आदर्श सिंह
इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह वैध है या अवैध हथकंडा है लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में लॉफेयर यानी कानूनी औजारों का युद्ध के तरीकों के रूप में इस्तेमाल अब आजमाई हुई चीनी तरकीब बन चुका है। किसी भी जगह दावा ठोक देने और फिर वहां मछुआरे, पर्यटक भेजने, स्थायी निर्माण करने और रोके जाने पर इसे हजारों साल से चीन का अभिन्न अंग बताकर युद्ध की धमकी देने जैसे तरीके अब चीनी रणनीति का अहम हिस्सा हैं। मसलन, जापान के सेनकाकू द्वीप पर दावा ठोकने के प्रयास में चीन ने नवंबर 2013 में पूर्वी चीन सागर सहित जापानी जलक्षेत्र के एक हिस्से को एअर डिफेंस आइडेंटिफिकेशन जोन (एडीआईजेड) घोषित कर दिया।
यह किसी देश की वह सीमा होती है जिसमें घुसने पर किसी भी वायुयान को सूचित करना पड़ता है कि अब हम अमुक देश के वायुक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। चीन का यह दांव कारगर साबित नहीं हुआ लेकिन फिर भी वह सेनकाकू को विवादित क्षेत्र के रूप में स्थापित करने में सफल हो गया है जबकि यह द्वीप 1895 से ही जापान के कब्जे में है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के हिसाब से यदि किसी क्षेत्र पर आपका पहले से कब्जा है तो 90 प्रतिशत कानून आपके साथ है। किसी अत्यंत विरल स्थिति में ही कोई दूसरा देश उस इलाके पर अपना दावा ठोक सकता है।
चीन का नया सीमा प्रबंधन कानून सीमावर्ती गांवों और सीमाई इलाकों के लोगों को यह अधिकार देता है कि वे आत्मरक्षा में कोई भी कार्रवाई यहां तक कि युद्ध भी करने को स्वतंत्र हैं। यानी अब कब्जा कर जिन इलाकों में चीन ने स्थायी निर्माण किए हैं या नए गांव बसाए हैं, उन्हें अब मिलीशिया की तर्ज पर ढाला जाएगा
चीन ने 2012 में अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स में दो पन्नों का विज्ञापन दिया, जिसमें कहा गया था कि दियाओयू (सेनकाकू का चीनी नाम) हमेशा से चीन के कब्जे में रहा है। दावा ठोकने का सिलसिला अभी भी जारी है। 2020 में लगातार 100 दिन तक चीनी पोत सेनकाकू में जापानी जलक्षेत्र में दाखिल होते रहे और एक बार तो उसका एक पोत 39 घंटे तक जापानी जलक्षेत्र में खड़ा रहा। 2010 में मछली मारने वाली एक चीनी नौका के नशे में धुत कैप्टन ने एक जापानी गश्ती नौका को टक्कर मारी और हटने से इनकार कर दिया। जापान ने नौका के कैप्टन को गिरफ्तार कर लिया। इस पर चीन की प्रतिक्रिया बेहद उग्र थी। उसने मंत्री स्तरीय संपर्कों को खत्म कर दिया, चीनी पर्यटकों को जापान जाने से रोक दिया और जापान को नतीजे भुगतने की धमकी दी। दो हफ्ते बाद जापान ने कैप्टन को रिहा कर दिया।
