संगीता भटनागर
पत्नी की मर्जी के बगैर उसके साथ जबरन यौन संबंध बनाने को बलात्कार से जुड़े अपराध की श्रेणी में रखने का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। देश का सर्वोच्च न्यायालय कम से कम दो बार इस सवाल पर विचार करने से इनकार कर चुका है लेकिन अब इस संवेदनशील विषय पर दिल्ली और गुजरात उच्च न्यायालय विचार कर रहे हैं।
दोनों उच्च न्यायालयों में बलात्कार के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद-दो की संवैधानिक वैधता और इसका औचित्य न्यायिक समीक्षा के दायरे में है।
हां! इतना जरूर है कि बाल विवाह की समस्या से जुड़े एक प्रकरण में शीर्ष अदालत ने अक्तूबर, 2017 में अपनी व्यवस्था में कहा था कि 18 साल से कम आयु की स्त्री, भले ही वह विवाहित क्यों न हो, से यौनाचार बलात्कार है और ऐसे मामले में धारा 375 में प्रदत्त अपवाद-2 अनावश्यक है।
यह व्यवस्था देने वाली पीठ ने साथ ही स्पष्ट किया था कि उन्होंने वयस्क स्त्री के साथ ‘मैरिटल रेप’ के सवाल पर विस्तार से विचार नहीं किया है क्योंकि यह उनके समक्ष विचारार्थ नहीं था।
हमारे कानून के तहत वैवाहिक जीवन में पत्नी की मर्जी के बगैर उसके साथ जबरन दैहिक संबंध स्थापित करना अपराध नहीं है लेकिन कुछ न्यायिक व्यवस्था में पति के ऐसे कृत्य को मानसिक क्रूरता मानते हुए उसे तलाक का आधार माना गया है।
हम यह मान सकते हैं कि इन व्यवस्थाओं ने महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए संघर्षरत प्रगतिशील संगठनों की इस प्रतिबद्धता को बल प्रदान किया है कि पति को ऐसे कृत्य के लिए संरक्षण प्रदान करने वाला भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद-2 खत्म किया जाए। गैरसरकारी संगठन आरआईटी फाउंडेशन, आॅल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस एसोसिएशन और अन्य ने धारा 375 के अपवाद-दो को असंवैधानिक घोषित कर इसे निरस्त कराने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है जबकि गुजरात उच्च न्यायालय में जयदीप भानुशंकर वर्मा की याचिका पर नोटिस जारी हुआ है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या धारा 375 का अपवाद-2 मनमाना और असंवैधानिक है और क्या पत्नी से जबरन यौनाचार जैसा कृत्य स्त्री के यौन स्वायत्तता के मौलिक अधिकार को उसके पति की मर्जी के अधीन बनाता है। क्या इस अपवाद से स्त्री को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन होता है?
पुरुषों के एक संगठन ‘मेन वेलफेयर ट्रस्ट’ के अध्यक्ष अमित लखानी धारा 375 के अपवाद-दो को खत्म कराने के किसी भी प्रयास का विरोध करते हैं। उन्होंने इस मामले में हस्तक्षेप की अनुमति मांगी थी जो दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रदान कर दी है।
पुरुषों के इस संगठन का तर्क है कि कानून की किताब में बहुत सोच-विचार करके ही यह अपवाद रखा गया है और इसके साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ वैवाहिक संस्थाओं और अनेक वैवाहिक जिंदगियों को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकती है।
यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस अपवाद को समाप्त करने से पति-पत्नी की निजी जिंदगी में तीसरे पक्ष के अनावश्यक दखल देने का अवसर मिलने की आशंका बढ़ जाएगी।
केंद्र का हलफनामा
बहरहाल, इस मामले के तूल पकड़ने पर केन्द्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में हलफनामे दाखिल किए हैं। केंद्र ने पहले हलफनामे में वैवाहिक जीवन में पत्नी से जबरन यौन संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी में रखने से इनकार कर दिया था क्योंकि उसका विचार था कि इससे वैवाहिक संस्था अस्थिर होंगी और पतियों को परेशान करने के लिए एक हथियार के रूप में इसका इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन, अब केन्द्र ने इस संवेदनशील विषय पर एक नया हलफनामा दाखिल किया है जिसके अनुसार आपराधिक कानून में विस्तृत संशोधन करने पर विचार किया जा रहा है और इसमें बलात्कार के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में संशोधन भी शामिल है।
