डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
गुरु नानकदेव जी के विशाल काव्य में 15वीं शताब्दी की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक स्थिति का चित्रण देखा जा सकता है। भक्तिकाल के साधकों में शायद गुरु नानकदेव ने ही तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक स्थिति पर तल्ख और स्पष्ट टिप्पणियां की हैं। दरअसल गुरु जी ने अनेक स्थानों पर इस बात का जिÞक्र किया है कि भारतीयों पर इस्लाम का प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव पड़ रहा है। बहुत से भारतीय तो विदेशी मुगल शासकों को प्रसन्न करने के लिए ही उनकी संस्कृति और सभ्यता की नकल करते हैं। नानक सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की चर्चा करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक युग में एक-एक वेद प्रमुख था। कलियुग में अथर्ववेद की प्रमुखता तो थी लेकिन इस कालखंड तक आते-आते भारत का परिदृश्य बदल गया—
कलि महि वेदु अथरवणु हूआ नाउ खुदाई अलहु भइआ।।
नील वसत्र ले कपड़े पहिरे तुरक पठाणी अमलु कीआ।। (आसा, वार, महला 1)
अर्थात नीले वस्त्र पहन कर मध्य एशिया से तुर्क आए और उन्होंने भारत पर कब्जा कर यहां अपना शासन जमा लिया। कलियुग में अथर्ववेद तो था लेकिन इस युग में परमात्मा का नाम खुदा और अल्लाह हो गया। अब ईश्वर इसी नाम से पुकारा जाएगा।
विदेशी शासकों द्वारा भारतीयों का किस प्रकार दमन किया जा रहा है, उन पर इस अत्याचार में कुछ भारतीय भी शामिल हो गए हैं। नानकदेव जी ने इसका उल्लेख इस तरह किया है-
हरणां बाजां तै सिकदारां
एन्हा पड़्हिआ नाउ॥
फांधी लगी जाति फहाइनि
अगै नाही थाउ॥
सो पड़िआ सो पंडितु बीना
जिन्ही कमाणा नाउ॥
पहिलो दे जड़ अंदरि जमै
ता उपरि होवै छांउ॥
राजे सीह मुकदम कुते॥
जाइ जगाइन्हि बैठे सुते॥
चाकर नहदा पाइन्हि घाउ॥
रतु पितु कुतिहो चटि जाहु॥
जिथै जीआं होसी सार॥
नकीं वढीं लाइतबार॥ (मलार, वार, महला 1)
अर्थात् भारत में आपसी कलह व भेद का उल्लेख करते हुए नानक कहते हैं कि जिस प्रकार पालतू हिरण और बाज अपनी ही जाति के लोगों को फंसाने में सहायता करते हैं, उसी प्रकार कुछ भारतीय भी अपने ही भाई-बंधुओं को फंसाने का काम कर रहे हैं। इसी प्रकार के धोखेबाज हुकूमत के नजदीक हैं। अर्थात् देश का आम आदमी तो फिर भी विदेशी शासकों से दूरी बनाए हुए है लेकिन पढ़ा-लिखा तबका सत्ता से चिपक गया है। ये लोग अपने स्वजनों को ही फंसा रहे हैं। जिनको नेतृव करना चाहिए था, वही बिक गए। ऐसे लोगों को मरने के बाद ईश्वर के घर में भी स्थान नहीं मिलेगा।
दरअसल पढ़े-लिखे तो उन्हें कहना चाहिए, जिन्होंने भगवान की सेवा की है, ऐसे लोग ही पंडित कहलाने के हकदार हैं। वे नहीं जो स्वदेश के अपने लोगों को ही फंसा रहे हैं। इस समय ऐसे लोगों की ही जरूरत है। लेकिन ये काम इतना आसान नहीं है। पहले बीज धरती में जाता है। फिर समय पाकर अंकुरित होता है। धीरे-धीरे बढ़ता है। बड़ा होने पर ही छाया करता है। यह प्रक्रिया लम्बी है। परन्तु इस समय जो विदेशी शासक आ गए हैं, वे हिंसक और अत्याचारी हैं। शासक शेर बने बैठे हैं और उनके दीवान या चौधरी शिकारी कुत्ते बने हुए हैं। ये दोनों मिलकर प्रजा को चैन से सोने नहीं देते। वे मानो प्रजा का खून चूस रहे हैं। वे प्रजा को शान्ति से रहने नहीं देते। उनकी बोटियां तक नोच रहे हैं। इनके नौकर अपने तेज और तीखे नाखूनों से लोगों पर घाव कर, रक्त चूसते हैं। जब कहीं न्याय होगा तो ऐसे अत्याचारियों की नाक काट ली जाएगी।