कैप्टन ने रिहाई के बाद मासूमियत से कहा कि यह तो चीनी इलाका था, जापानियों ने आकर मुझे जबरदस्ती पकड़ लिया। उधर, चीनी सरकार ने कहा कि दियाओयू यानी सेनकाकू उसका है, इस बात को लेकर तो कोई विवाद ही नहीं। जापान हमारे जलक्षेत्र में घुस आया। उसने सिर्फ रिहाई की मांग ही नहीं की, बल्कि जापानी हिरासत में चीनी नौका के कैप्टन को जो शारीरिक-मानसिक कष्ट हुए, उसके लिए हर्जाना और जापान सरकार से माफी की भी मांग की। गनीमत यही रही कि जापान ने हर्जाना देने और माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया। अंतरराष्ट्रीय जगत में चीन ही ऐसा देश है जो उन इलाकों पर भी कब्जे का दावा ठोकता रहा है जो कभी उनके कब्जे में थे ही नहीं। लगातार उकसावे वाली कार्रवाइयों से वह इन इलाकों को लेकर भी विवाद खड़ा करने में सफल है।
ताइवान भी 1895 से 1945 तक जापान के कब्जे में रहा और उसके बाद से स्वतंत्र देश है। यानी वह कम से कम सवा सौ साल से अधिक चीन के कब्जे में कभी नहीं रहा। लेकिन चीन का दावा है कि ताइवान उसका अटूट अंग है। वह युद्ध का खतरा मोल लेकर भी ताइवान पर कब्जे पर आमादा है। दक्षिणी चीन सागर पर टुकड़ों-टुकड़ों में वह कब्जा करता ही जा रहा है। पहले कृत्रिम द्वीप बनाए, फिर उन पर सैन्य अड्डे बनाए और फिर उन्हें अलग-अलग प्रशासनिक क्षेत्रों के रूप में चिह्नित कर दिया। अब वह दक्षिणी चीन सागर से गुजरने वाले तमाम पोतों को बताता है कि आप चीन की जलसीमा में हैं।
मछुआरे चीनी विस्तारवाद के हरावल दस्ते
चीनी कोस्टगार्ड यानी तटरक्षक बल और चीनी मछुआरे अब चीनी विस्तारवाद के हरावल दस्ते बन चुके हैं। अमेरिकी सीनेट में सुनवाई के दौरान 2012 में एक एडमिरल ने कहा कि चीनी कोस्टगार्ड वास्तव में एक हैरेसिंग फोर्स बन चुकी है जिसका काम दक्षिण-पूर्वी एशिया के छोटे देशों को परेशान करना। सिर्फ परेशान करना ही नहीं बल्कि इसका इस्तेमाल दूसरों की जमीन पर कब्जे के लिए भी किया जा रहा है। चीन उन तमाम तरकीबों का प्रयोग अत्यंत निर्लज्जता के साथ कर रहा है जो सभी मान्य अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ा रही हैं। मसलन उसने अपने मछुआरों और मछली मारने वाली नौकाओं को जनमुक्ति सेना (पीएलए) के मिलीशिया दस्ते में तब्दील कर दिया है। ये किसी भी क्षेत्र पर दावा ठोकने में चीन के सबसे अहम औजार हैं। चीनी नौकाएं और मछुआरे किसी भी देश के जलक्षेत्र में घुस जाते हैं और हेकड़ी से कहते हैं कि यह हमारा इलाका है, सदियों से हमारे पुरखे यहां मछली मारते रहे हैं। क्योंकि उन्हें बखूबी मालूम है कि उनकी सुरक्षा के लिए पीछे चीनी कोस्टगार्ड के हथियारों से लैस पोत तैनात हैं।
इसी तरकीब से चीन ने 2012 में फिलीपीन के स्केरबोरो शोल पर कब्जा किया। चीनी मछुआरे और मछली मारने वाली नौकाएं स्केरबोरो शोल इलाके में घुस आर्इं और हटने से इनकार कर दिया। फिलीपीन ने उन्हें हटाने के लिए अपनी नौसेना के पोत भेजे लेकिन चीनी पोतों ने उसका रास्ता रोक दिया और स्केरबोरो शोल पर तब से उसका कब्जा है। यह चीनी लॉफेयर यानी किसी की जमीन हड़पने के लिए कानूनी दलीलों के इस्तेमाल का नायाब नमूना है। चीन का कहना था कि नि:शस्त्र मछुआरों को पकड़ने के लिए नौसेना के पोत भेजना कानूनी तौर पर अमान्य है और इसलिए चीन को आत्मरक्षा में जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी। अब समस्या यह है कि फिलीपीन के तटरक्षक बल के पास इक्के-दुक्के पोत हैं और वे भी राहत व बचाव कार्यों के उद्देश्य से बनाए गए हैं। लेकिन फिलीपीन को उकसाने की चीनी रणनीति कामयाब हो गई और स्केरबोरो सोल पर उसका कब्जा हो गया।