सरकार वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को अपराध की श्रेणी में रखने के बारे में रचनात्मक रुख अपनाने पर विचार कर रही है। लेकिन उसने यह स्प्ष्ट नहीं किया है कि क्या पत्नी की मर्जी के बगैर उसके साथ यौनाचार को भी अब बलात्कार की श्रेणी में शामिल किया जाएगा या नहीं।
केंद्र का कहना है कि इस विषय पर प्रधान न्यायाधीश, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अन्य हितधारकों से सुझाव मांगे गए हैं। गृह मंत्रालय के अधिकारी द्वारा दाखिल इस हलफनामे में केंद्र ने कहा है कि वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को सिर्फ इन याचिकाकर्ताओं के कहने पर ही निरस्त नहीं किया जा सकता क्योंकि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के तहत इस पर सभी हितधारकों के पक्षों को व्यापक रूप से सुनना
जरूरी है।
केन्द्र सरकार की इस दलील पर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की पीठ ने कहा कि इस पूरी कवायद में तो बहुत अधिक समय लगेगा। पीठ ने केन्द्र से यह स्पष्ट करने के लिए कहा कि क्या वह इस वैवाहिक बलात्कार के अपवाद पर भी विचार कर रही है। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान पीठ ने यह टिप्पणी भी की कि दुनिया के अनेक देशों की न्यायिक व्यवस्थाओं में कहा गया है कि आप विवाहित हैं तो यह कहना पर्याप्त नहीं है कि यह (बलात्कार) अपराध नहीं है। वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने के सवाल पर पीठ ने कहा कि क्या दुनिया के 50 देश गलत हैं।
पुरुषों का पक्ष
इस संबंध में ‘मेन वेलफेयर ट्रस्ट’ के अध्यक्ष अमित लखानी कहते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में दाम्पत्य जीवन में यौन हिंसा, यौन हमला या गैर कानूनी सेक्स जैसे अपराध हैं। लेकिन जब पति-पत्नी के बीच अपराध का मुद्दा होता है तो वे ‘बलात्कार’ शब्द का उपयोग नहीं करते।
अमित लखानी इस संबंध में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों का भी जिक्र करते हैं और कहते हैं कि इस सर्वे में स्त्री-पुरुष, दोनों से एक ही तरह के सवाल पूछे गए। स्त्रियों से पूछा गया कि क्या आपके पति ने आप पर हाथ उठाया तो पुरुषों से पूछा गया कि क्या आपने अपनी पत्नी पर कभी हाथ उठाया?
वे कहते हैं जबकि सर्वे में पुरुषों से यह भी पूछा जाना चाहिए था कि क्या आपकी पत्नी ने कभी आप पर हाथ उठाया? अगर ऐसा पूछा गया होता तो आंकड़े शायद कुछ अलग तस्वीर पेश कर रहे होते। वे आगे कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे अपराध हकीकत हैं और पति-पत्नी दोनों ही इनका सामना करते हैं। भारत में पत्नी को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए, धारा 377 और धारा 376 बी में संरक्षण प्राप्त है। इसके अलावा महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून भी है जिसके तहत वे दीवानी और आपराधिक कार्रवाई के जरिए राहत प्राप्त कर सकती हैं।
दिल्ली में पक्षधर वकीलों के तर्क
दिल्ली उच्च न्यायालय में इस मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभा रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राजशेखर राव का तर्क है कि धारा 375 की बुनियाद ही सहमति के बगैर सहवास पर आधारित है और ऐसी स्थिति में विवाहित महिला के साथ उसकी सहमति के बगैर सहवास के खिलाफ उसे कम संरक्षण प्रदान करने की कोई वजह नजर नहीं आती। उनका यही कहना है कि यह अपवाद मनमाना और पुरातन मानसिकता का परिचायक है और यह महिलाओं के समता और गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन करता है। एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन भी इस अपवाद को समाप्त करने की वकालत कर रही हैं और उन्होंने उच्च न्यायालय में दलील दी है कि यह प्रावधान महिलाओं के शोषण का हथियार है। जॉन ने कहा कि यद्यपि पत्नी के खिलाफ अपराध के मामले में सजा देने के लिए भादंसं की धारा 498ए, 304बी, 306, 377, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण कानून, प्रसव पूर्व भ्रूण लिंग निर्धारण निषेध कानून, और साक्ष्य कानून है लेकिन ये भिन्न-भिन्न अपराधों के बारे में है।