गुरु नानकदेव जी के पदों को आधार बनाकर ‘उत्तरी भारत की सन्त परम्परा’ ग्रंथ के प्रणेता परशुराम चतुर्वेदी नानक काल की स्थिति का उल्लेख करते हुए कहते हैं, कि अब हिन्दुओं में से कोई वेद-शास्त्रादि को नहीं मानता। अपितु अपनी ही बढ़ाई में लगा रहता है। उनके कान व ह्रदय सदा तुर्कों की मजहबी शिक्षाओं से भरते जा रहे हैं और मुसलमान कर्मचारियों के निकट एक दूसरे की निन्दा करके लोग सबको कष्ट पहुंचा रहे हैं। वे समझते हैं कि रसोई के समय चौका लगा देने मात्र से हम पवित्र हो जाएंगे। बहुत से भारतीय भी विदेशी इस्लामी शासन में कर्मचारी हो गए थे। वे विदेशी और विधर्मी शासकों की परोक्ष रूप से सहायता ही कर रहे थे। वे उनके हस्तक बन चुके थे। जब घर के लोग ही शत्रु का साथ देने लगें तो क्या आशा की जा सकती है। (रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 397-398) उस समय के शासकों के राज्य का वर्णन गुरु नानकदेव जी इस प्रकार करते हैं-
कलि काती राजे कासाई
धरमु पंख करि उडरिया ’’
कूडु अमावस सचु चंद्रमा
दीसै नाही कह चडिआ ’’
हउ भालि विकुन्नी होई ’’
आधेरै राहु न कोई ’’
विचि हउमै करि दुखु रोई’’
कहु नानक किनि विधि गति होई’’
(मालार, वार, महला 1)
डॉ. मनमोहन सहगल इसकी व्याख्या निम्नानुसार करते हैं, ‘‘स्वभाविक बात है कि आक्रमणकारी को जहां अधिक कठोरता का सामना करना पड़ता है, अधिक हानि उठानी पड़ती है, विजयी होने के पश्चात उस क्षेत्र से वह भयंकर प्रतिशोध लेने से टलता नहीं। यही दशा पंजाब की भी हुई। पंजाब, मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सम्भवत: सर्वाधिक दलित प्रदेश बना। यहां की हिन्दू जनता इतनी दूर तक अपमानित की गई कि स्वाभिमान से जीना दूभर हो गया। गुरु नानकदेव का कथन है कि इस युग में राजे स्वयं कसाई बन बैठे।
पुराना आदर्श, कि राजा प्रजा का पिता होता है, समाप्त हो चुका है। राजा ही भक्षक बन बैठे हैं। उनमें धर्म नाम का कुछ नहीं है। वह तो जैसे पंख लगाकर उड़ गया हो। चारों ओर मिथ्या का प्रसार है, सत्य की ज्योति कहीं दिखाई नहीं देती। ऐसी अव्यवस्था देख नानकदेव व्याकुल हो रहे हैं। अधर्म के अंधेरे में मार्ग नहीं मिल रहा। समूची जनता अहंकार में फंसी पथभ्रष्ट हो रही है।’ (मनमोहन सहगल, गुरु ग्रन्थ साहिब: एक सांस्कृतिक सर्वेक्षण, पृष्ठ 4-5) गुरु नानक कहते हैं कि विदेशी शासकों के कारण भारतीयों की स्थिति दयनीय हो गई है। स्थिति यह हो गई है कि-
आदि पुरखु कऊ अलहु कहीए, सेखां आई वारी।
देवल देवतिआ करु लागा, ऐसी कीरति चाली।।
कूजा, बांग, निवाज, मुसला, नील रूप बनवारी।।
घरि घरि मीआ, सभनां जीआं, बोली अवर तुमारी।।
जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी।।
चारे कुंट सलामु करहिगै धरि धरि सिफति तुम्हारी।।
(बसंत,अष्टपदी,महला 1)
