पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में इमरान खान द्वारा अविश्वास प्रस्ताव को रोके जाने की वैधानिकता पर सुनवाई कर रहा है, पर यह बात स्पष्ट है कि इसका निर्णय जो भी आये, पाकिस्तान में एक बार फिर संवैधानिक संकट गहरा गया हैे उल्लेखनीय है कि रविवार को, पाकिस्तानी राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने खान की सलाह के बाद पाकिस्तानी संसद को भंग कर दिया। इमरान खान ने संसद के डिप्टी स्पीकर द्वारा अविश्वास प्रस्ताव को “असंवैधानिक” बताते हुए खारिज करने के कुछ मिनट बाद ही राष्ट्रपति को यह परामर्श दिया था, जिस पर त्वरित कार्यवाही करते हुए राष्ट्रपति ने यह निर्णय लिया।
2018 के चुनावों में नया पाकिस्तान और मदीना का राज्य बनाने जैसे लुभावने वायदों के साथ सत्ता में आए इमरान खान के इन लगभग 4 वर्षों के कार्यकाल में पाकिस्तान अपनी दुरावस्था के चरम पर पहुंच चुका हैे पाकिस्तान की आंतरिक और बाह्य दोनों मोर्चों पर नाकामी साफ दिखाई दे रही है। पाकिस्तान अपने ऋणों के भुगतान में असमर्थ सिद्ध हो रहा है, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी अपने हाथ खींच लिए हैं और उसके लंबे समय तक सहयोगी रहे पश्चिमी देशों से उसे कोई सहायता नहीं मिल रही है। देश के अंदर बेरोजगारी गरीबी और भुखमरी लगातार विकराल होते जा रही हैं।और इस विपरीत स्थिति में जब इन भीषण समस्याओं का निदान खोजा जाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य होना चाहिए, इमरान खान ने देश में 90 दिन के अंदर चुनाव कराने की घोषणा कर दी है। वर्तमान हालात में पाकिस्तान का निर्वाचन आयोग भी कह चुका है कि इस समय सीमा में देश में आम चुनाव कराया जा पाना संभव ही नहीं है।
जिन स्थितियों में इमरान खान की सरकार की विदाई हो रही है , वह सबके सामने ही हैं, और इसमें किसी कारक विशेष की भूमिका को महत्वपूर्ण बताने के लिए तर्क वितर्क के दौर चल रहे हैं। परंतु अब एक नया प्रश्न खड़ा हो गया है कि पाकिस्तान के अंदर और बाहर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है?
पाकिस्तान एक कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवाद का गढ़ रहा है और 70 के दशक के अंत से यह इस्लामी आतंकवाद के वैश्विक निर्यात का केंद्र बन गया, जिसने दुनिया भर के इस्लामी आतंकी संगठनों को ना केवल कैडर उपलब्ध कराया, बल्कि उन्हें नीति निर्धारण से लेकर उनकी आतंकी गतिविधियों का वित्तीयन भी किया। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की भूमिका इस पूरे कार्य में एक नोडल एजेंसी की रही। और सेना तथा सरकार के परस्पर संबंध लगातार बदलते रहे और उसी के अनुरूप पाकिस्तान के क्षेत्रीय और वैश्विक संबंधों पर प्रभाव पड़ता रहा।
पाकिस्तान में इमरान खान के सत्ता से अलग होने के बाद इसका एक महत्वपूर्ण प्रभाव अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान के संबंधों पर पड़ेगा। एक समय था जब पाकिस्तान की सेना और आईएसआई के तालिबान के साथ घनिष्ठ संबंध हुआ करते थे। मुजाहिदीन युद्ध के समय से पाकिस्तान, अफगानिस्तान के चरमपंथी इस्लामी समूहों का प्रमुख सहायक रहा। और अफगानिस्तान में जब पहली बार तालिबान का शासन स्थापित हुआ तो पाकिस्तान उसे सर्वप्रथम मान्यता प्रदान करने वाला देश था, और उसे इसके यथेष्ट लाभ भी प्राप्त हुए। परंतु इस बार तालिबान के शासन की स्थापना पाकिस्तान की खुशियों के दौर को ज्यादा लंबा नहीं बना पाई। तालिबान का मिजाज इस बार बदला हुआ है और उन्होंने सीमा संबंधी विवाद में अपना कठोर रुख दिखाकर इसे सिद्ध भी किया। इस बार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए तालिबान अब पाकिस्तान पर विश्वास नहीं कर रहा है। और इस समय उसके लिए यह भूमिका कतर निभा रहा है। लिहाजा खिसयाया हुआ पाकिस्तान अब अफगानिस्तान से चाहता है कि तालिबान अपने छत्र के नीचे एकत्र उन चरमपंथी समूहों पर नकेल कसने के लिए और अधिक प्रयास करे जिनके विषय में उसे आशंका है कि वे पाकिस्तान में हिंसा फैला सकते हैं। परंतु तालिबान ऐसी कोई गारंटी देने की स्थिति में ही नहीं है।
इमरान खान का पाकिस्तान के प्रति रवैया हमेशा सहानुभूतिपूर्ण रहा है और इतना कि उनका एक उपनाम ह्यतालिबान खानह्ण भी रखा जा चुका है। ऐसी स्थिति में अगर विपक्षी गठबंधन की सरकार सत्ता में आती है तो पाकिस्तान की अफगानिस्तान से लगती सीमा पर और अधिक अव्यवस्था देखने में आ सकती है।
