इंदौर के डॉ. मनोहर भंडारी चिकित्सक-अध्यापक होने के साथ ही पर्यावरण प्रेमी भी हैं। लगभग 3,000 से अधिक पेड़-पौधों का रोपण कर चुके डॉ. भंडारी पेड़ों को बचाने के लिए शोध ग्रंथों को डिजिटलकिए जाने के हिमायती हैं
इंदौर के डॉ. मनोहर भण्डारी एमबीबीएस, एमडी की शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भारतीय पुरातन चिकित्सा पद्धति के घोर समर्थक हैं। मेडिकल कॉलेज में सह प्राध्यापक के पद से सेवानिवृत्त डॉ. भण्डारी मातृभाषा में शिक्षा के हिमायती हैं। वे देश के उन पांच चिकित्सकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी एमडी का शोध ग्रंथ मातृभाषा हिन्दी में प्रस्तुत किया। भारतीय संस्कृति और परम्परा को बचाने के लिए लगातार लेखन तथा शोध करते रहते हैं। देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके 1200 से अधिक आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। अब तक 9 पुस्तकें भी वे लिख चुके हैं।
इतने भर से ही उन्होंने अपने कर्म की पूर्णता नहीं समझी और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी भरपूर काम किया जिसका नतीजा रहा 3,000 से अधिक पेड़-पौधों का रोपण एवं संरक्षण। इतने पर भी वे रुकते नहीं बल्कि दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’ की पटकथा लिखकर चौंकाते हैं। उन्होंने देश के सभी शिक्षण संस्थानों में पीएचडी शोध एवं लघु शोध प्रबन्धों को डिजिटल किए जाने का सुझाव दिया है जिसे मप्र आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर ने क्रियान्वित भी किया है।
शोध प्रबन्ध डिजिटल किए जाने के समर्थन में उनकी चिंता है कि एक टन कागज के निर्माण में 17 से 25 पेड़ों की बलि देनी पड़ती है। तीन टन लकड़ी का गुदा और 400 से 500 टन पानी लगता है। 19 हजार गैलन पानी प्रदूषित होता है और 1100 किलोग्राम से अधिक ठोस अपशिष्ट निकलता है। इतना ही नहीं,11 हजार किलोवाट से अधिक बिजली भी खर्च होती है। कागज सफेद करने के लिए क्लोरीन आदि रसायनों का उपयोग होता है जिससे 3000 किलोग्राम ग्रीन हाउस गैस पैदा होती है जो एक कार के धुएं से 6 माह तक होने वाले प्रदूषण के बराबर है।
यदि पर्याप्त प्रचार-प्रसार किया जाए तो अनेक विदेशी भी इसका लाभ लेने आ सकते हैं और देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा प्राप्त हो सकती है। डॉ. भण्डारी कहते हैं ‘‘हमारी संस्कृति में वृक्षों से जुड़े अनेक पर्व और तिथियां हैं। उनकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर अनुसंधान होना चाहिए, ताकि भारतीय ज्ञान-परम्पराओं की विज्ञानसम्मत प्राणप्रतिष्ठा हो सके।’’
पिछले दिनों ही डॉ. भण्डारी ने देश के समस्त राज्यों के हरियाली आच्छादित पर्यटन स्थलों में वन चिकित्सा केन्द्र की स्थापना का सुझाव दिया है। उनका तर्क है कि ऋग्वैद में वायु चिकित्सा और वन स्नान का जिक्र है जिसके मूलाधार वृक्ष हैं। वृक्ष मानव जाति के पितामह हैं और उनकी गोद में रहना ही वनस्नान है। यदि मनुष्य को तन, मन और भावनात्मक तथा आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहना है तो पेड़ों को संरक्षित करना होगा और वर्ष में 10- 15 दिन उनके सान्निध्य में जाना होगा। वन चिकित्सा केन्द्र इस दिशा में अच्छा कदम सिद्ध हो सकते हैं। पक्षियों का कलरव, वन का शांत वातावरण, शुद्ध हवा मानसिक तनाव कम करने में सहायक होते हैं और 80 प्रतिशत आधुनिक बीमारियों की जड़ मानसिक तनाव ही है।
इन केन्द्रों में भारतीय ग्रंथों में वर्णित सूर्यकिरण चिकित्सा, अग्निहोत्र चिकित्सा, मंत्र चिकित्सा, अभ्यंग आदि का समावेश भी किया जा सकता है। यदि पर्याप्त प्रचार-प्रसार किया जाए तो अनेक विदेशी भी इसका लाभ लेने आ सकते हैं और देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा प्राप्त हो सकती है। डॉ. भण्डारी कहते हैं ‘‘हमारी संस्कृति में वृक्षों से जुड़े अनेक पर्व और तिथियां हैं। उनकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर अनुसंधान होना चाहिए, ताकि भारतीय ज्ञान-परम्पराओं की विज्ञानसम्मत प्राणप्रतिष्ठा हो सके।’’
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