डॉ. आनंद पाटील
भारतीय महिलाओं की दृष्टि से देखा-सोचा जाए तो भारत का सुदृढ़ एवं अत्यंत सुचिंतित पक्ष उभरकर आता है। प्राचीन काल से आरंभ कर अवार्चीन तक सशक्त महिलाओं की सक्षमता को सहज ही देखा जा सकता है। इसी कड़ी में वर्तमान में समाजोद्धार के लिए कार्यरत परंतु अचर्चित तीन राष्ट्रचेता सशक्त महिलाएं – एस. लता (तिरुवारूर-तमिलनाडु), राजेश्वरी आर. (रामेश्वरम-तमिलनाडु) एवं हनुमंतम्मा उर्फ अनु अक्का उर्फ अनु कन्नड़ति (रायचुर-कर्नाटक) और उनकी क्रियाशीलता प्रेरणाप्रद है।
30 वर्षों से सेवाव्रती
मातृभूमि की सेवा करने की इच्छा रखने वाली सशक्त महिलाओं के लिए 1992 में सेवाव्रती योजना आरंभ हुई थी। सुश्री एस. लता का जन्म एवं पालन-पोषण तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एक पारंपरिक धनी परिवार में हुआ था। स्नातक करने के बाद सेवाव्रती बनकर उन्होंने स्वयं को सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। सुश्री लता ने रामनाथपुरम जिले के चिन्ना एरवाड़ी गांव से अपने सेवा कार्यों का आरंभ किया। सामाजिक कार्यों के लिए कई गांवों का पैदल प्रवास कर 30 वर्ष के तपस्वी जीवन में उन्होंने कई सेवाव्रतियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने बालवाड़ी और ट्यूशन सेंटर के माध्यम से आरंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की योजनाएं बनायीं और तत्संबंधी प्रबंध किए। धार्मिक जागरूकता और दीप पूजा के माध्यम से संस्कारों को जीवंतता प्रदान की। कई स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाकर कई महिलाओं को सशक्त किया। आज उनके योगदान से तमिलनाडु के कई गांव आत्मनिर्भर हुए हैं। वे सार्वजनिक जीवन में आत्मानुशासित रहने की मिसाल हैं। सरल जीवन शैली और समर्पित व आत्मानुशासित जीवन ने दूसरों को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। संपन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद विपन्नों के बीच संपन्नता का संचार करना उनकी दृष्टि रही है। भारत को समृद्ध बनाने में ऐसी विदुषियों का महती योगदान है।
सेवानिवृत्त उप निरीक्षक श्री एसाकिमदान कहते हैं, ‘मैं 1992 में वार्षिक उत्सव के लिए चिन्ना एरवाड़ी की बालवाड़ी में गया था। उस समय सुश्री एस. लता से मिला और उनकी कड़ी मेहनत देखी। मैं भी कन्याकुमारी जिले में उनके पैतृक स्थान से हूं, अत: जानता हूं कि वे एक संपन्न परिवार से हैं। मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी कि इतने धनी परिवार की लड़की समाजोद्धार की दृष्टि से अपने पैतृक स्थान से बहुत दूर मछुआरों के गांव में आकर रहने लगी हैं, जहां सुविधाएं न के बराबर थीं।’
एरवाड़ी स्थित एक हाईस्कूल के सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक (1991-95) श्री ए. सोर्नप्पन कहते हैं, ‘जब मैंने एरवाड़ी में स्कूल ज्वाइन किया, तो बुनियादी ढांचे और स्वच्छता के मामले में वहां अत्यंत दयनीय स्थिति थी। विद्यार्थियों का उत्तीर्णता प्रतिशत शून्य था। मूलत: मछुआरों का गांव था परंतु मजहबियों के नियंत्रण में था। सभी मछुआरे हिन्दू थे और उनके साथ गुलामों का सा व्यवहार होता था। हिन्दुओं के पास गांव में कोई घर या जमीन नहीं थी। उन्हीं दिनों, सुश्री लता सेवाभारती सेवाव्रती के रूप में वहां पहुंचीं और एक बालवाड़ी का शुभारंभ किया।