अर्थात अब तो शेखों का ही बोलबाला हो गया है। इस्लामी शासकों के भय से आदिपुरुष परमात्मा को भी अल्लाह के नाम से ही बोलना पड़ रहा है। शासन ने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि मंदिरों और देवतों पर भी टैक्स देना पड़ रहा है। भारतीयों को अपनी पूजा पद्धति का इस्लामीकरण करना पड़ रहा है। पूजा के पात्र, ईश्वर का नाम स्मरण, उसकी पूजा और पूजा स्थान सभी को इस्लामी रूप रंग देना पड़ रहा है। चारों ओर अजान की ही आवाज सुनाई पड़ रही है। हालत यहां तक हो गई है कि बनवारी यानी कृष्ण को भी नील वस्त्रधारी कहना पड़ रहा है। उनको नील वस्त्रों में रखना पड़ रहा है।
केवल इसलिए ताकि विदेशी शासक प्रसन्न रहें। घर घर मियां शब्द गाया जा रहा है। लोगों की बोली ही बदल गई है। अर्थात विदेशी शासकों को प्रसन्न करने के लिए वे अपनी भाषा छोड़कर उन्हीं की बोली बोलने लगे हैं। हे ईश्वर! तुम तो सर्वशक्तिमान हो। यदि तुम अब भारतीयों को यही दिन दिखाना चाहते हो हमारी क्या बिसात है। सब ओर सलाम ही सलाम हो रहा है। सब लोग मुगलों की प्रशंसा में ही लगे हुए हैं। नानकदेव लिखते हैं-नील वसत्र पहिरि, होवहिपरवाणु।। (आसा, वार,महला 1)
अर्थात अब मुगलों के शासन में तो भारतीयों को शासक के दरबार में नीले वस्त्र यानी तुर्कों की तरह ही रहने से मान्यता मिलेगी। तब सचमुच बहुत से भारतीय भी विदेशी शासकों को प्रसन्न करने के लिए नीले कपड़े पहनने लगे थे। नानकदेव कहते हैं-
कलि कलवाली सरा निबेडी, काजी क्रिशना होआ।।
वाणी ब्रह्मा वेदु अथरबणु करणी
कीरति लहिआ।।
(रामकली, अष्टपदी, महला 1)
अर्थात इस कलियुग में विदेशी शासकों ने भारत में भी शरीअत को लागू कर रखा है। काजियों को ही अब कृष्ण बताया जा रहा है। कलियुग में ब्रह्मा का अथरवण वेद ही वाणी है। किन्तु व्यवहार में कुछ और ही है। कलि परवाणु कतेब कुराणु, पोथी पंडित रहे पुराण। नानक नाऊ भइआ रहमाणु, करि करता तू एको जाण।। (रामकली, अष्टपदी, महला1)
अब भारत में कुरान और इस्लामी मजहबी ग्रंथों का बोलबाला है। भारतीय शास्त्रों को अमान्य किया जा रहा है। भारतीय विद्वानों का सम्मान नहीं बचा है। लोगों को विवश किया जा रहा है कि परमात्मा का इस्लामी नाम रहमान ही उच्चारित किया जाए। नानक इससे आश्चर्यचकित हैं कि विदेशी शासक ऐसा क्यों कर रहे हैं। परमात्मा तो सर्वत्र एक ही है। लोग उसको विभिन्न नामों से पुकारते हैं। परन्तु विदेशी सुल्तान उसको केवल रहमान नाम से ही उच्चारित करने के लिए विवश क्यों कर रहा है? गुरु नानक कहते हैं-
गऊ बिराहमण कउ करु लावहु गोबरि तरण न जाई।
धोती टिका तै जपमाली धानु मलेछां खाई।।
अंतर पूजा पडहि कतेबा संजुम तुरका भाई।
छोडिले पखंडा नाम लईहे जाहि तरंदा।।
(आसा, वार,महला 1)
इस पद से जुड़ा एक प्रसंग। लाहौर में किसी ने ब्राह्मण को एक गाय दान में दी। ब्राह्मण गाय लेकर घर जा रहा था । रास्ते में नदी थी। नदी के घाट का ठेका मुगल सरकार से किसी खत्री ने लिया हुआ था। उसने ब्राह्मण की गाय को पार जाने देने के लिए टैक्स की मांग की। इसलिए ब्राह्मण को गाय समेत वहीं रुकना पड़ा। तभी गाय ने गोबर कर दिया। खत्री ने तुरन्त वह गोबर उठा लिया ताकि उससे चौका लीप कर उसको पवित्र किया जा सके। तब नानक ने कहा- इतना पाखंड क्यों कर रहे हो? गऊ और ब्राह्मण पर टैक्स लगा रहे हो और उसी गाय के गोबर से अपना चौका पवित्र करना चाहते हो। उसके बल पर भवसागर पार करना चाहते हो। धोती पहन कर माथे पर टीका लगाकर घूमते हो। माला जपते हो। लेकिन खाते तो म्लेच्छों का ही हो। तुर्कों से डर कर, पूजा घर के अन्दर छिपकर करते हो। लेकिन उनको प्रसन्न करने के लिए प्रत्यक्ष में कुरान पढ़ते ही नहीं बल्कि तुर्कों की तरह रहते भी हो। नानकदेव आगाह करते हैं कि यह पाखंड छोड़ दो और उस भगवान का नाम लो जो भवसागर से मुक्ति देता है। नानक ने इस कष्टकारी स्थिति पर टिप्पणी करते हुए विदेशी शासन की सेवा में लगे इन कर्मचारियों को लताड़ा है।
