मनोज वर्मा
देश के स्कूलों में क्या मदरसा पद्धति को लागू करने की कोशिश की जा रही है? क्या एक खास एजेंडे के तहत स्कूलों में इस्लामीकरण के षड्यंत्र पर काम चल रहा है? असल में कर्नाटक से शुरू हुए हिजाब विवाद के बाद इस तरह के कई संकेत—सवाल सामने आने लगे हैं। कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुई हिजाब पहनने की जिद ने नफरती एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए दूसरे राज्यों के स्कूलों को भी अपनी चपेट में ले लिया। मजहबी कट्टरवाद की यह आग देश के कई स्कूलों और कॉलेजों में पहुंच चुकी है। मुस्लिम छात्राओं की ओर से हिजाब पहन कर कक्षाओं में प्रवेश करने की ‘मांग’ की जा रही है। कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में योजनाबद्ध तरीके से प्रदर्शन करवाए जा रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि इन विरोध प्रदर्शनों का स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि इस्लामिक संस्थाओं और मुस्लिम नेताओं की ओर से अलग-अलग राज्यों में स्थानीय स्तर पर बड़े प्रदर्शनों का आयोजन किया जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि हिजाब विवाद में भी पॉपुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) का नाम उभर कर सामने आ रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे कुछ समय पहले देश भर में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी हिंसक प्रदर्शनों और फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में उभरा था। पीएफआई पर मजहबी कट्टरवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए हिजाब विवाद के बीच देश में एक बार फिर से यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग पर बहस तेज हो गई है। सवाल उठ रहा है कि देश संविधान से चलेगा या मजहबी हेकड़ी से? आखिर क्यों हर बार मजहब को आगे कर देश के संविधान—कानून और एकता-अखंडता को चुनौती देने की कोशिश की जाती है? जिसका परिणाम दिल्ली जैसे दंगे होते हैं। सीएए के हिंसक विरोध के बीच फरवरी 2020 में शहर में हुए दंगे को न तो दिल्ली भूली है और न ही देश। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सुनवाई के दौरान इस तथ्य को माना कि दिल्ली दंगों के पीछे सुनियोजित साजिश थी।
अनौपचारिक रूप से भारत में एक लाख से ज्यादा मदरसे हैं, जहां मुस्लिम छात्रों को पढ़ाई के बीच नमाज पढ़ने का अधिकार है। मुस्लिम छात्राएं हिजाब और बुर्का पहन कर मदरसों में पढ़ सकती हैं। मजहबी कट्टरपंथी अब मदरसों वाले इसी मॉडल को उन स्कूलों में भी लागू कराना चाहते है, जो अब तक ऐसे नफरती एजेंडे से कोसों दूर थे।
जिस अंदाज में हिजाब विवाद को तूल दिया जा रहा है, उसके पीछे भी साजिश हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। आखिर क्या साजिश मजहब के नाम पर भारत के संविधान को चुनौती देना है? क्या साजिश देश के कानून को न मानने की मंशा है? क्या साजिश मजहब के नाम पर विभाजनकारी सोच को हवा देना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो नागरिकता संशोधन कानून, दिल्ली दंगों और अब हिजाब विवाद के साथ लगातार उठ रहे हैं। इन्हीं कारणों से देश में एक बार फिर से समान नागरिक संहिता की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। इस पर बहस हो रही है।
कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब से उठाए गए विवाद के बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने तो यह एलान भी कर दिया कि इस बार उत्तराखंड में सत्ता में आने पर भाजपा समान नागरिक संहिता को लागू करेगी। उन्होंने कहा, ‘‘उत्तराखंड सरकार अपने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद, न्यायविदों, सेवानिवृत्त लोगों, समाज के प्रबुद्धजनों और अन्य गणमान्य लोगों की एक कमेटी गठित करेगी, जो उत्तराखंड राज्य के लिए समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करेगी। इसके दायरे में विवाह, तलाक, जमीन-जायदाद और उत्तराधिकार जैसे विषय आएंगे और सभी नागरिकों के लिए कानून समान होगा, चाहे वे किसी भी मजहब-मत में विश्वास रखते हों। यह समान नागरिक संहिता संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगे। समान नागरिक संहिता से संविधान की भावनाओं को साकार रूप मिलेगा। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद-44 की दिशा में भी एक प्रभावी कदम होगा। इससे सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर न केवल इसे लागू करने पर जोर दिया है, बल्कि कई बार इस दिशा में कदम न उठाने को लेकर अपनी नाराजगी भी व्यक्त की है।
