अविनाश जायसवाल
क्या गुरु नानक देव का चिन्तन इस्लाम से प्रभावित है? मुगल और अफगानकाल में विदेशियों ने जो इतिहास लिखा, उसमें उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया कि भारत के साधु-संत अरब जगत के दर्शन से प्रभावित होकर सैयदों, फकीरों, सूफियों और कलन्दरों के शिष्य हो गए थे। इसी प्रकार का उल्लेख नानक देव के बारे में मिलता है। ‘सियार-उल-मुताखरीन के अनुसार, नानक सैयद हुसैन के शिष्य बने। (एम़ ए़ करंदीकर, गुरु नानक का जीवन और एक तुलनात्मक अध्ययन, भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक, नानक देव में संकलित, पृष्ठ 36) कुछ विद्वान तो यह भी कहते हैं कि नानक वाणी एक प्रकार से हिन्दू चिन्तन और इस्लामी चिन्तन का संश्लेषण है। मोटे तौर पर इसका कारण इस्लाम के एकेश्वरवाद को माना जाता है।
भारतीय चिन्तन परम्परा के दो विस्तृत आयाम हैं— ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने की परम्परा और ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की परम्परा। उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। तो लोकायत दर्शन मानता है कि मनुष्य का अस्तित्व भौतिक तत्वों में ही सीमित है। चेतना का अस्तित्व शरीर की भौतिक संरचना पर ही आश्रित है। अंग्रेजी में जिसे ‘माइंड एंड मैटर’ कहा जाता है, उसमें ‘मैटर’ की ही महत्ता है, ‘माइंड’ की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह तो निश्चित है कि गुरु नानक देव जी का दर्शन एवं चिन्तन पहली परम्परा में आता है, अर्थात ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला दर्शन। वहीं इस्लाम भी ईश्वर की सत्ता को मान्यता देता है।
इस्लाम में एक ईश्वर की कल्पना पर केवल बल ही नहीं दिया गया बल्कि उसी को स्वीकार किया गया है। गुरु नानक देव भी एक ईश्वर के संकल्प के उद्घोषक हैं। इस मामले में नानक एकेश्वरवादी हैं। इसी एकेश्वरवाद को देख कर कुछ विद्वान यह कल्पना करने लगते हैं कि गुरु नानक का दर्शन इस्लाम से प्रभावित है या फिर उससे निकला है। क्योंकि इस्लाम भी बहुत सख्ती से एकेश्वरवाद को मानता है। यह भी कहा जाता है कि इस्लाम के विपरीत, हिन्दू या भारतीय व्यवहार और दर्शन में बहुदेववाद की अवधारणा विद्यमान है। लेकिन क्या इस्लाम के उदय से पूर्व, जिसका उदय आज से लगभग चौदह सौ साल पहले हुआ था, एकेश्वरवाद की अवधरणा भारत में विद्यमान नहीं थी? भारत में ईश्वर की संकल्पना का मूलाधार एकेश्वरवाद है या बहुदेववाद? भारत की जो परम्पराएं ईश्वर में विश्वास रखती हैं, वे एकेश्वरवादी हैं।
दरअसल दुनिया की कोई भी परम्परा बहु ईश्वरवादी नहीं हो सकती और न ही है। यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो सारे विश्व में एक ही ईश्वर हो सकता है, अनेक ईश्वर नहीं हो सकते। अरबों या तुर्कों का ईश्वर, भारतीयों के ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है? अलबत्ता अलग-अलग भाषाएं होने के कारण, ईश्वर के नाम अलग-अलग देशों की भाषाओं में अलग अलग ही होंगे। शास्त्रों में कहा भी गया है-‘एकम् सद् विप्रा बहुधा: वदन्ति। अर्थात् ईश्वर तो एक ही है लेकिन विद्वान लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को लेकर, भारतीय चिन्तन का यह मूलाधार है। गुरु नानक देव भी एक ईश्वर के सिद्धांत को ही स्वीकारते हैं और उच्च स्वर में उसका उद्घोष भी करते हैं। इसलिए केवल एकेश्वरवाद की अवधारणा के कारण, गुरु नानक देव के चिन्तन पर इस्लाम के प्रभाव को स्वीकारना सही नहीं माना जा सकता।