मध्यकालीन सन्त परम्परा के विद्वान परशुराम चतुर्वेदी इस प्रकार के भारतीयों के आचरण की व्याख्या निम्न अनुसार करते हैं-‘‘गो तथा ब्राह्मण पर कर लगाते हो और साथ ही धोती, टीका और माला भी धारण किए रहते हो। यह पाखंड नहीं तो क्या है? तुम अपने घर में तो पूजा-पाठ करते हो और बाहर कुरान के हवाले दे-देकर तुर्कों से सम्बंध बनाते रहते हो। यह पाखंड छोड़ क्यों नहीं देते।’’ (रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 397-398) दरअसल कुछ सांसारिक सुख-सुविधाओं के लिए, कुछ भारतीय भी विदेशी शासकों को प्रसन्न करने को उनके साथ मिल गए थे। वे ऊपर से सांस्कृतिक प्रतीकों को धारण किए रहते थे लेकिन भीतर से विदेशी इस्लामी शासकों के साथ हो गए थे। घर के भीतर तो अपनी परम्परागत पूजा पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं और बाहर विदेशी सुलतानों से डरते हुए कुरान का पाठ करते हैं। इस्लामी तौर-तरीकों को धारण कर रहे हैं।
तब केवल पूजा पाठ का ही इस्लामीकरण नहीं हो रहा था बल्कि कुछ भारतीय अपनी भाषा छोड़कर विदेशी शासकों की भाषा भी अपनाने लगे थे । सामाजिक लोक व्यवहार में इस्लामी तौर-तरीके अपनाने लगे थे। नानकदेव जी इसी को लक्षित करते हुए कहते हैं-
खत्रीयां त धरमु छोडिया, मलेछ भाखिआ गही।।
सृसटी सभ एक बरण होई धरम की गति रही।।
(धनासरी, शब्द, महला 1)
अर्थात् जिन क्षत्रियों पर देश और धर्म की रक्षा का उत्तरदायित्व था, उन्होंने विदेशी मुस्लिम शासकों के भय से अपना धर्म ही त्याग दिया और विदेशियों की म्लेच्छ भाषा में बोलने लगे। लोगों में तमोगुण का प्रभाव होने लगा। सृष्टि एक वर्ण हो गई। अर्थात विदेशी तुर्कों ने तो किसी वर्ण के साथ लिहाज नहीं किया, सभी को एक रस्सी से बांधकर ही घसीटा। नानक जाति भेद के विरोध में थे। इसलिए एक वर्ण का अर्थ दासता में एक हो गया हैै।
दुर्भाग्य से मध्यकाल में जिस नेतृत्व पर इस संकटकाल में भारतीय समाज को हताशा के गर्त से निकालने का दायित्व था, वह या तो ज्ञान का बोझ ढो कर ही स्वयं को गौरवान्वित कर रहा था, या फिर चुपके से विदेशी शासकों के दरबारों में दुबक गया था। वह केवल वेद पढ़ रहा था, उसके अर्थ की साधना नहीं कर रहा था। ऐसी स्थिति में नव कन्वर्टिड वर्ग, मुल्ला-मौलवियों की व्याख्याओं के शोर में अपनी परम्परा को नकारने के रास्ते पर चल पड़ा था।
विदेशी अरब, तुर्क शासकों को यही अनुकूल लगता था। इसीलिए यहां के नव कन्वर्टिड समाज को ‘नकार आन्दोलन’ की ओर धकेला जा रहा था। उनका प्रयास था कि इनकी देशी स्थानीय जड़ों को उखाड़ दिया जाये। लेकिन मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक यह प्रयास कर रहे थे कि कन्वर्जन के बावजूद इनकी जड़ों को इसी मिट्टी और समाज में बचाकर रखा जाये। यदि इसमें सफलता मिल गई तो विदेशी इस्लामी आक्रान्ताओं का मतान्तरण आन्दोलन अपने प्रभाव और उद्देश्य में निष्फल हो जायेगा।
