण, संघ की व्याप्ति व समाज संपर्क में यानी संघ की शक्ति में लक्षणीय वृद्धि हई है। दुनिया में सुना जाने के लिए सत्य को भी शक्तिशाली होना पड़ता है, यह जीवन का विचित्र सत्य है। दुनिया में दुष्ट शक्तियां भी हैं, उनसे बचने व अन्यों को बचाने के लिए भी सज्जनों की संगठित शक्ति चाहिए। संघ उपरोक्त राष्ट्र विचार का प्रचार-प्रसार करते हुए सम्पूर्ण समाज को संगठित शक्ति के रूप में खड़ा करने का काम कर रहा है। यही हिंदू समाज के संगठन का काम है, क्योंकि उपरोक्त राष्ट्र—विचार को हिंदू राष्ट्र का विचार कहते हैं और वह है भी। इसलिए संघ उपरोक्त राष्ट्र—विचार को मानने वाले सभी जन का यानी हिंदू समाज का संगठन, हिंदू धर्म, संस्कृति व समाज का संरक्षण कर हिंदू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए, ‘सर्वेषां अविरोधेन’ करता है।
अब जब संघ को समाज में कुछ स्नेह तथा विश्वास का लाभ हुआ है और उसकी शक्ति भी है तो हिन्दू राष्ट्र की बात को लोग गम्भीरतापूर्वक सुनते हैं। इस आशय को मन में रखते हुए, परन्तु हिन्दू शब्द का विरोध करते हुए अन्य शब्दों का उपयोग करने वाले लोग हैं। हमारा उनसे कोई विरोध नहीं। आशय की स्पष्टता के लिए हम अपने लिए हिंदू शब्द का आग्रह रखते रहेंगे।
तथाकथित अल्पसंख्यकों में बिना वजह एक भय का हौवा खड़ा किया जाता है कि ‘हमसे अथवा संगठित हिन्दू से खतरा’ है। ऐसा न कभी हुआ है, न होगा । न यह हिंदू का, न ही संघ का स्वभाव या इतिहास रहा है। अन्याय, अत्याचार, द्वेष का सहारा लेकर गुंडागर्दी करने वाले समाज को चोट पहुंचाते हैं तो आत्मरक्षा अथवा आप्तरक्षा तो सभी का कर्तव्य बन जाता है। ‘ना भय देत काहू को ना भय जानत आप’, ऐसा हिन्दू समाज खड़ा हो यह समय की आवश्यकता है। यह किसी के विरुद्ध नहीं है। संघ पूरी दृढ़ता के साथ आपसी भाईचारे, भद्रता व शांति के पक्ष में खड़ा है। ऐसी चिन्ताएं मन में पाले तथाकथित अल्पसंख्यकों में से कुछ सज्जन गत वर्षों में मिलने के लिए आते रहे हैं। उनसे संघ के कुछ अधिकारियों का संपर्क—संवाद हुआ है, होता रहेगा। भारतवर्ष प्राचीन राष्ट्र है, एक राष्ट्र है। उसकी उस पहचान व परंपरा की धारा के साथ तन्मयतापूर्वक अपनी-अपनी विशिष्टता को रखते हुए हम सभी मिलकर प्रेम, सम्मान व शांति के साथ राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा करते चलें। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में परस्पर साथी बनें, भारत को जानें, भारत को मानें, भारत के बनें, संघ ऐसे ही एकात्म—समरस राष्ट्र की कल्पना करता है। इसमें संघ का और कोई उद्देश्य या स्वार्थ नहीं है।
फिर न हो उदयपुर जैसी घटना
अभी पिछले दिनों उदयपुर में एक अत्यंत ही जघन्य एवं दिल दहला देने वाली घटना घटी। सारा समाज स्तब्ध रह गया। अधिकांश समाज दु:खी एवं आक्रोशित था। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, यह सुनिश्चित करना होगा। ऐसी घटनाओं के मूल में पूरा समाज नहीं होता। उदयपुर की घटना के बाद मुस्लिम समाज में से भी कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने अपना विरोध प्रगट किया था। यह विरोध अपवाद बन कर ना रह जाए, अपितु अधिकांश मुस्लिम समाज का यह स्वभाव बनना चाहिए। हिन्दू समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसी घटना घटने पर हिंदू पर आरोप लगे तो भी मुखरता से विरोध और निषेध प्रगट करता है। कोई भी और कैसा भी उकसावा हो, कानून एवं संविधान की मर्यादा में रहकर ही सबको अपना विरोध प्रगट करना चाहिए। समाज जुड़े-टूटे नहीं, झगड़े नहीं, बिखरे नहीं। मन-वचन-कर्म से यही प्रतिभाव मन में रखकर समाज के सभी सज्जनों को मुखर होना चाहिए। ‘हम दिखते भिन्न और विशिष्ट हैं इसलिए हम अलग हैं, हमें अलगाव चाहिए, इस देश के साथ, इस की मूल मुख्य जीवनधारा व पहचान के साथ हम नहीं चल सकते’, इस असत्य के कारण ‘भाई टूटे धरती खोयी मिटे धर्म—संस्थान’ विभाजन का जहरीला अनुभव लेकर भी कोई सुखी तो नहीं हुआ। हम भारत के हैं, भारतीय पूर्वजों के हैं, भारत की सनातन संस्कृति के हैं, समाज व राष्ट्रीयता के नाते एक हैं, यही हमारा तारक मंत्र है।