बालवाड़ी के माध्यम से विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करके ग्रामीणों को संगठित किया और जागरूक बनाया।’ सुश्री एस. लता ने 1992-93 के दौरान चिन्ना एरवाड़ी गांव में बालवाड़ी की स्थापना के अतिरिक्त प्राथमिक एवं माध्यमिक-उच्च माध्यमिक के बच्चों के लिए कोचिंग कक्षाएं आरंभ कीं; 5-18 आयु वर्ग के लिए 30 गांवों में 30 संस्कार केंद्र स्थापित किए; 25 गांवों में साप्ताहिक भजन की परंपरा विकसित की; सत्संग कार्यक्रम आरंभ किए; 12 से अधिक वर्षों तक 15 स्थानों पर चिकित्सा शिविर चलाए; महिलाओं के लिए सिलाई प्रशिक्षण आरंभ किया; नियमित मासिक दीप पूजा आरंभ की; स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाए; छात्रों को मार्गदर्शन और परामर्श दिया; स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी गतिविधियों से लोगों में जागरूकता उत्पन्न की। 56 वर्षीय सुश्री लता का मानना है कि भारत की पहचान भारतीय संस्कारों से होती है।
भारत के हर नागरिक को संस्कारवान होना चाहिए। यदि हम अपने संस्कारों को जीवित रखने में सफल होते हैं, तो कोई भारत का बाल भी बांका नहीं कर सकता। ऐसी सशक्त महिलाओं में ही भारत की आत्मा बसती है। वे वर्तमान में रामेश्वरम में रामनाथ स्वामी अन्बु इल्लम (श्रीराम ट्रस्ट) की प्रभारी हैं और निकटवर्ती गांवों में अपनी सेवा के जरिए समाज में उन्नति एवं प्रगतिशीलता का सतत संचार कर रही हैं।
समाज की बेहतरी की धुन
साधारण प्रतीत होने वाले लोगों की असाधारणता उनकी दृष्टि से स्पष्ट होती है। कर्नाटक में सामाजिक स्तर पर कार्यरत अनु का जीवन और सेवाभावी कार्य आश्चर्यचकित करनेवाली एक असाधारण कहानी ही प्रतीत होता है। विद्यार्थियों के बीच अनु अक्का और अनु कन्नड़ति के नाम से लोकप्रिय अनु का मूल नाम हनुमंतम्मा है। अनु बेंगलुरु के महारानी कॉलेज से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाली 21 वर्षीय छात्रा हैं। उनका पुश्तैनी गांव कर्नाटक के रायचुर जिले की सिंधनुर तहसील में चिक्काबर्गी है।
सामाजिक जाग्रति एवं समृद्धि के लिए कार्यरत अनु का आरंभिक जीवन संघर्षपूर्ण था। 4 भाई-बहनों के साथ उनके माता-पिता का पेशा खेतिहर मजदूरी था। शिक्षा की ललक थी परंतु घरवाले विवाह के बंधन में बांधने वाले थे। अत: वे घर छोड़ कर राजधानी शहर बेंगलुरु चली गईं। जैसे-तैसे कॉलेज में प्रवेश पा लिया और विद्यार्थियों में जागरूकता लाने की दृष्टि से कॉलेज परिसर के पेड़ों पर पोस्टर इत्यादि लगाने के लिए गड़े हुए कीलों को हटाने का अभियान छेड़ दिया और अनेक स्थानों पर विद्यार्थियों को एकत्रित कर यह कार्य पूरी सजगता और बड़े स्तर पर किया। अनु के इस काम ने समाज सेवा गतिविधियों में रुचि रखने वाले अन्य समूहों को भी प्रोत्साहित किया और 'पेड़ों को बचाने' में अनु की मुहिम का समर्थन एवं सहयोग करना आरंभ कर दिया।