ईश्वरवादी परम्परा का एक स्वरूप बहुदेववादी परम्परा है। इसका अर्थ है कि मनुष्य एकेश्वरवाद या एक ईश्वर की धारणा में विश्वास तो करता है लेकिन उसकी साधना किसी न किसी देवता के माध्यम से करता है। या फिर किसी देवता को वह ईश्वर का ही प्रतीक मान लेता है। देवता की मूर्तियां भी बनने लगती हैं। इससे मूर्तिपूजा की परम्परा शुरू होती है। लेकिन नानक देव, मूर्ति के आधार पर स्थापित बहुदेववादी परम्परा को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि देवता को परमात्मा का प्रतीक नहीं माना जा सकता।
यही मान्यता इस्लाम की है। वह भी बहुदेववाद का विरोधी है और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता। कुछ चिन्तक इस आधार पर यह स्थापना करते हैं कि नानक देव द्वारा बहुदेववाद का नकार, उनके चिन्तन पर इस्लाम के प्रभाव के कारण ही है। लेकिन बहुदेववाद का विरोध क्या केवल इस्लाम करता है? भारतीय चिन्तन की कुछ परम्पराओं में क्या बहुदेववाद को नकारा नहीं गया है? भारतीय षड्दर्शन परम्परा में बहुदेववाद तो दूर की बात है, कुछ दर्शनों में तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नकारा गया है। भारतीय चिन्तन में विवाद केवल एकेश्वरवाद और बहुदेववाद की अवधारणा के बीच ही नहीं है, बल्कि ईश्वर के अस्तित्व को लेकर भी है। इसलिए यह कहना कि बहुदेववाद का नकार नानक देव ने इस्लामी प्रभाव में आकर ग्रहण किया, दूर की कौड़ी लाना ही कहा जाएगा। लेकिन ईश्वरवादी परम्पराओं में जो असली भेद है, वह ईश्वर के स्वरूप को लेकर और उससे साक्षात्कार की साधना या रास्ते को लेकर है।
भारतीय चिन्तन परम्परा में ईश्वरवादी दर्शन की आगे फिर दो परम्पराएं हैं- साकार परंपरा और निराकार परंपरा। साकार परंपरा इस बात में विश्वास रखती है कि ईश्वर स्वयं अवतार धारण करता है और निराकार परंपरा यह मानती है कि ईश्वर अवतार धारण नहीं करता। लेकिन इस्लाम इस बात को स्वीकारता है कि समय-समय पर ईश्वर संसार को सीधे मार्ग पर लाने के लिए दुनिया में अपने प्रतिनिधि या दूत भेजता है। इन दूतों को अरबी भाषा में नबी या रसूल कहते हैं। हजरत मोहम्मद ऐसे ही दूत या रसूल थे। इस्लाम ईश्वर और भक्त के बीच दूत की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारता है। इसीलिए इस्लाम के ईश्वर का स्वरूप निराकार और साकार के बीच का कहा जा सकता है। क्योंकि इस्लाम एक ईश्वर की अवधरणा को इस शर्त के साथ स्वीकारता है कि रसूल को भी उसके साथ अनिवार्य रूप से स्वीकारना ही होगा।
अल्लाह और उसका रसूल दोनों मिल कर एक इकाई बनते हैं। इस्लाम केवल एकेश्वरवाद को स्वीकार नहीं करता। उसे ईश्वर के साथ रसूल को भी स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई इस्लामपंथी ईश्वर को तो स्वीकार कर ले और रसूल को अस्वीकार कर दे। या फिर रसूल को स्वीकार कर ले और ईश्वर को अस्वीकार कर दे। या तो दोनों को ही स्वीकार करना पड़ेगा या फिर दोनों को ही अस्वीकार करना पड़ेगा। इस्लाम में केवल ईश्वर को स्वीकार करने का विकल्प नहीं है। इसलिए इस्लाम को शुद्ध रूप में एकेश्वरवादी माना ही नहीं जा सकता। गुरुनानक की चिंतन परम्परा एकेश्वरवादी तो है ही उसके साथ वह निराकारवादी भी है। ईश्वर निराकार की श्रेणी में आता है। ईश्वर की निराकार की अवधारणा, इस्लाम के ईश्वर या अल्लाह की अवधारणा से बिल्कुल विपरीत है।
