प्रो. कुमुद शर्मा
भारत के प्राचीन परिदृश्य में स्त्रियों की शक्ति और सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं थी। भारत की प्राचीन नारियां अपनी प्रज्ञा के वैभव और तेज की दीप्ति से आज की नारी का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। हमारे यहां नारी शक्ति स्वरूपा है। वह जगद्-जननी है। लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के रूप में वंदनीय होकर समाज में आर्थिक, बौद्धिक और अन्य शक्तियों का पर्याय रही है। लेकिन विडम्बना यह है कि पूर्वाग्रहों से रचित इतिहास में भारतीय स्त्रियों की अबला छवि का निर्माण किया गया। मातृत्व और पत्नीत्व की भारतीय अवधारणा को लेकर ढेरों सवाल खड़े किए गए।
सच्चाई यह है कि माता और पत्नी, दोनों ही रूपों में प्राचीन भारतीय नारियों की स्थिति हीनता की बोधक नहीं रही। कर्तव्य और अधिकार स्त्री-पुरुष दोनों के लिए थे। महाभारत में उमा-माहेश्वर संवाद के अन्तर्गत भगवान शिव उमा को अपनी सह-धर्मिणी के रूप में उनकी स्थिति समझाते हुए कहते हैं-‘तुम मेरी सह धर्मचारिणी हो, हम दोनों एक सा ही धर्माचरण करते हैं। हम दोनों के शील समान हैं, और व्रत भी समान हैं। जो मेरा पराक्रम है, मेरी शक्ति है, वैसा ही समतुल्य तुम्हारा पराक्रम है, तुम्हारी शक्ति है। मेरा आधा शरीर तुम्हारे आधे शरीर से निर्मित है।’
यह बात भारतीय चिंतकों ने इस तरह दोहराई ‘स्त्री को आप द्वितीय क्यों कहते हैं, स्त्री तो पूर्ति है, वह आधेपन को भरती है। वही आद्या है, वह द्वितीया कहां है?‘
शिक्षा का अधिकार, विवाहित और अविवाहित रहने का अधिकार, स्वावलम्बी बनने का अधिकार उसके पास थे। प्राचीन काल में अध्ययन पूर्ण कर वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर सकती थीं। ब्रह्मवादिनी – ब्रह्म चिंतन, अध्यात्म, चिंतन, मनन करती थीं। उनमें विवाहित भी थीं और अविवाहित भी। गार्गी कुमारी ब्रह्मवादिनी थीं, मैत्रेयी विवाहित ब्रह्मवादिनी थीं। शिल्प कला का कौशल भी उनके पास था। महिलाएं उस समय रंगाई, बुनाई, सिलाई से लेकर तलवार की म्यान बनाने के काम से भी जुड़ी हुई थीं।
हमारी भारतीय अवधारणा में लिंगभेद को अस्वीकार किया गया है। विवेकानंद कहते हैं कि आत्मा में जब किसी प्रकार लिंगभेद नहीं, तब स्त्री-पुरुष को लिंगभेद के आधार पर विभाजित करना न्यायसंगत नहीं है। सुभद्रा कुमारी चौहान ने इसी धारणा को आगे बढ़ाया। वे कहती हैं- ‘मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है, फिर चाहे वह स्त्री शरीर के अंदर निवास करती हो, चाहे पुरुष शरीर के अन्दर।’
स्त्री-पुरुष, एक-दूसरे के पूरक
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय स्त्रियों का एक गौरवशाली इतिहास होने के बावजूद इतिहास की बदलती परिस्थितियों ने स्त्री जीवन में अनेक तरह के संकट पैदा करके उसके जीवन को मुश्किल और त्रासद बनाया। लेकिन उसे दूर करने के सामूहिक प्रयास भी हुए।
भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विविध स्तरों पर पनपने वाले स्वत्व और स्वाधीनता के विभिन्न परिपार्श्व ने नारी चेतना को भी आंदोलित किया। स्त्री की स्वाधीनता के प्रश्न भी राजनीतिक प्रश्नों की साझेदारी में खुलते चले गए। राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री शक्ति का सामूहिक आवाहन किया गया। गांधी जी ने स्त्री-पुरुष, दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना और यह भी माना कि ‘एक की सक्रिय सहायता के बिना, दूसरा जी नहीं सकता।’ स्वाधीनता आंदोलन के दौर की पत्र-पत्रिकाएं स्त्री संबंधी बहसों से भरी पड़ी हैं। स्त्री की स्वाधीनता का प्रश्न अहम सवाल बनकर उभरा। साहित्यिक पत्रिकाओं में भी स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा उपहास का विषय नहीं बल्कि बहस का विषय बनीं। पत्रकारिता के जरिए आवाज उठाई गई कि केवल स्त्री की दृष्टि से नहीं वरन् सामूहिक विकास की दृष्टि से भी स्त्री स्वातंत्र्य जरूरी है।
सामाजिक-राजनैतिक जागरण की राष्ट्रीय भूमिका स्त्री विषयक पत्रिकाएं भी उठा रही थीं जिनका संदेश था – स्वराज की आकांक्षा में स्त्री स्वाधीनता के विविध आयामों की खोज। राष्ट्रीय जागरण ने स्त्री को स्थान दिया, उसके लिए संभावनाओं के द्वार खोले।
स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में मुक्ति की चावी स्त्री के हाथों में मानते हुए ‘सुधा’ पत्रिका की संपादकीय टिप्पणी के अन्तर्गत निराला ने लिखा कि ‘मुक्ति का यथार्थ सूत्र स्त्रियों के ही हाथ में है। लक्ष्मी तथा सरस्वतियों को कैद करना भी अपने ही अंधकार के दीपक को गुल कर देना है। राष्ट्र की स्वतंत्र भावना कैसे पैदा हो? घर की देवियां आंसू बहाएं और आप बहादुर हो जाएं? …. स्त्रियों का शव लेकर विजयी होना असंभव है। …अतएव हमें स्त्रियों की स्वतंत्रता, शिक्षा-दीक्षा आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा अब के पुरुषों की तरह उनके बच्चे भी गुलामी की अंधेरी रात में उड़ने वाले गीदड़ होंगे, स्वाधीनता के प्रकाश में दहाड़ने वाले शेर नहीं हो सकते।’ (सुधा, मासिक लखनऊ, मार्च,1930)
आचार्य शिवपूजन सहाय स्त्री शिक्षा की वकालत करते हुए स्त्री शिक्षा को स्त्री के स्वावलम्बन और राष्ट्र के प्रति उसके दायित्व से जोड़ते हैं। स्त्री शक्ति की पहचान बनाने का ऐसा प्रयास स्त्री के स्वविवेक और स्वत्व की पहचान के साथ-साथ राष्ट्र के विकास और संवर्धन से जुड़ जाता है- विद्या पढ़ने से तुम राजहंसिनी बन जाओगी। वह दूध और जल को अलग-अलग कर देती है। तुम में भले-बुरे का विवेक आ जाएगा। …विद्या पढ़कर तुम समाज को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाओगी। तुम्हारा पढ़ना तभी सार्थक होगा जब तुम परिवार और समाज के हित साधन में अपना सारा समय लगा दोगी। परिवारों के सुधार से समाज का सुधार होगा, समाज के सुधार से देश का उद्धार। …भीतरी सुधार के बिना बाहरी सुधार न टिकाऊ होगा और न ही सफल होगा। …विद्या पढ़ने का तुम्हारा लाभ यह होगा कि तुम स्वावलम्बी बन जाओगी। तुम्हारी पराधीनता दूर हो जाएगी। तुमको किसी का मुंह नहीं जोहना पड़ेगा,… विद्या पढ़कर तुम सच्ची भारतीय बनो। …भारत की राष्ट्रीयता बचाने का दायित्व तुम्हारे ही ऊपर है।’ ( शिवपूजन सहाय रचनावली- पृ.373)
इस तरह नारी चेतना को बल मिला। महिला उत्थान, समान अधिकार, स्त्री शिक्षा, बाल विवाह की समस्या, पर्दा प्रथा जैसी समस्याएं उठाई गईं। विस्तृत फलक पर स्त्री चिंताएं उभरकर आईं।
सामूहिक विकास के लिए स्त्री स्वातंत्र्य जरूरी