समरसता से आती है समानता
हिंदू समानता की कल्पना सर्वांगीण समरसता की कल्पना है। उसकी मूलभूत श्रद्धा यह है कि सभी में एक ही आत्मा है, सभी में भगवान का अंश है, इसलिए कोई ऊंच-नीच नहीं है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक अर्थात जीवन के सभी अंगोपांग में हम समानता की कल्पना करते हैं। हिंदुत्व की दृष्टि में एक यह भी विशेष बात है कि समानता समरसता से उत्पन्न होती है।
घर-परिवार में सभी का एक-दूसरे के प्रति समान व्यवहार होता है और विभिन्न प्रकार की भूमिका भी निभाते हैं क्योंकि उनमें समरसता होती है, परस्पर प्रेम होता है। इसलिए हिंदुत्व और संघ की दृष्टि से पहले हम समरसता पर जोर देते हैं। समरसता के साथ-साथ स्वयं ही समानता भी आती है। यही हिंदुत्व और संघ की विशेषता है। आपसी समझ, बराबरी, आत्मीयता का भाव ही समाज में समता और समरसता स्थापित करने का मार्ग है। भेदभाव मानसिक परायेपन की तार्किक परिणति है। इसलिए अपनत्व भाव का निर्माण होना अधिक जरूरी है। अपनत्व भाव का निर्माण होगा एकात्मता के विचारों से। इस एकात्मता का स्वभाविक परिणाम समरसता है।
(पाञ्चजन्य में प्रकाशित हो.वि. शेषाद्रि
और सुंदर सिंह भंडारी के आलेखों से)
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स्वाधीनता का अमृत महोत्सव
स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। हमारे राष्ट्रीय नवोत्थान के प्रारंभिक काल में स्वामी विवेकानंद ने भारत माता को ही आराध्य मानकर कर्मरत रहने का आवाहन किया था। 15 अगस्त, 1947 को पहले स्वतंत्रता दिवस तथा स्वयं के वर्धापन दिवस पर महर्षि अरविन्द ने भारतवासियों को जो संदेश दिया था उसमें उनके पांच सपनों का उल्लेख है। पहला था, भारत की स्वतंत्रता व एकात्मता। संवैधानिक रीति से राज्यों का विलय होने पर भारत के एक संघ बनने पर वे प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। किन्तु उन्हें चिंता थी कि विभाजन के कारण हिन्दू व मुसलमानों के बीच एकता की बजाय एक शाश्वत राजनीतिक खाई पैदा हुई, जो भारत की एकात्मता, उन्नति व शांति के मार्ग में बाधक बन सकती है। जिस किसी प्रकार से जाए, विभाजन निरस्त होकर भारत अखंड बने, यह उनकी उत्कट इच्छा थी। क्योंकि वे जानते थे, उनके अगले सभी स्वप्नों को-एशिया के देशों की मुक्ति, विश्व की एकता, भारत की आध्यात्मिकता का वैश्विक अभिमंत्रण तथा अतिमानस का जगत में अवतरण-साकार करने में भारत की ही प्रधानता होगी। इसलिए कर्तव्य का उनका दिया संदेश बहुत स्पष्ट है-
‘राष्ट्र के इतिहास में ऐसा समय आता है जब नियति उसके सामने ऐसा एक कार्य, एक लक्ष्य रख देती है, जिस पर अन्य सभी कुछ, चाहे वह कितना भी उन्नत या उदात्त क्यों न हो, न्योछावर करना ही पड़ता है। हमारी मातृभूमि के लिए अब वह समय आया है जब उसकी सेवा के अतिरिक्त और कुछ भी प्रिय नहीं, जब अन्य सभी कुछ उसी के लिए प्रयुक्त करना है। यदि आप पढ़ो तो उसी के लिए पढ़ो; शरीर, मन व आत्मा को उसकी सेवा के लिए ही प्रशिक्षित करो। अपनी जीविका इसलिए प्राप्त करो कि उसके लिए जीना है। सागर पार विदेशों में इसलिए जाओगे कि वहां से ज्ञान लेकर उससे उसकी सेवा कर सको। उसके वैभव के लिए काम करो। वह आनंद में रहे, इसलिए दु:ख झेलो। इस एक परामर्श में सब कुछ आ गया।’ भारत के लोगों के लिए आज भी यही एक सार्थक संदेश है।
गांव गांव में सज्जन शक्ति। रोम रोम में भारत भक्ति।
यही विजय का महामंत्र है। दसों दिशा से करें प्रयाण।।
जय जय मेरे देश महान।।
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