भारतीय परम्परा इतना तो जानती ही थी कि राम और रहीम में केवल शब्द का अन्तर है, अर्थ में कोई भेद नहीं है। इसलिये वे अर्थ का पीछा कर रहे थे। अर्थ का पीछा करने से ही इस विदेशी प्रयास को मात दी जा सकती थी। लेकिन विदेशी आक्रमणकारी यह चाहते थे कि बहस शब्द तक ही सीमित रहनी चाहिये, तभी कन्वर्जन से राष्ट्रान्तरण तक पहुंचा जा सकेगा। वहीं मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक जानते थे कि यदि संकट के इस काल में ‘विचार’ न किया गया तो भविष्य के समाज के लिये सचमुच संकट खड़ा हो जायेगा। बिना पढ़े, जाने-बूझे और उस पर विचार किये बिना विरासत को नकार देना, भविष्य में भारत की पहचान को ही समाप्त कर देगा। इसीलिये महापुरुष नकारने से पहले विचार करने पर बल देते हैं। यदि विचार न किया तो विदेशी आंधी में जमीन से पैर उखड़ जाने का खतरा तो बना ही रहेगा।
भारतीय और भारतीयों का संघर्ष
उस समय एक और सांसारिक समस्या भारत में पैदा हो गई थी। जो भारतीय कन्वर्ट होकर मुसलमान हो गए थे, उनमें और शेष भारतीयों में वैमनस्य बढ़ रहा था। मध्यकाल के साहित्य में इसे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के रूप में चित्रित किया गया है। वास्तव में शासक होने के कारण इनकी संख्या बहुत कम थी। दूसरी श्रेणी के मुसलमान वे भारतीय थे जो किन्हीं भी कारणों से कन्वर्ट हो गए थे। समय के साथ इन कन्वर्टिड भारतीयों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी और इनको लेकर समाज में तनाव भी बढ़ता जा रहा था।
भक्तिकाल में बहुत से साधकों या साधु-सन्तों ने यह प्रयास किया कि कन्वर्जन के बावजूद भारतीय समाज में आन्तरिक एकता बनी रहे, समाज की समरसता खंडित न हो। लेकिन कन्वर्ट हो चुके भारतीयों को शेष समाज हेय दृष्टि से देखने लगा था। जो संकटकाल में अपने समाज को छोड़ गया, स्वाभाविक ही उसको हेय दृष्टि से ही देखा जाएगा। उनका सामाजिक बहिष्कार होने लगा। यह लड़ाई हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई नहीं थी बल्कि भारतीय और भारतीय के बीच की लड़ाई थी। एक ओर वे भारतीय थे जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने पुरखों की विरासत को नहीं छोड़ा था और दूसरी ओर वे भारतीय थे जो या तो विदेशियों की तलवार से डरकर या फिर आर्थिक कारणों से पुरखों की विरासत छोड़कर मुसलमान हो गए थे। इससे सामाजिक ताना-बाना दरकने लगा। मुसलमान बन चुके भारतीयों के साथ सामाजिक संवाद व सहभागिता के सूत्र धीरे धीरे सूखने लगे थे।
गुरु नानक ने दोनों समुदायों को पुन: एक ही व्यास आसन पर बिठाने के प्रयास किए। उधर जो भारतीय मतान्तरित हो गए थे, वे अपने आपको विदेशी शासकों का हम-मजहब मानकर, स्वयं को बाकी भारतीय समाज से बड़ा और अलग मानने लगे। इस नव कन्वर्टिड भारतीय समाज के मुल्ला-मौलवी वही सैयद हुए जो या तो आक्रमणकारी अरबों/तुर्कों की सेना के साथ भारत में आए थे या फिर जब खिलाफत अर्थात इस्लाम की विरासत को लेकर अरबों और तुर्कों में बहस छिड़ी, तब तैमूरलंग की मार खाकर या उसकी मार के डर से भाग कर भारत में आए थे। इन्हें भारत में कन्वर्टिड मुसलमानों के रूप में लाखों भारतीय यजमान के रूप में सहज भाव से उपलब्ध हो गए, इसलिए इनकी आजीविका आसानी से चल सकती थी। ये मौलवी नव कन्वर्टिड भारतीयों को इस्लामी रूढ़ियों में बांधने/घेरने की कोशिश में लगे हुए थे।