इस परिप्रेक्ष्य में महादेवी वर्मा ने स्वानुभूति की अनुगूंज से निकले विचारोत्तेजक लेखों की शृंखला ‘चांद’ पत्रिका के संपादकीय के रूप में प्रस्तुत की जो बाद में 1942 के आसपास ‘शृंखला की कड़ियां’ के नाम से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने स्त्री की दृष्टि से नहीं वरन् सामूहिक विकास की दृष्टि से स्त्री स्वातंत्र्य को जरूरी मानते हुए उन मूल्यों और मानदंडों को चुनौती दी जो स्त्री की अस्मिता और उसके नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं। इस पुस्तक में उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों और विषयों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में उठाया एवं स्त्रियों को विचारशील, स्वतंत्र और एक संपूर्ण इकाई के रूप में स्थापित करने के लिए एक वैचारिक अभियान चलाया। स्त्री की पहचान, उसके उत्पीड़न और उसके सबलीकरण के प्रश्नों को केन्द्र में रखकर सामाजिक रवैये को बदलने की कोशिश की। स्त्री के सम्पूर्ण विकास के लिए , उसकी अस्मिता की पहचान के लिए नई भूमिकाओं में उसे संस्कारित करने के लिए एक आधार तैयार किया।
महादेवी ने स्पष्ट कहा- ‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना स्थान, अपना स्वत्व चाहिए।‘
वैचारिक जागरूकता और सम्पन्नता का परिचय देने वाली उनकी कलम ने ‘जन्म से अभिशप्त’ और ‘जीवन से संतप्त’ नारी के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। महादेवी को इस बात का अहसास था कि जाग्रत स्त्रियों में ही विद्रोह की संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। अत: उन्होंने स्त्रियों के अस्मिता बोध को जगाने की कोशिश की -‘वे केवल तभी तक आदरहीन मातृत्व और अधिकारशून्य पत्नीत्व स्वीकार करती रह सकेंगी जब तक उन्हें अपनी शक्तियों का बोध नहीं होता। बोध होने पर वह बंदिनी बनाने वाली शृंखलाओं को स्वयं तोड़ फेंकेंगी।’ ( महादेवी साहित्य समग्र- 302)
महादेवी वर्मा ने स्त्री की गुलामी की असंख्य जंजीरों को तोड़ने का जोखिम उठाते हुए लिखा-‘लौह शृंखलाएं उनकी गरिमा से गलकर मोम बन जाएं।’ अक्सर कुछ स्त्रीवादी महिलाएं यह कहती पाई जाती हैं कि महादेवी ने विवाह संस्था को खारिज किया। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्होंने विवाह संस्था को खारिज नहीं किया बल्कि अधिकार शून्य पत्नीत्व और आदरहीन मातृत्व का विरोध किया। वे अपनी शक्ति और व्यक्तित्व की गरिमा से लौह शृंखलाओं को गला देने की बात कहती हैं।
महादेवी वर्मा और सुभद्र्रा कुमारी चौहान ने स्त्रीवादी सैद्धांतिकी नहीं रची, उनका स्वयं का जीवन ही स्त्रियों के लिए संदेश बना। लेकिन अफसोस, भारत की तथाकथित आधुनिक स्त्रियां सिमोन द बोउवार की ‘द सेकेंड सेक्स’ से प्रभावित हुर्इं। नारी चेतना के भारतीय संदर्भों से दूरी बनाकर पश्चिमी आबोहवा में जन्मे और पनपे स्त्रीवाद के मुहावरों में अस्मिता की तलाश का उपक्रम चलाया जा रहा है। इधर एक तरह का ‘रेडिकल फैमिनिज्म’ भारत की जमीन पर नारीवादियों के लिए बौद्धिक खुराक बना हुआ है।
पश्चिमी स्त्रीवाद से प्रभावित