‘इस्लाम ने मूल रूप से जिस ईश्वर की कल्पना की थी वह प्रतापी और स्वेच्छाचारी प्रभु की कल्पना थी। इस ईश्वर के सामने दलील कोई चीज नहीं थी, न मानवीय न्याय बुद्धि का उसके आगे कोई जोर चल सकता था। अल्लाह शब्द का अर्थ ही शक्ति सम्पन्न पुरुष होता है। इस्लाम ने ईश्वर के उन गुणों को प्रधानता दी जिनसे प्रेम कम, भय अधिक हो सकता था। इस्लाम की मजहबी चेतना का रूप यह था कि ईश्वर बहुत-बहुत समीप से सब कुछ देख रहा है और उसकी छोटी सी भी अवज्ञा हुई तो उसका परिणाम भयानक हो सकता है। इसलिए, न्याय के लिए उचित यही है कि वह ईश्वर की कृपा और इच्छा पर आंखें मूंद कर निर्भर रहे। परमात्मा की दया के सामने सम्पूर्ण रूप से झुके रहने का भाव इस्लाम की सबसे बड़ी विशेषता थी।’ (रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ़ 289) इससे जाहिर है कि नानक देव के ईश्वर का यह स्वरूप नहीं था। उनके ईश्वर की खोज अंतिम सत्य की ओर ले जाती है और वह अंतिम सत्य ही ईश्वर है। ‘हजरत मोहम्मद ईश्वरवादी थे लेकिन ईश्वर के बारे में उनकी कल्पना यह थी कि वह सातवें आसमान पर रहता है और मनुष्यों के सुख-दुख और भक्ति-अभक्ति से उसका संबंध है। किन्तु गुरु नानक का ईश्वर निराकार है।
इस्लाम के ईश्वर या अल्लाह का सातवें आसमान में भरा-पूरा दरबार है। वह कयामत के दिन सभी प्राणियों के कार्यों का लेखा-जोखा करता है और उसी के अनुसार सजा या इनाम इत्यादि ‘तकसीम’ करता है। लेकिन नानक देव जी की ईश्वर सम्बंधी निराकार अवधारणा का सातवें आसमान में रहने वाले अल्लाह से कुछ लेना-देना नहीं है। नानक ईश्वरवादी हैं लेकिन ईश्वर के इस्लामी स्वरूप से सहमत नहीं हैं। उनका ईश्वर का स्वरूप भारतीय परिकल्पना पर ही आधरित है।
गुरु नानक के ईश्वर का स्वरूप तो, ‘सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि’ है। वह स्वयंभू है, अयोनि है और अकाल यानी काल से परे है। भारतीय चिन्तन परम्परा में वैदिक और अवैदिक के आधार पर भी दो अलग-अलग मार्ग बनते हैं। वैदिक परम्पराएं वे हैं जो अपनी किसी भी स्थापना के लिए वेद को ही प्रमाण मानती हैं। अवैदिक परम्पराएं वे हैं जो वेद को ही अंतिम प्रमाण नहीं मानतीं। इन दोनों मार्गों को आस्तिक और नास्तिक मार्ग भी कहा जाता है। आस्तिक यानी वेद को प्रमाण मानने वाली और नास्तिक यानी वेद को ही प्रमाण न मानने वाली। बौद्ध और जैन परंपरा वेद को अंतिम प्रमाण नहीं मानती। गुरु नानक देव जी भी इस विभाजन को स्वीकार नहीं करते। भारत के इन विभिन्न सम्प्रदायों में संवाद की परम्परा विद्यमान थी। गुरु नानक देव जी का रास्ता भी संवाद का रास्ता है।
शास्त्रार्थ से वाद-विवाद पैदा होता है। कहा भी गया है-खोजी उपजै, वादी बिनसै। वादी का रास्ता तर्क का रास्ता है, वह एक सीमा तक तो कारगर हो सकता है लेकिन उसके आगे बन्द गली शुरू हो जाती है। इसके बाद खोज यानी अध्यात्म का रास्ता शुरू होता है। जब तर्क का मार्ग बन्द होता है तो अध्यात्म का रास्ता खुलता है। ईश्वर या अन्तिम सत्य का ज्ञान इसी रास्ते पर चल कर प्राप्त हो सकता है। अध्यात्म के रास्ते पर चलने वाले साधक संवाद करते हैं और तर्क के रास्ते पर चलने वाले साधक वाद-विवाद करते हैं। वाद-विवाद की परंपरा में स्वयं ही एक दूसरे को पराजित करने की भावना का समावेश हो जाता है। लेकिन संवाद से समन्वय स्थापित होता है और बहुत सी समस्याओं का हल निकलता है। नानक देव ने तो बहुमूल्य सूत्र ही दे दिया है-
