संजीवनी बूटी के लिए जिस पर्वत को हनुमान जी लंका ले गए थे, उस स्थान तक सरकार सड़क पहुंचा रही है। इस स्थान को तीर्थाटन की दृष्टि से विकसित किया जा रहा है। द्रोणागिरी पर्वत तक सीमा सड़क संगठन 6 किमी की सड़क बना रही है। इसके लिए ग्रामीणों की सहमति मिल गई है। सरकार इस सड़क के जरिये धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है।
धुएं से संजीवनी बूटी नष्ट न हो जाए, इसलिए नहीं जलाते शव
जोशीमठ से आगे 55 किलोमीटर सड़क है, वहां से 13 किलोमीटर का पैदल ट्रैक है, जो द्रोणागिरी पर्वत तक जाता है। नीती गांव से तपोवन, जूमा और फिर आगे रुयिंग गांव तक 9 किलोमीटर सड़क ले जाने की सहमति बनी है। इसके आगे करीब 4 किलोमीटर अभी ट्रैक ही रखा जाएगा। द्रोणागिरी पर्वत के नीचे बुग्याल और ग्लेशियर है, जहां बेशकीमती जड़ी बूटियां है। इस इलाके के लोग किसी की मृत्यु हो जाने पर उसे जलाते नहीं, बल्कि दफनाते हैं ताकि धुएं से संजीवनी बूटी नष्ट न हो जाए। 14 हजार फुट ऊंचाई वाले इस क्षेत्र में द्रोणागिरी पर्वत पर पर्वतारोहण की मनाही है। इस पर्वत के पीछे चीन, तिब्बत का क्षेत्र है।
द्रोणागिरी पर्वत की करते हैं पूजा
यहां के लोग बाएं हाथ से द्रोणागिरी पर्वत की पूजा करते हैं। वही यहां के ग्राम देवता हैं। यहां हनुमान की पूजा नहीं होती। स्थानीय लोग हनुमान जी से इसलिए नाराज है कि वो त्रेता युग में उनका पहाड़ उठा कर ले गए, जिसकी वो ग्राम देवता के रूप में पूजा करते थे। रामायण में इस बात का उल्लेख है कि लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर वैद्य सुषेण ने हिमालय से संजीवनी बूटी लाने का अनुरोध किया था। हनुमान जी जब हिमालय में आए तो उन्हें संजीवनी की पहचान नहीं हुई, तब वो पूरा पहाड़ ही उठाकर लंका ले गए, जो अब श्रीलंका में पहाड़ रहुमाशाला कांडा के नाम से जाना जाता है।
द्रोणागिरी पर्वत को देखने के लिए गांव द्वारा स्थापित एक चोटी के प्रांगण तक जाना होता है। यहां से द्रोणागिरी पर्वत का संजीवनी पर्वत का अलग हुआ हिस्सा भी दिखता है। माना जाता है कि यही हिस्सा हनुमान जी लंका ले गए थे। गांव के निवासी उदय सिंह रावत कहते हैं कि धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक विरासत को बचाते हुए एक निश्चित स्थान तक सड़क की अनुमति दी गयी है, यहां से चीन सीमा तक रसद की आपूर्ति भी सेना के लिए की जा सकेगी।
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