गुरु नानक देव ने प्रयास किया कि सभी भारतीयों, जो विदेशी सत्ताधीशों के अत्याचारों, जजिया से मुक्ति हेतु या लालच से मुसलमान भी बन गए थे, में आन्तरिक एकता बनी रहे। इसलिए वे बार-बार समझाते रहे कि राम और रहीम एक ही हैं। राम को छोड़कर रहीम की शरण में चले जाने से कोई मौलिक अन्तर नहीं पड़ता। जो लोग राम की जगह रहीम का जाप करने लगे हैं, वे भी पुरातन विरासत का ही हिस्सा हैं। गुरु नानक के साहस और बेलाग बात कहने से ऐसे लोगों में भी पुन: आशा जगने लगी थी जो पुरखों की विरासत छोड़ कर जा चुके थे, वे फिर वापस गुरु की शरण आने लगे थे। एक नया वातावरण बनने लगा था। यद्यपि अब तक पश्चिमोत्तर भारत का बहुत बड़ा भाग इस्लाम में कन्वर्ट हो चुका था, लेकिन यह निश्चित कहा जा सकता है कि गुरु नानकदेव जी के इस नव अभियान से इस प्रक्रिया पर कुछ सीमा तक विराम लगा। यहां तक कि दशम गुरु तक आते-आते कवि को कहना ही पड़ा-
न कहूं अबकी न कहूं तबकी, होते न गोविन्द सिंह तो सुन्नत होती सब की।
गुरु जी पूरे देश में घूमकर इतना तो समझ ही गए थे कि देश के लोगों को विभाजित करने में बहुत सीमा तक जाति व्यवस्था भी जिम्मेदार है। अलग-अलग जातियों के अपने-अपने समाज ही नहीं बने हैं, बल्कि अनेक स्थानों पर वे परस्पर विरोधी भी हो गए हैं। कोढ़ में खाज यह कि जाति का निर्णय किसी व्यक्ति के कर्म नहीं करते बल्कि जाति का निर्णय उसके जन्म से होता है। इसलिए गुरु नानकजी ने बार-बार आग्रह किया कि भारतीयों को जाति के इन झूठे बन्धनों से निकल आना चाहिए ।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का कथन है कि गुरु नानकदेव की कतिपय रचनाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जो दृष्टिकोण उन्होंने अपने समक्ष उपस्थित समस्याओं का समाधान ढूंढने में अपनाया था, वह साधारण नहीं कहला सकता था। वह किसी धार्मिक सुधारक मात्र का न होकर, तत्वत: एक ऐसे भारतीय, हिन्दू का भी रहा जिसके कोमल ह्रदय को, विदेशी तुर्कों के अनवरत निष्ठुर आक्रमण तथा उनके प्रभावों से ठेस लगी थी। (संत साहित्य में गुरु नानक की देन-परशुराम चतुर्वेदी, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक, गुरु नानक में संकलित, पृष्ठ 24)
गुरु नानक को, जिनको जन्म के समय ही पंडित हरिदयाल ने विलक्षण जातक बता दिया था, अब इन सभी प्रश्नों के उत्तर तलाशने थे। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी और सांसारिक क्षेत्र में भी। इसीलिए नानक देव ने अपने चिन्तन व कार्य के लिए परम्परा स्थापित की। यदि 15वीं शताब्दी में यह दश गुरु परम्परा न शुरू हुई होती तो सिकन्दर के वक़्त से आक्रमणों को झेलता और परास्त करता पंजाब, मुगलों के अत्याचारों के आगे उसी प्रकार दम तोड़ देता जिस प्रकार पश्चिमोत्तर भारत या सप्त सिन्धु प्रदेश के अधिकांश हिस्से, जैसे बलूचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रान्त, सिन्ध, गिलगित, बाल्टिस्तान, दर्दस्तान, स्वात घाटी, कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, इस्लाम मत में चले गए। यह दश गुरु परम्परा ही थी जिसने पूरे उत्तरी भारत को बंजर होने से बचा लिया।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय (धर्मशाला) के कुलपति हैं)
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