चीन की रणनीति
चीन की रणनीति स्पष्ट है। जो मेरा है उस पर कोई समझौता नहीं और जो तुम्हारा है, उस पर हमें दावा ठोकना है और आपको समझौता करना है। और जिस जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया है, उसे अब कानूनी वैधता देनी है। चीन ने 23 अक्तूबर को एक नया सीमा कानून पास कर यही कोशिश की है। यह फौजदारी से दीवानी का मुकदमा जीतने के प्रयास जैसा है। सात अध्यायों और 12 खंडों वाले इस कानून के अनुसार चीन की क्षेत्रीय अखंडता पवित्र और गैर-अवहेलनीय है। इस कानून की खास बात यह है कि इसमें सीमावर्ती गांवों और सीमाई इलाकों के लोगों को यह अधिकार दिया गया है कि वे आत्मरक्षा में कोई भी कार्रवाई, यहां तक कि युद्ध भी, करने को स्वतंत्र हैं।
यानी अब कब्जा कर जिन इलाकों में चीन ने स्थायी निर्माण किए हैं या नए गांव बसाए हैं, उन्हें अब मिलीशिया की तर्ज पर ढाला जाएगा। चीन की सेना और सशस्त्र पुलिस इनकी सुरक्षा को हमेशा तत्पर रहेगी। यानी समुद्री इलाकों पर कब्जा करने के लिए जो काम अब तक चीनी मछुआरे और कोस्टगार्ड कर रहे थे, अब वही काम जमीनी सीमा पर पीएलए और मिलीशिया शुरू करेगी। चीन ने हालिया कुछ सालों में नेपाल और भूटान में तमाम जगहों पर अवैध कब्जा कर नए गांव बसाए हैं। यहां तक कि पिछले साल लद्दाख के पूर्वी सेक्टर में घुसपैठ के बाद उसने उस इलाके में स्थायी निर्माण के लगातार जारी रखा है। और सैन्य कमांडरों की वार्ता में चीन लगातार यह कह रहा है कि गलवान उसका अभिन्न अंग है।
भारत-चीन वार्ता में नया पेच
निश्चित रूप से अब सीमा पर वार्ता में चीन अपने नए घरेलू कानूनों की आड़ लेगा। तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि अब सीमा वार्ता में भारत को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। लेकिन भारत को अनुभव से पता है कि चीन के साथ सहृदयता दिखाने और वार्ता के नतीजे पहले भी कभी नहीं निकले हैं। इस कानून का भारत के लिए यही मतलब है कि आने वाले दिनों में चीन सलामी स्लाइसिंग यानी टुकड़ों में कब्जा करने की रणनीति पर अमल न सिर्फ जारी रखेगा बल्कि यह और भी बढ़ेगी। लद्दाख में 17 महीने से जारी गतिरोध के समाधान के लिए दोनों देशों के सैन्य कमांडरों के बीच हुई बैठक में चीनी सेना ने पीछे हटने से साफ मना करते हुए संकेत दिए कि अब हम आपकी सीमा में दाखिल हो गए हैं और आप ताकत के जोर से हमें हटा नहीं सकते। इसलिए मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर लें। अप्रैल 2020 की स्थिति की बहाली की भारत की मांग को अतार्किक और अवास्तिवक करार देते हुए उसने कहा कि वह अपनी संप्रभुता व अखंडता की हर हाल में सुरक्षा करेगा। लगे हाथ उसने भारत को यह नसीहत भी दे डाली कि जिन इलाकों से चीनी सेना पीछे हट गई है, उससे भारत को संतुष्ट हो जाना चाहिए।
