टेरी की शोधकर्ता साक्षी सारस्वत ने कहा कि चक्रीय अर्थव्यवस्था अपनाना समय की मांग है। जिस तरह प्रकृति में एक स्तर का उत्पाद दूसरे स्तर पर कच्चा माल बना जाता है, उसी तरह चक्रीय अर्थव्यवस्था में कोई वस्तु बेकार नहीं होती बल्कि ऊर्जा और तकनीक के उपयोग से वह दूसरे स्तर पर उपयोगी हो जाती है। पुनर्चक्रण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ऊर्जा का इस्तेमाल होता है। यह प्रक्रिया न केवल पृथ्वी को उत्सर्जन के नुकसान से बचाती है, बल्कि उत्पादन में होने वाले खर्चे में भी किफायती साबित होती है।
पाञ्चजन्य व आर्गनाइजर द्वारा आयोजित ‘पर्यावरण संवाद’ में टेरी की शोधकर्ता साक्षी सारस्वत ने ‘चक्रीय अर्थशास्त्र’ की रचना के मूल में छिपे विचार की बात की। साथ ही, मौजूदा दौर में चक्रीय अर्थशास्त्र की ओर बढ़ने की बढ़ती आवश्यकता व इस दिशा में भारत के प्रयासों पर अपना पक्ष रखा।
साक्षी ने कहा कि कई दशकों से यह विश्व एक रैखिक अर्थव्यवस्था अर्थात ‘लीनियर’ अर्थव्यवस्था पर चल रहा है। यह ऐसा मॉडल है जो ‘टेक-मेक-डिस्पोज’ की विचारधारा पर आधारित है। इसका अर्थ है-पृथ्वी से प्राकृतिक संसाधन लेना, आवश्यकता अनुसार तरह-तरह के उत्पादों का उत्पादन करना, उनका थोड़ा इस्तेमाल करना और शेष को फेंक देना।
इससे दो चीजें होती हैं। पहला, धरती से प्राप्त संसाधनों की पुन: पूर्ति नहीं हो पाती। दूसरा, गैर जिम्मेदार ढंग से फेंका गया कूड़ा, प्रकृति को न केवल दूषित करता है, बल्कि अनेक समस्याएं उत्पन्न करता है। युनेप की एक रिपोर्ट की मानें तो 90 प्रतिशत से ज्यादा जैव विविधता, जल का क्षरण और आधे से ज्यादा ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन प्राकृतिक संसाधनों को धरती से निकालने और उसकी पुन: पूर्ति न होने के कारण हो रहा है। यह उत्सर्जन पिछले वर्षों में घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। चूंकि पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सीमित हैं और मनुष्यों के कारण इन तत्वों की आपूर्ति भी कठिन हो गई है। लीनियर अर्थव्यवस्था के कारण उत्पन्न इन समस्याओं का निवारण पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। इस समाधान का नाम है ‘चक्रीय अर्थव्यवस्था’। यह व्यवस्था उन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है, जिन पर प्रकृति की व्यवस्थाएं आधारित हैं। जैसे- पृथ्वी पर चल रहे किसी भी चक्र (जैसे जल चक्र आदि) में एक स्तर पर बना पदार्थ किसी दूसरे चक्र या स्तर के लिए उपयोगी होता है, उसी प्रकार चक्रीय अर्थव्यवस्था में कोई भी अवशेष पदार्थ ‘बेकार’ नहीं होता। उसका उपयोग किसी और जगह हो जाता है। इस तरह से एक चक्र बनता है, जिसके मूल में है -‘पुन: उपयोग, पुनर्चक्रण, पुन: सुधार और पुन: निर्माण’ का मंत्र।
इसे बेहतर समझा जा सकता है एलेन मैक आर्थर फाउंडेशन के प्रसिद्ध ‘बटरफ्लाई डायग्राम’ से। इसमें चक्रीय अर्थव्यवस्था के दो भाग दर्शाए गए हैं- ‘जैविक’ और ‘तकनीकी’। जैविक भाग का मकसद है पृथ्वी के तत्वों की पुन: आपूर्ति, जबकि तकनीकी भाग का मतलब है जब भी कोई उत्पाद बाजार में प्रवेश करे, तो वह लंबे से लंबे समय तक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना रह सके। ऐसा होने के लिए न केवल उत्पादन के समय उत्पाद का जीवन बढ़ाने के लिए नए-नए तरीकों का प्रयोग, समाज में पुन: उपयोग को प्रोत्साहन आवश्यक है, बल्कि पुनर्चक्रण को अपनी अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का अहम हिस्सा बनाना भी उतना ही आवश्यक है।
पुनर्चक्रण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें ऊर्जा का इस्तेमाल होता है। यह प्रक्रिया न केवल पृथ्वी को उत्सर्जन से पहुंचने वाले नुकसान से बचाती है, बल्कि आम तौर पर उत्पादन में होने वाले खर्चे में भी किफायती साबित होती है। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि उत्पादन के समय नई तकनीकों का प्रयोग; उत्पादों का जीवन बढ़ाना और पुनर्चक्रण के स्तर को बढ़ाते हुए, चक्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के और नजदीक पहुंचना कितना आवश्यक है।
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