देवभूमि उत्तराखण्ड जितनी अपने तीर्थस्थलों के कारण दुनियाभर में प्रसिद्ध है उतनी ही अपनी लोकसंस्कृति के कारण। पर्वतीय समाज की जन संस्कृति का अनूठापन है इसमें निहित पर्यावरणीय चेतना। नदी, पहाड़, पत्थर, मिट्टी व हरियाली को सहेजने का संदेश देने वाला ऐसा ही एक प्रमुख लोकपर्व है “हरेला”। इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक समाज में जहां अनेक लोकपर्व व क्षेत्रीय संस्कृतियां दम तोड़ती जा रही हैं, वहीं पुरातन जीवन मूल्यों में यकीन रहने वाले उत्तराखण्ड के निवासी आज भी हरियाली रोपने के इस ऋतुपर्व के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के प्रति जन चेतना की अलख जगा रहे हैं।
“जी रये, जागि रये, तिष्ठिये, पनपिये, दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, यो दिन और यो मास भेटनैं रये, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।।” अर्थात तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार आता-जाता रहे, वंश-परिवार दूब की तरह पनपता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले, हिमालय में हिम रहने और गंगा जमुना में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो…। इस मंगल कामना में जहां एक ओर “जीवेद् शरद शतम्” का पावन भाव निहित है वहीं प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की सीख।
उत्तराखण्ड के इस लोकपर्व की विशिष्टता यह है कि यह साल में तीन बार मनाया जाता है- चैत्र व आश्विन नवरात्रों में तथा श्रावण माह में। चैत्र नवरात्र में इसे प्रथम दिन बोया जाता है तथा रामनवमी को काटा जाता है। आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और विजयादशमी के दिन काटा जाता है तथा श्रावण मास में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में इसे बोया जाता है और श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। जहां चैत्र व आश्विन नवरात्रों के हरेले सामान्य तौर पर व्रतियों द्वारा रोपे जाते हैं; वहीं सावन के हरेला पर्व पर समूचे पर्वतीय अंचल में एक अलग ही रौनक दिखायी देती है।
श्रावणी हरेले का यह लोकपर्व देवाधिदेव शिव की अभ्यर्थना से भी जुड़ा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सावन भगवान शिव का प्रिय महीना है। इस महीने में वे अपनी ससुराल यानी देवभूमि आते हैं और देवभूमि के निवासी प्रकृति के महानतम देवता का स्वागत हरियाली रोप कर करते हैं। इस मौके पर शुद्ध मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से से शिव-पार्वती व शिव-परिवार की प्रतिमाएं गढ़ी जाती हैं। स्थानीय भाषा में मिट्टी की इन देव प्रतिमाओं को “डिकारे” कहते हैं। श्रावण मास की प्रथम तिथि को काटे गये हरेले सर्वप्रथम इन देव प्रतिमाओं को अर्पित कर तथा “भूड़ी” (उरद की दाल की पकौड़ियां) व “स्वाल” (गुड़ व आटे के गुलगुले) आदि पहाड़ी व्यंजनों का भोग प्रसाद अर्पित कर विधिपूर्वक पूजन किया जाता है। तत्पश्चात इन हरेलों से घर प्रत्येक सदस्य को आशीर्वाद दिया जाता है।
पर्वतीय जनजीवन में हरेले के इस उत्सव का महत्व इस बात से सहज ही समझा जा सकता है कि अगर परिवार का कोई सदस्य त्योहार के दिन घर की में मौजूद न हो तो उसके लिए बकायदा हरेला अलग सुरक्षित रखा जाता है और जब भी वह घर पहुंचता है तो बड़े-बजुर्ग उसे हरेले से पूजते हैं तथा इसे अपने घर के दूरदराज के सदस्यों को डाक द्वारा भी पहुंचाते हैं। परिवार व समाज में सामूहिकता और एक दूसरे की भागीदारी से मनाया जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है। जब तक किसी परिवार का विभाजन नहीं होता है, वहां एक ही जगह हरेला बोया जाता है, चाहे परिवार के सदस्य अलग-अलग जगहों पर रहते हों, परिवार के विभाजन के बाद ही सदस्य अलग हरेला बोते और काटते हैं। कहीं कहीं पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मन्दिर में भी बोया जाता है। पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे परन्तु आज वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊं के बालेश्वर व सुई-बिसुंग में ही हरेला मेलों के आयोजन होते हैं। इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की भी परम्परा है।
यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है। यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्त्व को भी दर्शाता है।
हरेला रोपने की रोचक प्रक्रिया
परम्परानुसार पर्व से दस दिन पूर्व घर के देवस्थान या ग्राम के मन्दिर में सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल (बांस) की टोकरी या पत्तों के दोने में एक विशेष प्रक्रिया से रोपित किया जाता है। पहले टोकरी में मिट्टी की एक परत बिछाई जाती है, फिर बीज डाले जाते हैं। उसके ऊपर फिर से मिट्टी और बीज डाले जाते हैं। यह प्रक्रिया पांच-छह बार अपनाई जाती है। फिर इन टोकरियों को देवस्थान में रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है। नवें दिन एक स्थानीय वृक्ष की टहनी से इनकी गुड़ाई की जाती है और दसवें दिन इसे काटा जाता है। हरेले को काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित करता है। इसे “हरेला पतीसना” कहते हैं। इसके बाद इन हरेलों को देवताओं को अर्पित किया जाता
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