देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेशचन्द्र लाहोटी का बुधवार देर शाम दिल्ली निधन हो गया। पांच दिन पहले तबीयत खराब होने के कारण उन्हें अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उन्होंने 82 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली। उनके निधन पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उपराष्ट्रपति एम. वैंकैया नायडू, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत देश के प्रमुख लोगों ने श्रद्धांजलि अर्पित की है।
रमेशचन्द्र लाहोटी मप्र के गुना के रहने वाले थे। उनका जन्म एक नवंबर 1940 को हुआ था। उन्हें अप्रैल 1977 में बार से राज्य उच्च न्यायिक सेवा में सीधे भर्ती करते हुए जिला और सत्र न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। एक वर्ष तक पद पर रहने के बाद उन्होंने मई 1978 में इस्तीफा दे दिया था और मुख्य रूप से उच्च न्यायालय में वकालत करने के लिए बार में लौट आए थे। उन्हें तीन मई 1988 को मप्र उच्च न्यायालय का अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किया गया और अगले वर्ष चार अगस्त को स्थायी न्यायाधीश बना दिया गया। उन्हें सात फरवरी, 1994 को दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया गया और नौ दिसंबर, 1998 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया। इसके बाद उन्हें एक जून 2004 को भारत के 35वें प्रधान न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया था। वे एक नवंबर 2005 को सेवानिवृत्त हो गए। उन्होंने अपने कार्यकाल में कई ऐसे बेबाक फैसले लिए, जिनके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
न्यायमूर्ति लाहोटी अपनी नियुक्ति के बाद 2004 में ही तब सबसे ज्यादा चर्चा में आए, जब अपने से पहले रहे मुख्य न्यायाधीश के उस बयान को खारिज किया, जिसमें उन्होंने न्यायपालिका में उभरते भ्रष्टाचार के बारे में चिंता व्यक्त की थी। उस समय लाहोटी ने स्पष्ट रूप से कहा था कि न्यायपालिका पूरी तरह से 'स्वच्छ' है। यह उस समय काफी चर्चित वक्तव्य था, क्योंकि मीडिया में भ्रष्ट न्यायाधीशों के बारे में लिखा जा रहा था। वे 2005 में एक न्यायिक तबादले में भी वह काफी चर्चित रहे। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीके रॉय का तबादला हरियाणा कोर्ट से असम उच्च न्यायालय कर दिया था। तब बार काउंसिल के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद एस. नरीमन ने पत्र लिखकर इस तबादले पर सवाल उठाए थे। उन्होंने इस तबादले को 'दंडात्मक' बताते हुए इसे 'गंभीर परिणामों से भरा मामला' करार दिया था।
अपने कार्यकाल में न्यायमूर्ति लाहोटी ने हरियाणा के उस कानून को बरकरार रखा, जिसके तहत दो से अधिक बच्चों वाले लोगों को स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने निजता और धर्म के अधिकार पर आधारित तर्कों को खारिज कर दिया था। उनके इस निर्णय ने काफी सुर्खियां बंटोरी थीं। न्यायमूर्ति लाहोटी का असम में प्रवासियों पर अवैध प्रवासियों (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारण) अधिनियम को रद्द करने का निर्णय भी काफी चर्चा में रहा था। साल 2005 में असम गण परिषद के सांसद सर्बानंद सोनोवाल ने इस एक्ट के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की। इस याचिका को स्वीकार करते हुए तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से 1983 अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम को रद्द कर दिया। इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश लाहोटी, न्यायमूर्ति जीपी माथुर और पीके बालासुब्रमण्यन शामिल थे। उन्होंने इसे संविधान के अधिकार से बाहर होने के रूप में बनाए गए नियम के रूप में घोषित किया।
मुख्य न्यायाधीश लाहोटी उस समय भी चर्चा में आए थे, जब उन्होंने अपने कार्यकाल के अंतिम समय में तमिलनाडु के चर्चित कांची शंकराचार्य मामले में आरोपितों को जमानत दे दी थी। कांचीपुरम मंदिर के कार्यालय में 3 सितंबर 2004 को धारदार हथियार से शंकर रमन की हत्या कर दी गई थी। दोनों शंकराचार्यों के खिलाफ वित्तीय हेरफेर के आरोप लगे थे। शंकर रमन के परिजन ने शंकराचार्यों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। पुलिस ने आईपीसी की धारा 302, 34 और 120B के तहत केस दर्ज किया था। जयेंद्र को शंकर हत्याकांड की साजिश रचने के आरोप में 11 नवंबर 2004 को दीपावली की रात में आंध्र प्रदेश से गिरफ्तार किया गया। इस पर पूरे देश में खूब हंगामा हुआ था।
(सौजन्य सिंडिकेट फीड)
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