स्वातंत्र्योत्तर लेखिकाओं ने ‘अस्मिता के प्रति विश्वास और उससे उपजे चैतन्य’ को अपने लेखन की आंतरिक ऊर्जा बनाकर अनुभव की सघनता और संशलिष्टता के साथ स्त्री की स्वतंत्रता का बुनियादी ढांचा खड़ा किया लेकिन यह ढांचा चरमरा गया है। निजता के खोल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता उपभोग की स्वतंत्रता का दर्शन प्रस्तुत करने लगी हैं। स्त्रियां पश्चिम से आयातित स्त्रीवादी सिद्धांतों के आकर्षण में उन्मुक्त स्त्रीवाद का बीज मंत्र लेकर प्रतिशोध में उतर पड़ी हैं। आज पश्चिम के स्त्रीवादी मुहावरों से प्रेरित भारतीय महिलाओं के नवाचार में क्रोध, यौनिकता का आनंद या उत्सव स्त्री की अस्मिता का विधान रचनेवाले शब्द हैं। मै हूं, मेरी भी पहचान है की जगह अब वहां जो राग बजता हुआ दिखायी दे रहा है, वह है 'मैं ही हूं'। उनके देहराग के अपने तर्क हैं।
उनका अपना देह विमर्श है – देह उनकी है, उसका उपयोग करने के लिए वे स्वतंत्र हैं। उनकी मर्ज़ी, ‘इट्स माई च्वाइस, इट्स माई लाइफ’ उनका तकिया कलाम है। विश्वव्यापी संचार तंत्र के रथ पर आरूढ़ होकर स्वतंत्रता की सवारी करने वाली ये लड़कियां नहीं जानतीं कि इस रथ का नियंत्रण किसी और के हाथ में है। इसका ताजा उदाहरण है हाल के वर्षों में दीपिका पादुकोण का ‘मेरी मर्ज़ी’ वीडियो, जो खूब वायरल हुआ था। दीपिका पादुकोण का स्त्री मुक्ति का शंखनाद करता हुआ यह वीडियो विवादास्पद रहा। नारीवादियों में अच्छा-खासा लोकप्रिय भी हुआ। बाद में बात निकलकर आई माय चॉयस वीडियो की पटकथा संरचना और उसकी निर्मिति में महिलाओं का कोई हाथ नहीं था। यह वस्तुत: विज्ञापन की दुनिया की विख्यात हस्तियों की प्रस्तुति थी। यह दरअसल सौंदर्य प्रसाधनों के उपभोक्ताओं को पैदा करने के लिए विज्ञापन और मनोरंजन जगत की सांठगांठ का परिणाम थी।
पश्चिमी स्त्रीवाद से प्रभावित ये स्त्रियां समाज में प्रेम चाहती हैं, स्वतंत्रता चाहती हैं लेकिन बिना किसी जवाबदेही और जिम्मेदारी के। परिवार को ‘गैस चैम्बर’ मान बैठी हैं। परिवार को लैंगिक श्रम विभाजन का केंद्र मानकर स्त्री के दोयम दर्जे के लिए उत्तरदायी मान बैठी हैं। मातृत्व को बोझ समझ बैठी हैं, जिसका प्रतिक्रियात्मक प्रस्फुटन है-विरोध, विद्रोह, क्रोध, आवेश और आक्रोश। इनसे फसल कैसी तैयार होगी? फसल तैयार करने में खाद-पानी किस तरह दिया जा रहा है, यह भी देखना होगा। पुरुष या स्त्री, किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता में स्वविवेक की पहचान बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह विवेक ही है जो अपनी परिस्थितियों, अपनी क्षमताओं, अपनी योग्यताओं और आवश्यकताओं के आलोक में आत्मसंपन्नता और दायित्वबोध के साथ स्वतंत्रता की परिकल्पना को सही आकार देता है। विवेकहीन स्वतंत्रता में अराजकता की संभावना बनी रहती है। ऐसी स्वतंत्रता आतंक भी बन सकती है। स्त्री की बिना जबावदेही वाली स्वतंत्रता की मांग पर हमें इस तथ्य से परिचित होना चाहिए कि स्त्री ही नहीं, कोई भी मनुष्य पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। इस दुनिया में सक्रिय परमाणु नहीं बल्कि केवल निष्क्रिय परमाणु ही पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। उसे किसी की आवश्यकता नहीं पूरी करनी। ब्रह्मांड, सृष्टि, मानव समाज, प्रकृति, पशु-पक्षी कोई स्वतंत्र नहीं है। एक-दूसरे के बिना उनका अस्तित्व संभव नहीं है। स्वतंत्रता की परिकल्पना सामाजिक संबंधों के ताने-बाने में ही समझी जा सकती है।
यौन क्रांति स्त्री आंदोलन का केन्द्रीय मुद्दा नहीं