चीनी सरकार के भोंपू ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि जब दो बड़े देशों के बीच सीमा विवाद होता है तो उसे उसी तरह सुलझाना चाहिए जैसे दो बड़ी शक्तियां सुलझाती हैं। लेकिन आगे वह भारत को एक तरह से औकात में रहने की चेतावनी देते हुए लिखता है, भारत की सैन्य क्षमताएं सीमित हैं लेकिन वह देशभक्ति का सुपरपावर बन गया है। क्या यह तंज प्रधानमंत्री मोदी पर है? अखबार आगे लिखता है कि अगर भारत को पश्चिमी सीमा पर शांति चाहिए तो उसे चीन की मांगों पर समझौता करना पड़ेगा। इन बयानों से आप समझ सकते हैं कि मंशा क्या है। आगे के दिनों में घुसपैठ के प्रयास और बढ़ेंगे। और ये बढ़ भी रहे हैं। यहां तक कि वह तवांग जैसे इलाके जहां कि भारतीय फौज की मजबूत उपस्थिति है, वहां भी वह घुसपैठ की कोशिश कर रहा है। उत्तराखंड के बाराहोती तक में घुसपैठ की कोशिश हुई है। ‘हैरेसिंग फोर्स’ के रूप में जो काम चीनी मछुआरे और कोस्टगार्ड दक्षिणी चीन सागर में कर रहे थे, वही काम पीएलए अब हिमालय में कर रही है।
चीन की मंशा
दीवार पर लिखी इबारत साफ है। चीन का मानना है कि इस समय वह सैन्य-आर्थिक रूप से मजबूत है तो भारत को उसकी शर्तों पर समझौता करना होगा। चीन को अभी भी लगता है कि 1962 दोहराया जा सकता है। पिछले 17महीने से वह सीमा पर और तिब्बत में भांति-भांति के सर्कस कर रहा है। उसका मकसद भारत को अपनी सैन्य ताकत दिखाना है। यही डोकलाम गतिरोध के समय भी हुआ जब ग्लोबल टाइम्स दावे करता था कि पर्वत अपनी जगह से हिल जाएंगे लेकिन पीएलए नहीं हिलेगी। हटने वाली तो भारतीय सेना भी नहीं। हटना तो दूर, चीनी फौज की नाक के ऐन नीचे कैलाश रेंज की तमाम चोटियों पर कब्जा करके हमने पीएलए को बता दिया है कि हम क्या कर सकते हैं। चीन भारत को सीमा पर परेशानी में डालकर यह दिखाना चाहता है कि वह एशिया की निर्विवाद ताकत है।
साथ ही तैयारियों के पीछे मंशा ऐसी दिखती है कि वह किसी भी समय युद्ध छेड़ सके और 1962 की तरह देखते ही देखते जंग जीत ले। निश्चित रूप से किसी भी समय के मुकाबले आज भारत-चीन के बीच युद्ध की संभावनाएं बहुत बढ़ चुकी हैं। चीनी सेना की लगातार घुसपैठ की रणनीति पाकिस्तान की हजार घाव देने जैसी रणनीति ही है। भारत को कहीं न कहीं चीन को करारा जवाब देना ही पड़ेगा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीन एक बार फिर 1962 जैसी स्थिति दोहराने के प्रयास में है।
उनका मानना है कि हम भले न चाहें लेकिन सीमा पर एक भयानक युद्ध छिड़ने वाला है और यह प्रधानमंत्री मोदी का कार्यकाल के दौरान ही होगा। चीन के दो उद्देश्य हैं। पहला, उसका मानना है कि युद्ध से मोदी की लोकप्रियता घट जाएगी और हो सकता है कि वे सत्ता भी गवां बैठें। दूसरा, भारत की पराजय से अमेरिका सहित दुनिया के अन्य देशों को यह संदेश जाएगा कि चीन से मुकाबले के लिए भारत पर दांव लगाने का कोई फायदा नहीं। हमें सीमा पर अपनी तैयारियों से चीन को विश्वास दिलाना होगा कि ऐसी कोई भी भूल उसे बहुत महंगी पड़ेगी।
(लेखक साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं)
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