जब लगि दुनिआ रहीए नानक
किछु सुणीए किछु कहीए॥
लेकिन इस्लाम में ईश्वर के स्वरूप और अस्तित्व को लेकर संवाद की गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए यह कहना कि ईश्वर संबंधी संकल्पना को लेकर नानक पर इस्लामी प्रभाव है, मानसिक कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन नानक देव पर इस्लाम के प्रभाव की खोज करने वालों की यात्रा यहां आकर भी समाप्त नहीं होती। उनको नानक चिन्तन पर सूफी परम्परा का प्रभाव दिखाई देने लगता है।
रामधारी सिंह दिनकर का कहना है कि, ‘गुरु नानक की उपासना के चारों अंग शरण खंड, ज्ञान खंड, करम खंड और सच खंड, सूफियों के चार मुकामात शरीयत, मारफत, उकबा और लाहूत से निकले हैं, ऐसा विद्वानों का विचार है। उनकी संस्कृति के चार अध्याय पृ़ 397) पुस्तक में रेखांकित है कि यह अलग बात है कि स्वयं सूफी मत को लेकर ही इस्लाम में कभी विवाद समाप्त नहीं हुआ। दरअसल दक्षिणी अरब क्षेत्र में इस्लाम के उदय से पूर्व जो परम्पराएं विद्यमान थीं, उनमें सूफी परम्परा भी थी और ये सूफी भारतीय दर्शन परंपराओं से प्रभावित थे। ये सूफी ईश्वर की भक्ति या प्रेम से लबरेज होकर भाव विह्वल होकर गाते थे। लेकिन अरब में जब इस्लाम का उदय हुआ तो सूफियों के लिए समस्या शुरू हो गई। क्योंकि सूफियों को अरब में रहना है तो उन्हें अब ईश्वर के साथ रसूल की अनिवार्य महत्ता को भी स्वीकारना था। जब तक सूफी इससे सहमत नहीं हुए तब तक उन्हें अरब के मुसलमानों के हाथों संकट उठाने पड़े। मंसूर तो कुछ ज्यादा ही दूर निकल गए थे और अनलहक गाने लगे थे। इसकी कीमत उन्हें अपने प्राणों से चुकानी पड़ी थी।
धीरे-धीरे सूफियों ने अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए इस्लाम से समझौता कर लिया। उन्होंने इस्लाम के बाह्य आवरण को भी स्वीकार कर लिया। उस आवरण के बीच रह कर वे कहीं-कहीं ईश्वर से सीधे संबंध जुड़ने के गीत जरूर गाते रहे। बाहरी आवरण ओढ़ने से उनके जीवन की सुरक्षा किसी सीमा तक सुनिश्चित हो गई। अलबत्ता जब ये सूफी सिलसिले नौंवी-दसवीं शताब्दी में भारत पहुंचे तो किसी सीमा तक यहां के दार्शनिक वातावरण का इन पर प्रभाव पड़ा, जिसे परवर्ती आलोचकों ने इस्लाम पर वेदान्त का असर बताया। सूफियों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई ऐसी अवधारणा स्थापित नहीं की जिसका विवरण भारतीय दर्शन परम्परा में न मिलता हो। भारत में आकर इन सूफियों ने एक दूसरे क्षेत्र में भी हाथ आजमाना शुरू कर दिया। उन्होंने भी अरबी, तुर्की शासकों की तर्ज पर भारतीयों को इस्लाम में कन्वर्ट करना शुरू कर दिया। इसलिए यदि निष्कर्ष निकालना ही हो, तो कहा जा सकता है कि सूफी चिन्तन पर भारतीय वेदान्त का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। यह नहीं कहा जा सकता कि सूफी चिन्तन का प्रभाव नानक देव पर दिखाई देता है। इतिहास साक्षी है दशगुरु परम्परा का उन्नयन इस कन्वर्जन के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर उभरा था।
(लेखक राष्ट्रीय सिख संगत के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)
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