चीन के साथ संबंध
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ निसंदेह वह व्यक्ति थे जिन्होंने पाकिस्तान और चीन के संबंधों में प्रगाढ़ता का इतना उच्च स्तर प्राप्त किया। 60 अरब डॉलर का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) जो पड़ोसियों को एक साथ बांधता है, इसी प्रगाढ़ता का प्रमाण माना जाता है। परंतु नवाज शरीफ के पतन के बाद इमरान खान के दौर में सीपीईसी के कार्य में वह तेजी नहीं देखी जा सकी े इसका परिणाम यह भी हुआ कि चीन द्वारा पाकिस्तान की सेना से इस हेतु सीधे समझौते की बातें भी चलीं े वहीं दूसरी ओर विपक्षी नेता और नवाज शरीफ के संभावित उत्तराधिकारी शहबाज शरीफ ने चीन के साथ सीधे पंजाब के नेता के रूप में सौदे किए, और चीन द्वारा प्राथमिकता के आधार पर तय की गई प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को धरातल पर उतारने में चीन की जो सहायता की वह नवाज शरीफ के दौर के दिनों की वापसी के लिए चीन का बड़ा प्रलोभन हो सकती हैें
अगर पाकिस्तान के और बड़े पडोसी ईरान की बात करें तो 2019 से पाकिस्तान के ईरान से सबन्ध लगातार कटु होते रहे हैं े बलोचिस्तान में आतंकी हमलों को लेकर इमरान खान की सरकार द्वारा ईरान पर जिस तरह से कठोर व्यवहार किया है, फलस्वरूप दोनों देशों के बीच सतत मनमुटाव की स्थिति बनी हुई हैे इमरान खान और उनके कट्टरपंथी गठबंधन के सत्ता से हटने के बाद यह संभावना है कि ईरान पाकिस्तान सीमा पर तनाव में कुछ कमी आये.
चीन द्वारा पाकिस्तान की सेना से इस हेतु सीधे समझौते की बातें भी चलीं वहीं दूसरी ओर विपक्षी नेता और नवाज शरीफ के संभावित उत्तराधिकारी शहबाज शरीफ ने चीन के साथ सीधे पंजाब के नेता के रूप में सौदे किए, और चीन द्वारा प्राथमिकता के आधार पर तय की गई प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को धरातल पर उतारने में चीन की जो सहायता की वह नवाज शरीफ के दौर के दिनों की वापसी के लिए चीन का बड़ा प्रलोभन हो सकती हैें
अगर भारत के साथ पाकिस्तान के सबंधों की बात करें तो यह लगातार बिगड़े ही हैं और इसका मूल कारण भारत में कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाली संविधान के अनुच्छेद 370 के उन्मूलन के बाद से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने हर अंतर्राष्ट्रीय मंच से भारत विरोधी दुष्प्रचार करना प्रारंभ कर दिया ेइसके साथ ही साथ में सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ता समर्थन भारत द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध सबसे बड़ी शिकायत रही हैे उल्लेखनीय है कि इमरान खान द्वारा असेम्बली भंग करने से पूर्व शनिवार को ही पाक सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा द्वारा भारत से सम्बन्ध सुधारने बावत कुछ सकारात्मक संकेत दिए गए हैं जो इमरान के जाने के बाद, नाममात्र की ही सही, पर सुधार की संभावना दर्शाते हैें
इमरान खान की सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के समय अमेरिका के साथ जो रिश्ते ख़राब किये हैं, उसका यह स्वाभाविक परिणाम है कि आज पाकिस्तान अमेरिका की प्राथमिकता में नहीं हैे ख़राब सम्बन्धों का उदाहरन इसी से समझा जा सकता है कि इमरान खान इस पूरे घटनाक्रम में अमेरिका को प्रमुख साजिशकर्ता मान रहा हैेयह संभव है कि नई जिम्मेदार लोकतान्त्रिक सरकार के गठन के बाद अमेरिका से सबंधों की दिशा में शायद कुछ सुधार हो सके
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अपने पूर्ववर्तियों की जिस अवसरवादी विदेश नीति की इन दिनों भर्त्सना करते नहीं थकते, वे स्वयं भी इससे अलग नहीं हैं, और वास्तविकता में अवसरों के लिए इस तीव्रता से निष्ठाए बदलने वालों में संभवत: वह अग्रणी ही सिद्ध होंगे संकटग्रस्त सऊदी अरब को छोड़कर उसे इस्लामिक विश्व में चुनौती देने वाले तुर्की का हाथ थामा, इसी प्रकार अमेरिका को दुत्कार कर चीन और कभी रूस के साथ पींगे बढ़ने वाले इमरान खान राजनीति में अवसरवाद की पराकाष्ठा पर पहुँचे ेपरन्तु सैद्धांतिक दृढ़ता का अभाव पाकिस्तान की लगभग हर सैनिक असैनिक सरकार के पतन का एक कारण रहा है और आश्चर्य की बात है कि लोगों को इस बात के लिए आईना दिखने वाले इमरान खान स्वयं भी इसके अपवाद नहीं बन सके!
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