दरअसल, संविधान में पांथिक आजादी का मौलिक अधिकार दिया गया है, लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था की शर्त भी जोड़ी गई है। अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता का भी उल्लेख है और नीति निर्देशक सिद्धांतों में उसकी व्यवस्था दी गई है, लेकिन उसके साथ कई शर्तें भी रखी गई हैं। अनौपचारिक रूप से भारत में एक लाख से ज्यादा मदरसे हैं, जहां मुस्लिम छात्रों को पढ़ाई के बीच नमाज पढ़ने का अधिकार है। मुस्लिम छात्राएं हिजाब और बुर्का पहन कर मदरसों में पढ़ सकती हैं। लेकिन एक खास विचारधारा के लोग अब मदरसों वाले इसी मॉडल को उन स्कूलों में भी लागू कराना चाहते हैं, जो अब तक मजहबी कट्टरवाद से बचे हुए थे।
यहां इस बात को समझना जरूरी है कि भारत में किसी मुस्लिम महिला और छात्रा को हिजाब पहनने से नहीं रोका गया है, बल्कि यह मामला तो केवल स्कूलों में सभी छात्रों द्वारा एक जैसी यूनिफॉर्म पहनने का है। लेकिन इस विवाद को हिजाब तक सीमित कर दिया गया है। क्या स्कूल में बुर्का पहनना और ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाना बहादुरी है? या ऐसे कृत्य के पीछे कोई और मंशा है? सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि हिजाब विवाद के बीच कर्नाटक के मांड्या जिले में स्थित एक निजी कॉलेज की मुस्लिम छात्रा ने ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाए थे। तब से वह मुस्लिम छात्रा मजहब के ठेकेदारों के लिए ‘प्रेरणा’ बन गई है। इस मुस्लिम छात्रा का नाम है मुस्कान और इस छात्रा के इस कृत्य के लिए कई संस्थाओं और मुस्लिम नेताओं ने लगे हाथ नकद इनाम व दूसरे पुरस्कार देने का एलान कर दिया। इस मजहबी नारेबाजी पर पाकिस्तान के नेता भी खुश हुए। सेकुलर, लिबरल और वामपंथी छात्रा की हिम्मत की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं।
हिजाब के पक्ष-विपक्ष में खूब सारे तर्क-वितर्क दिए जा रहे हैं, लेकिन क्या हिजाब को लेकर सीएए जैसा बड़ा आंदोलन खड़ा करने की तैयारी हो रही है? दरअसल, जो लोग यह तैयारी कर रहे हैं, वे इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया से जुड़े हैं। विवाद कर्नाटक का है, लेकिन पीएफआई ने राजस्थान के कोटा में बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया। इसे नाम दिया- ‘यूनिटी मार्च’। सैकड़ों की संख्या में पीएफआई से जुड़ी महिलाएं भी प्रदर्शन में शामिल हुर्इं। यहां तक कि पीएफआई ने छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में भी झंडे थमा दिए गए। तकरीरें हुर्इं, मार्च भी निकाला गया। नारे लगे। हालांकि पीएफआई खुद को ‘सामाजिक संगठन’ कहता है, लेकिन इसकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। इसी वजह से झारखंड सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाया था। इसके अलावा, दिसंबर 2019 में पीएफआई से जुड़े करीब 25 लोगों को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किया गया था, जब सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई थी। इस पर दिल्ली में दंगे भड़काने का भी आरोप लगा। पीएफआई ने ही देशभर में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन किए और इसके लिए पैसे भी दिए। इन धरना-प्रदर्शनों में भड़काऊ भाषण तो दिए ही गए, प्रदर्शन के दौरान हिंसा भी हुई। इस पर शाहीन बाग में सीएए के खिलाफ कई महीनों तक चले धरना-प्रदर्शन का वित्त पोषण करने का आरोप है। केरल की सरकार भी पीएफआई को संदिग्ध बता चुकी है।
