वीरेंद्र मिश्रा
संस्कृति एक बहुत ही जटिल शब्द है। हम इसे किसी विशिष्ट समाज के रीति-रिवाजों, साझा मान्यताओं, मूल्यों, मानदंडों, नियम-कानून, विचारों और सामाजिक व्यवहार के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं। साथ ही, किसी विशिष्ट समाज की विभिन्न कला रूपों के जरिए हो रही रचनात्मक अभिव्यक्तियों से भी उसकी संस्कृति की पहचान बनती है। मूर्त रूप से दिखाई दे रहे स्वरूपों के अलावा किसी भी संस्कृति में कई अमूर्त आयाम भी मौजूद रहते हैं। प्रतीकात्मक तौर पर देखा जाए तो संस्कृति किसी हिमशैल का शीर्ष मात्र है, जिसका शेष भाग सागर की अतल गहराई में समाया रहता है। इनसान के व्यक्तित्व को गढ़ने में संस्कृति बहुत गहरी भूमिका निभाती है। संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार अपने दस्तावेज के अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंडे में संस्कृति को संदर्भित किया है। अब यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाए गए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के ढांचे का समावेशी हिस्सा है जिसकी घोषणा सितंबर 2015 में हुई थी।
वर्तमान केंद्र सरकार सांस्कृतिक विरासत के भू-क्षेत्रीय इतिहास के चरणबद्ध अध्ययन और उसके पुनरुत्थान और संरक्षण पर खास ध्यान दे रही है। आम आदमी के मन में यह सवाल कुलबुलाता है कि हमें प्राचीन संस्कृति से जुड़े रहने की जरूरत ही क्या है, जो समय की धारा में खुद ही अपने अंत की ओर बहती जाती है! इतिहास की ओर पलटने और अतीत को फिर से जीने से किस उद्देश्य की पूर्ति हो सकेगी?
संस्कृति में क्रमिक परिवर्तन
हालांकि, बदलते समय के साथ संस्कृति का कलेवर भी बदलता है। उसमें कुछ नए रंग शामिल होते हैं पर और रंग धूमिल पड़ते जाते हैं। संस्कृति में होने वाले इस परिवर्तन की वजह है सतत प्रवाहमान समय जिसकी धारा में उसके स्वरूपों, पहलू भावनाएं, अंदाज, मान्यताएं, प्रथाएं और कभी-कभी सभी तत्व शामिल हो जाते हैं। साथ ही, कभी-कभी किसी नई संस्कृति का प्रभाव भी जड़ें जमाने लगता है। स्वाभाविक तौर पर संस्कृति एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में प्रवाहमान रुझान है। लेकिन जब इसे किसी पर जबरन थोपा जाए तो यह सहज धारा विष उगलने लगती है और आतंक फैलाती है।
संस्कृति को पुनर्जीवित करने का अर्थ है प्राचीन संस्कृति के समृद्ध ज्ञान को समझना और उस पर गर्व करना। अपने प्राचीन ज्ञान कोष के कारण ही भारत विश्व गुरु था। बात प्रशासन की हो, अर्थव्यवस्था, ज्ञान, विज्ञान या सांस्कृतिक विरासत की, अपनी समृद्ध ज्ञान संपदा और विकसित सभ्यता के कारण भारत हर क्षेत्र में उत्कृष्ट था। पर एक सवाल बराबर कचोटता तो है कि स्वर्णिम इतिहास का हमारा देश, जो सोने की चिड़िया कहलाता था, आज गरीब राष्ट्र की श्रेणी में कैसे दर्ज हो गया? इस सवाल का जवाब खंगालना पड़ेगा। दरिद्रता सिर्फ अर्थव्यवस्था के कमजोर होने से ही नहीं आती, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी और परंपरागत कौशल और ज्ञान का कमजोर पड़ना भी इसमें अहम भूमिका निभाता है। इसके अलावा ‘सांस्कृतिक आतंकवाद’ भी तबाही का मंजर तैयार करता है।
‘सांस्कृतिक आतंकवाद’