अक्का अनु की यात्रा का दूसरा चरण कर्नाटक राज्य में बेल्लारी, कोप्पल आदि स्थित सरकारी विद्यालयों के नवीनीकरण के साथ आरंभ हुआ। इस अभियान ने अनु को सोशल मीडिया के माध्यम से अपार लोकप्रियता प्रदान की। आते-जाते इस कार्य को देखनेवालों ने जो वीडियो बनाए और अपलोड किए, उनसे ऐसे सत्कार्यों के लिए इच्छुक सामाजिक सेवा समूहों के बीच कौतूहल उत्पन्न हुआ और अनु को और अधिक लोकप्रियता मिली। इस कार्य को स्थायित्व प्रदान करते हुए अक्का अनु ने एक समूह बनाया, जिसमें अब 10 स्थायी सदस्य हैं।
कर्नाटक सरकार के विद्यालयों की बिगड़ती स्थिति को लेकर, विशेष रूप से कर्नाटक और केरल के सीमावर्ती क्षेत्र में, एक विवादास्पद मुद्दा छिड़ गया था। कन्नड़ माध्यम के विद्यालयों की रक्षा के लिए उनकी टीम ने कई विद्यालयों का दौरा किया और वहां की दयनीय स्थिति देखी। अनु अक्का और उनकी टीम ने कन्नड़ माध्यम के विद्यालयों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता पैदा करना आरंभ कर दिया और विद्यार्थियों को आकर्षित-प्रोत्साहित किया। कन्नड़ माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश लेने वालों की संख्या बढ़ाने की दृष्टि से विद्यालयों का नवीनीकरण भी किया। जहां अंग्रेजी माध्यम के मिशनरी स्कूलों का बाहुल्य एवं बोलबाला हो, वहां ऐसा कार्य चुनौतीपूर्ण था परंतु अनु अक्का ने विवादों को दरकिनार करते हुए ऐसे कार्य किए।
इस अभियान के चलते विद्यालयों की स्थिति सुधारने के लिए अनु की टीम को अन्य कई गांवों में आमंत्रित किया गया। विभिन्न ग्रामों के निवासियों ने विद्यालयों की दुर्दशा के चित्र अनु को भेजे और अनु ने संसाधन जुटा कर विद्यालयों के नवीनीकरण की योजना आरंभ की। विद्यालयों की दीवारों पर राष्ट्रीय महत्व को दशार्ने वाले चित्र बना कर युवा छात्रों के बीच देशभक्ति का वातावरण बनाने का उपक्रम भी इस अभियान का हिस्सा बना। अब तक अनु और उसकी टीम द्वारा किए गए सारे कार्य पूर्णत: स्वैच्छिक और बिना किसी वित्तीय लाभ के ही किए गए हैं।
इसी कड़ी में स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत कई गांवों में स्वच्छता अभियान चलाया गया। नालों की सफाई, शौचालयों के उपयोग के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना भी इस अभियान का हिस्सा बना। अक्का अनु की टीम ने पुराने स्मारक, मंदिर, मंदिर के तालाबों (कल्याणी) और सरकारी अस्पतालों के जीर्णोद्धार का कार्य भी आरंभ किया। अनु के अनुसार अपनी संस्कृति को बचाने के लिए मंदिरों को बचाना अनिवार्य है। ज्ञातव्य है कि अनु कन्नड़ति अनुसूचित जाति समुदाय से आती हैं।
अनु और उनकी टीम को ग्राम प्रतिनिधि, छात्र और समाजोद्धार में रुचि रखने वाले युवा समूहों से प्रोत्साहन एवं सहायता प्राप्त होती है। अब तक अनु और उनकी टीम ने 75 से अधिक विद्यालयों का नवीनीकरण किया है। अनु की कहानी इसलिए भी प्रेरणादायक है क्योंकि उसकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने उसके द्वारा समाज के लिए किए जाने वाले कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की। अक्का अनु लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सफल होना चाहती हैं, ताकि समाज और देश की बेहतर ढंग से सेवा कर सके।