असल में फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के बाद जैसे-जैसे समय बीता, दंगों के पीछे का षड्यंत्र विभिन्न रूपों में उभर कर सामने आया है। सीएए विरोध के बहाने दिल्ली में दंगे कर भारत को दुनिया में बदनाम करने की साजिश रची गई। अर्बन नक्सल और जिहादी तत्वों ने कैसे जनता के नाम पर, मजहब के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सांप्रदायिक विभाजनकारी नीति का प्रयोग कर दिल्ली को दंगों की प्रयोगशाला बना दिया। दिल्ली के दंगों में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अर्बन नक्सल-जिहादी गठजोड़ की परत दर परत दिखाई देती है। मजहब के नाम पर उस नफरत और हिंसा की झलक दिखाती है, जो दो समुदायों के बीच भड़की और जिसने दशकों से चले आ रहे आपसी भाईचारे और सौहार्द को जलाकर राख कर दिया। दिल्ली दंगों ने देश के नागरिकों को यह भी दिखा दिया कि कैसे उनकी आंतरिक सुरक्षा को कट्टरपंथी विचारधाराओं द्वारा रोज चुनौती दी जा रही है। कैसे ये कट्टर विचारधाराएं सुरक्षा के लिए खतरा बन गई हैं।
दंगे किसी भी समाज के लिए संयोग नहीं होते और न ही प्रयोग का जरिया बनने चाहिए। लेकिन नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर हुए विरोध और उसी दौरान दिल्ली में हुए दंगों ने कई सवाल खड़े कर दिए थे। पहला सवाल तो यही था कि क्या दिल्ली के दंगे, हिंसक प्रदर्शन, पुलिसकर्मियों पर हमले, देश की संसद और न्यायपालिका के खिलाफ अभद्र भाषा और इससे भी आगे देश की एकता-अखंडता को चुनौती देने वाले नारे—तकरीरें संयोग नहीं प्रयोग थे? सीएए के विरोध के नाम पर जब दिल्ली को हिंसक प्रदर्शनों की प्रयोगशाला बनाया गया तो उस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वी दिल्ली के सीबीडी मैदान में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए जो कहा था, वह सच साबित हुआ। इस रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘‘सीलमपुर, जामिया या शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन सिर्फ संयोग नहीं, प्रयोग है। इसके पीछे राजनीति का एक ऐसा डिजाइन है जो राष्ट्र के सौहार्द को खंडित करने का इरादा रखता है। अगर यह सिर्फ कानून का विरोध होता तो सरकार के आश्वसान के बाद खत्म हो जाना चाहिए था। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस राजनीति का खेल खेल रहे हैं। संविधान और तिरंगे को सामने रखकर ज्ञान बांटा जा रहा है और असली साजिश से ध्यान हटाया जा रहा है। प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा पर न्यायपालिका ने अपनी नाराजगी जताई, लेकिन हिंसा करने वाले लोग अदालतों की परवाह नहीं करते, लेकिन बातें करते हैं संविधान की…।’’
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कहा गया एक-एक शब्द सच साबित हुआ। जनवरी—फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा और दंगे संयोग नहीं, बल्कि प्रयोग थे। कारण, मुद्दा तो बदला, पर विरोध का तरीका नहीं बदला। आंदोलनजीवी किसी न किसी रूप में आंदोलन के नाम पर देश में अराजकता का वातावरण बनाने में लगे हुए हैं। सीएए के कथित विरोध प्रदर्शन के नाम पर जो प्रयोग किया गया, वह अब हिजाब विवाद की आड़ में भारत विरोध की अंतरराष्ट्रीय साजिश के रूप में भी उभरता हुआ नजर आ रहा है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के नाम पर देश के मुस्लिम समाज को गुमराह कर हिंसा के लिए उकसाया गया था, अब हिजाब के जरिए उकसाया जा रहा है यानी मजहबी उन्माद और सांप्रदायिकता को जरिया बनाया जा रहा है। आंदोलन के नाम पर विरोध प्रदर्शनों का जो तरीका दिल्ली दंगों के समय अपनाया गया, उसके रंग-रूप में अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा दिखा था। हिजाब विवाद पर पाकिस्तान की बयानबाजी इसका संकेत है। वैश्विक स्तर पर ताकत से उभरते भारत की छवि को कैसे बदनाम किया जाए?
आपको यह भी याद होगा, जब नए नागरिकता कानून को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, तब उसमें एक मजहब विशेष के लोगों को जोड़ा गया था और उन्हें यह कहकर डराया गया था कि उनकी नागरिकता चली जाएगी। यह वही फार्मूला है, जिसका इस्तेमाल वामपंथी और देश विरोधी ताकतें आज से नहीं, बल्कि देश की आजादी के बाद से ही करती आ रही हैं। जेएनयू का टुकड़े-टुकड़े आंदोलन, शाहीन बाग का सीएए-विरोधी आंदोलन जो दिल्ली दंगों का कारण बना, अब हिजाब पर विवाद सामाजिक स्तर पर टकराव का कारण बन रहा है। साथ ही, इन सभी कथित आंदोलनों में मजहब के नाम पर संवैधानिक शासन व्यवस्था और मर्यादाओं का विरोध एक समान कारक के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने दिल्ली दंगों पर 'एनाटोमी आफ ए प्लांड रायट' पुस्तक लिखी है)
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