किसी राष्ट्र को तबाह करने के लिए ‘सांस्कृतिक आतंकवाद’ रूपी शस्त्र का लंबे समय से एक शक्तिशाली हथियार के तौर पर प्रयुक्त किया जाता रहा है। इतिहास गवाह है कि कैसे बाहरी ताकतों ने किसी राष्ट्र को पराजित करने के लिए उसकी संस्कृति को निशाना बनाया और अपना प्रभुत्व कायम किया। आज भी वही रणनीति अपनाई जाती है। दुनिया भर में ऐसी घटनाएं हो रही हैं जिसमें सांस्कृतिक आतंकवाद के जरिए किसी समाज की पहचान खत्म करने की साजिश को अंजाम दिया जा रहा है। यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि 2011 से यमन में वहां की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकों, कलाकृतियों, साहित्य आदि को बेदर्दी से लूटा जा रहा है और यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के नीलामी घरों में बेचा जा रहा है। इसी तरह, आईएसआईएस जिहादियों ने सीरिया में रक्का और इदलिब के संग्रहालय के कई पुरावशेषों को नष्ट कर दिया या लूट लिया।
यूनेस्को की रिपोर्ट 2020 में पेरिस स्थित लूव्र संग्रहालय के अध्यक्ष और निदेशक जीन-ल्यूक मार्टिनेज को उद्धृघृत किया गया है जिनका अनुमान है कि आईएसआईएस के राजस्व स्रोतों का पंद्रह से बीस प्रतिशत ‘ब्लड एंटीक्विटीज’ से आता है, यानी सांस्कृतिक धरोहरों, शिल्पों की तस्करी के जरिए आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन इकट्ठा किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सांस्कृतिक धरोहरों, कृतियों, शिल्प आदि पर आपराधिक नेटवर्क की कुटिल नजरें जमी रहती हैं। यह उन सभी क्षेत्रों के सुरक्षा सरोकारों के लिए चिंता का विषय है जहां अशांति है। यूनेस्को ने 2017 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2347 को सर्वसम्मति से अपनाने की सराहना की जिसमें पहली बार सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा को अनिवार्य घोषित किया गया और किसी युद्ध मंम सांस्कृतिक संपत्ति को जानबूझकर नष्ट करने के कार्य को अपराध ठहराते हुए उसकी निंदा की। यूनेस्को का मानना है कि यह प्रस्ताव संस्कृति के महत्व को समझने के लिए जागरूक करता है जिससे किसी भी टकराव या संघर्ष से मुकाबला करने के लिए बल मिलता है, साथ ही कट्टरता को रोकने और हिंसक उग्रवाद से लड़ने की शक्ति भी जागती है- (यूनेस्को 2020)। हालांकि, किसी भी समाज की संस्कृति सिर्फ धरोहरों या शिल्पों तक नहीं सीमित होती। उसमें मूर्त और अमूर्त आयाम भी जुड़े होते हैं।
सांस्कृतिक हमले
1453 में कांस्टेंटिनोपल पर विजय हासिल करने के बाद इस्लामी ओटोमन साम्राज्य के सुल्तान ने हागिया सोफिया को मस्जिद में तब्दील कर दिया था जो एक ईसाई आॅर्थोडॉक्स चर्च था। यह एक दुखद और विडंबनापूर्ण घटना है जो यह दर्शाती है कि कैसे सांस्कृतिक आतंकवाद इतिहास के पन्नों पर लिखी इबारतों को भी मिटा देने की साजिश रचता है। अमेरिका पर अंग्रेजों ने कब्जा करके वहां के मूल निवासियों, रेड इंडियन्स, का जबरदस्ती कन्वर्जन कराया और एक ऐसी शैक्षिक प्रणाली शुरू की जिसके जरिए स्थानीय संस्कृति को पिछड़ा और आदिम साबित करने का कुप्रचार किया गया। अफगानिस्तान में तालिबान के छठी शताब्दी की बामियान बुद्ध की मूर्तियों को नष्ट करने के पीछे उद्देश्य उदारवादियों को यह संदेश देना था कि वहां अब उनका कब्जा है ताकि उनका मनोबल टूट जाए। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के हमले को भी सांस्कृतिक पहचान पर किया गया वार माना गया है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर वस्तुत: संयुक्त राज्य अमेरिका में सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक था। सांस्कृतिक आतंकवाद कुटिल चालों और रणनीतियों के जरिए अपने डैने फैलाकर संस्कृति पर घात लगाता है और अपनी शर्तों के हिसाब से उसका स्वरूप बदल देता है।