एक अवसर पर जब न्यायाधीशों ने वैवाहिक बलात्कार के अपराध के लिए सजा के बारे में सवाल किया तो उन्होंने कहा कि इस संबंध में सजा की नीति होनी चाहिए।
जॉन कहती हैं कि इस अपवाद को चुनौती देने का मतलब वैवाहिक रिश्तों वाले मामलों से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को सजा दिलाना नहीं है लेकिन यह उन मामलों में ही बलात्कार के अपराध के आरोप में कार्रवाई चाहती है जिनमें पत्नी के एक बार ‘नहीं’ कहने का सम्मान नहीं किया जाता। उनका तर्क है कि यह कोई नया अपराध नहीं है लेकिन पत्नी के साथ जबरन यौनाचार के मामले में पतियों को कानूनी कार्रवाई से मिली कानूनी छूट को समाप्त कराना है ताकि स्त्री को अपने शरीर की गरिमा की रक्षा का अधिकार मिल सके।
पत्नी के ‘नहीं’ कहने के बावजूद उसके साथ यौनाचार को अपराध मानने की दलील देते हुए यौनकर्मियों का उदाहरण दिया गया है। दलील दी गई है कि हमारे देश का बलात्कार संबंधी कानून यौन कर्मियों से भी जबरन यौनाचार या सहवास को अपवाद नहीं मानता और उसे भी यौनाचार के लिए सहमति देने से इनकार का अधिकार प्राप्त है। ऐसी स्थिति में वैवाहिक जीवन में पत्नी को यौनाचार के लिए सहमति देने से इनकार करने के अधिकार से कैसे वंचित किया जा सकता है या उसके साथ जबरन यौनाचार को अपवाद की श्रेणी में रखना किस तरह से उचित है।
दिलचस्प तथ्य यह है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्त्री की गरिमा की रक्षा के संदर्भ में यौनकर्मियों को जबरन यौनाचार से प्राप्त संरक्षण के उदाहरण से कुछ प्रभावित नजर आए और उन्होंने टिप्पणी की कि बलात्कार संबंधी कानून में यौनकर्मियों को प्राप्त संरक्षण के आलोक में वैवाहिक बलात्कार के अपवाद पर विचार किया जा सकता है।
गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश
गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पादीर्वाला और न्यायमूर्ति नीरल आर. मेहता की खंडपीठ ने भी इस विषय पर दायर जनहित याचिका पर अटॉर्नी जनरल और केंद्र को नोटिस जारी करते हुए 53 पन्ने का आदेश दिया है। इसमें पीठ ने विभिन्न परिस्थितियों, व्यवस्थाओं और विचारों को विस्तार से समाहित किया है।
इसमें कहा गया है कि न्यायालय इस तथ्य से भली-भांति अवगत है कि कोई कानून बनाना विधायिका का नीतिगत फैसला होता है। इस विषय के संदर्भ में संसद की यही राय थी कि विभिन्न परिस्थितियों से निपटने के लिए कानून में अलग तरीके के प्रावधान की आवश्यकता होगी। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि क्या न्यायालय के पास संसद को कानून में संशोधन करने का निर्देश देने का अधिकार है तो इसका जवाब नकारात्मक ही होगा क्योंकि विधायिका के नीतिगत फैसले में न्यायालय को हल्के तरीके से भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
लेकिन न्यायालय यह भी महसूस करता है कि यही समय है कि न्यायालय इस सवाल पर विचार करने के लिए अपने रिट अधिकार का इस्तेमाल करें कि क्या धारा 375 अपवाद-2 को स्पष्ट रूप से मनमाना घोषित किया जा सकता है क्योंकि यह एक महिला के यौन स्वायत्तता के मौलिक अधिकार को उसके पति की मनमर्जी के अधीन बनाता है।
बहरहाल, इस संवेदनशील विषय पर प्रगतिशील वर्ग का नजरिया भिन्न हो सकता है लेकिन इसका तर्कसंगत और सुविचारित समाधान जरूरी है। देखना होगा कि इस पर दोनों उच्च न्यायालय क्या रुख अपनाते हैं। वैसे भी उच्च न्यायालयों की व्यवस्था के बाद अंतिम निर्णय के लिए यह उच्चतम न्यायालय पहुंचेगा। अब अगर सरकार कह रही है कि इससे संबंधित आपराधिक कानून पर गहन विचार और रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। संभव है कि इस रचनात्मक दृष्टिकोण और विचार से इसका कोई सर्वमान्य समाधान निकल आए।
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