डॉ. अजय तिवारी की फेसबुक वॉल से
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि बीस साल में अमेरिका ने अफगानिस्तान में एक ट्रिलियन डॉलर (10 खरब डॉलर) लगाया। यह नहीं बताया कि किस मद में लगाया। अधिकतर पैसा हथियारों पर लगाया।
1989 में रूसी सेना की वापसी के बाद से अफगानिस्तान लगातार युद्ध की स्थिति में रहा है। नतीजा यह है कि चार करोड़ की आबादी में एक करोड़ लोग घायल, असहाय और मोहताज हैं। अमेरिका की दखलंदाजी के बाद मुजाहिदीन पृष्ठभूमि में गए, तालिबान अपने मदरसों और पंचायतों से निकलकर राजनीति में आए। मुजाहिदीन बर्बर हैं। तालिबान भी इस्लामी कट्टरपंथी हैं। कुछ लोग इन कट्टरपंथियों से इस्लाम को अलग बताने की कोशिश कर रहे हैं। उनसे भी कुछ सवाल हैं-
जो मुसलमान अपने मजहब से मुजाहिदीन/तालिबान को अलग बता रहे हैं, वे विचार करें कि जिस तरह भारतीय समाज का एक वर्ग वेदों तक की आलोचना करता है, धर्मशास्त्रों का खंडन-मंडन करता है और मनुस्मृति की प्रतियां जलाता है, क्या वैसा कुछ, बिना तालिबान के भी, कुरान या हदीस के साथ किया जा सकता है?
इसका जवाब हमें नहीं चाहिए। आप स्वयं अपने आप को दें। इसी जवाब से मालूम हो जाएगा कि इस्लाम भले तालिबान न हो, लेकिन तालिबान इस्लाम में ही हो सकते हैं।
हम यह मानते हैं कि मध्य एशिया के तेल के लिए अमेरिकी दखलंदाजी के बाद सातवें दशक से कट्टरपंथी इस्लाम का चेहरा उभरा। लेकिन ऐसा कट्टरपन उसी दौरान लैटिन अमेरिका में नहीं उभरा। हालांकि वहां भी अमेरिका ने दखलंदाजी की।
इसलिए साम्राज्यवाद द्वारा सामाजिक उत्पीड़न एक बात है और कट्टरपंथी प्रतिक्रिया दूसरी बात, जिसके लिए विचारधारा और विश्वास इस्लाम में मजहब से लिया जाता है। साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ते हुए भारत ने भी कभी वैसी प्रतिक्रिया नहीं की, जबकि बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने वैसा कट्टरपन अपनाया। हालांकि तब साम्राज्यवाद जा चुका था।
अमेरिका की दखलंदाजी एक बात है और उसका विरोध पूरी ताकत से होना चाहिए। लेकिन इस्लाम का मजहबी कट्टरपन दूसरी बात है और उससे आम मुसलमानों को ही लड़कर निकलना पड़ेगा।
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