दिव्यांग परंतु स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर
सुश्री राजेश्वरी 'दिव्यांग महिला' हैं और तिरुवारूर जिले के श्रीवांजियम की निवासी हैं। वे मूल रूप से श्रीवांजियम में श्री वांजीनाथर मंदिर (महादेव) के पास पूजा की एक छोटी दुकान चला रही हैं। उनकी पूजा की दुकान को महलिर थित्तम (थिट्टम) का समर्थन प्राप्त है। महलिर थित्तम महिलाओं के लिए एक सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण कार्यक्रम है, जिसे तमिलनाडु महिला विकास निगम लिमिटेड द्वारा लागू किया गया है। एसएचजी की दृष्टि से प्रकल्प 1989 में आरंभ किया गया था। राजेश्वरी अपनी बहन के साथ रहती हैं। उनकी बहन भी दिव्यांग हैं। वे पूजा की उस छोटी-सी दुकान के माध्यम से अपनी दैनिक आजीविका का प्रबंध करती हैं। श्री वांजीनाथर मंदिर आने वाले भक्तों को मूलभूत जानकारियां देने से लेकर स्थानीय लोगों की सहायता करना उनका स्वाभाविक गुण है।
दिव्यांग होने के बावजूद लोक सेवा के प्रति उनकी सुहृद सेवाभावी दृष्टि को देखते हुए उनकी सेवाओं को ग्रामीण एवं पंचायत स्तर पर सराहा जाता रहा है। जब कभी श्रीवांजियम में ग्रामीण शिविर लगते हैं, समुदाय को संगठित करने और समुदाय के सदस्यों के बीच क्षेत्र स्तर पर सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता उत्पन्न करने में उनकी सर्वत: प्रमुख भूमिका होती है। तिरुवारूर जिले के नन्निलम तहसील में विभिन्न संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे 'स्वच्छ भारत अभियान' को चलाने में भी वे सक्रिय रही हैं।
राजेश्वरी को दिव्यांगों के प्रति लोग का दया भाव अमान्य है। वे कहती हैं, ‘काम करने में सक्षम हूं।’ 46 वर्षीय राजेश्वरी असहाय नहीं हैं और शारीरिक कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र तथा आत्मनिर्भर महिला के रूप में सक्षम सिद्ध किया है। देश, समाज एवं लोगों के प्रति अत्यंत सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ वे महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी हुई हैं। वे तमिलनाडु की पिछड़ी जाति कल्लार समुदाय से हैं। वे सेवा कार्य को ‘सेवा परमो धर्म:’ मानती हैं। श्री वांजीनाथर अर्थात् देवाधिदेव महादेव की भक्त हैं और दैव (भाग्य) से बड़ा देव (महादेव) को मानती हैं। उनकी सकारात्मकता, सहायता एवं सेवा करने की इच्छा, शारीरिक कठिनाइयों के बावजूद सामाजिक दायित्वों की अनुभूति एवं सक्रियता भारतीय स्त्री के उदात्त चरित्र के द्योतक हैं।
उपरोक्त तीनों महिलाओं में एक बात सर्वसामान्य रूप में दृष्टिगोचर होती है कि उनमें भारतीयता के द्योतक गुण-धर्म, दान, सेवा एवं समर्पण असाधारण रूप से उपस्थित हैं। वे आत्मनिर्भर ही नहीं, अपितु लोक एवं राष्ट्र को प्रोत्साहित करने हेतु सक्रिय रूप से क्रियाशील हैं। महिलाओं के इन गुणों से ही भारत प्राचीन से लेकर अवार्चीन तक अपनी सभ्यता-संस्कृति की जड़ों से जुड़ा हुआ है और पुन: अपनी प्राचीन समृद्धि एवं वैभव के लिए प्रयासरत है।
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