बैटी फ्रÞीडन की 1963 में प्रकाशित ‘दि फैमीनि मिस्टीक’, जर्मेन ग्रीयर की पुस्तक ‘फीमेल यूनिकस’ (1970) ने बाद में लिखी अपनी पुस्तकों में अपनी मान्यताओं में बदलाव किया। भारत की रेडिकल स्त्रीवादियों को बैटी फ्रÞीडन की ‘बियॉन्ड जेंडर’ और जर्मेन की ‘द होल वुमन’ भी पढ़नी चाहिए। जहां पहले स्थापित मान्यताओं के स्थान पर परिवार और कैरियर के बीच संतुलन की बात कही गई है, परिवार और शिशु की कामना का स्वर भी उभरा।
बैटी फ्रीडन ने कुछ सवाल उठाए और उस पर विचार करने के लिए प्रेरित किया – ‘क्या नारी अपने लैंगिक अस्तित्व को नकार सकती है? क्या वह पुरुष से पूर्णत: मुक्त हो सकती है। क्या संतान से मुक्ति या परिवार की परिधि लांघकर जीवन जीने की पद्धति उसे मुक्त कर सकती है?’ अन्तत: बियॉन्ड जेंडर तक पहुंचकर बैटी ने स्वीकार किया कि यौन क्रांति, यौन राजनीति, नारी मुक्ति आंदोलन का केन्द्रीय मुद्दा नहीं हो सकती। इसे आप केन्द्रीय मुद्दा बनाते हैं तो आंदोलन की मूल भावना को हानि पहुंचती है। नारी आंदोलन की शक्ति कम होती है।
पश्चिमी देशों में किस तरह स्त्रीवाद की जमीन खिसक रही है, यह देखना हो तो मैरी कासियान और फिलिस शलेफली को पढ़ना चाहिए। अपनी पुस्तक ‘द पावर आफ पॉजिटिव वुमन’ में शलेफली कहती हैं, ‘सकारात्मक महिला कभी भी बंद रास्ते की यात्रा नहीं करेगी। सकारात्मक नारी के लिए यह स्वत: ही स्पष्ट है कि नारी शरीर… पुरुषों की साजिश से नहीं बल्कि मानव जाति के दैवीय वास्तुकार द्वारा डिजाइन किया गया था। जो लोग सोचते हैं कि यह अनुचित है कि महिलाओं के बच्चे होते हैं, जबकि पुरुष नहीं कर सकते, उन्हें अपनी शिकायत भगवान से करनी होगी क्योंकि कोई अन्य शक्ति उस मौलिक तथ्य को बदलने में सक्षम नहीं है।’
मैरी कासियन ने ‘द फेमिनिस्ट मिस्टेक’ में बताया है कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया एक नारीवादी आंदोलन, जल्द ही अविश्वसनीय रूप से विनाशकारी शक्ति के आंदोलन में बदल गया। कैसियन ने निष्कर्ष निकाला है कि नारीवाद बुरी तरह से विफल हो गया है, और विडंबना यह है कि इसने जिस समस्या को हल करने के लिए चुना है, उसे और बढ़ा दिया है। महिलाओं के लिए एक स्वस्थ आत्म-पहचान को बढ़ावा देने या लिंगों के बीच अधिक सामंजस्य में योगदान देने के बजाय, इसके परिणामस्वरूप लिंग संबंधी भ्रम बढ़ गया है, संघर्ष बढ़ गया है, और नैतिकता और परिवार का गहरा विनाश हुआ है’।
सृष्टि को नया करने और जिदगी को स्वाधीन बनाने का संकल्प हमारी भारतीय परिकल्पना में अवस्थित है। नएपन की स्वाभाविक प्रक्रिया और नएपन की संभावना ही सृष्टि का मूल है लेकिन उस नएपन का स्वागत हो, जिसमें संगति का संकल्प हो। लड़कियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का अभिप्राय सहअस्तित्व, समन्वय और सामंजस्य की भूमिका का नकार नहीं होना चाहिए। सहअस्तित्व, समन्वय और सामंजस्य की भूमि पर स्त्री स्वत्व के संरक्षण की पुख़्ता भूमि अर्जित की जा सकती है, इस विश्वास को बढ़ाने की जरूरत है। सही दृष्टि लिये उन्नत भारत, श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को सुदृढ़ करने में स्त्री शक्ति अपनी पहचान बना सके, हमारी बालिकाएं स्वाभिमान की डगर पर राष्ट्र का स्वाभिमान बनकर उभरें, यह कामना हम सबकी होनी चाहिए।
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