भारत में थोपी गई संस्कृति
मध्यकालीन और आधुनिक भारत का इतिहास वास्तव में सांस्कृतिक आतंकवाद के साये में ही दर्ज हुआ। दुर्भाग्य से, आज हमारी संस्कृति में ऐसी कई प्रथाओं का प्रवेश हो चुका है जिन्हें खूब महिमामंडित किया जाता है, पर वे स्वाभाविक बदलाव की प्रक्रिया से नहीं उभरीं, बल्कि जबरन थोपी गई हैं। सांस्कृतिक आतंकवाद की प्रवृत्ति को समझने के लिए हमें उस रणनीति को गहरे समझना होगा जो इसे संचालित करती है। भारत में तुर्की और मुगल आक्रमणों के दौरान हमलावरों ने महसूस किया कि विभिन्न राज्य-रजवाड़ों में बंटे भारत को अखंडता की एक डोर ने बांध रखा है, जो जुड़ा है धार्मिक स्थलों के प्रति अटूट विश्वास से।
भारतीय संस्कृति धार्मिक स्थलों और दैनिक जीवन से जुड़े अनुष्ठानों के इर्द-गिर्द घूमती थी। यहां तक कि युद्धघोषों में भी धार्मिक प्रतीकों के ही नाम लिए जाते थे। इसलिए, उन्होंने लोगों के मनोबल को तोड़ने, उन्हें हेय महसूस करने और अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए उनके बीच मौजूद सांस्कृतिक सूत्र को नष्ट करने की नीति अपनाई। सभी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने यही रणनीति अपनाते हुए क्रूरतापूर्वक बड़ी संख्या में मंदिरों और श्रद्धा स्थलों को ध्वस्त किया। इन घटनाओं ने सनातन समुदाय को हिलाकर रख दिया और उसकी जीवन शक्ति को कमजोर कर दिया। जहां-जहां मंदिर नष्ट हुए, वहां मस्जिदें खड़ी होने लगीं। मंदिरों की घंटियों की जगह अजान की आवाज काबिज होती गई और जबरदस्ती कराए जा रहे कन्वर्जन ने तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था को चरमरा दिया। पहले से स्थापित संस्कृति को भारी संक्रमण का सामना करना पड़ा। दुर्भाग्य से, सदियों से जारी विदेशी हमलों और आक्रमणकारियों द्वारा थोपे गए पांथिक अनुष्ठानों को अपनाने की विवशता ने सामाजिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव डाला और काफी बड़े वर्ग को नुकसान उठाना पड़ा।
हमारी इस समृद्ध ज्ञान परंपरा का पोषण करने वाले संस्थान- स्वर्णिम इतिहास का प्रतीक नालन्दा विश्वविद्यालय- जिसने देश को एक उत्कृष्ट बौद्धिक केंद्र्र बनाया था, को मुस्लिम शासक जला देता है, महज इसलिए कि दुनिया भर में यह संदेश जाए कि जिस समृद्ध संस्कृति पर सनातन संस्कृति की पहचान टिकी थी, वह अब अस्तित्व में नहीं है। इससे भारी नुकसान हुआ। पूरा परिदृश्य ही बदल गया। इससे पहले जहां विदेशी भारत के समृद्ध ज्ञान की खोज में यहां आते थे वहीं अब वे भौतिकवादी लाभ का दोहन करने के लिए यहां आने लगे। ‘सांस्कृतिक आतंकवाद’ ने भारत आने वाले विदेशियों के पूरे दृष्टिकोण को ही बदल दिया।
अंग्रेजों की चाल
जब अंग्रेजों ने शासन शुरू किया, तो उन्होंने महसूस किया कि भारत की शिक्षा प्रणाली की जड़ें संस्कृति में गहरे पैठी हैं जो प्राचीन भारतीय इतिहास की विरासत है। नालंदा जैसे गौरवशाली संस्थानों के विनाश के बावजूद, ज्ञान परंपरा का प्रसार छोटे शिक्षण संस्थानों के माध्यम से जारी रहा। हमारी धरती पर साझा करने की संस्कृति इतनी मजबूत थी कि कई आक्रमणों के बावजूद इसका अस्तित्व बचा रहा। उन्होंने सोचा कि जब तक शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त नहीं किया जाएगा, तब तक यही की आबादी पर अपना प्रभाव कायम करना संभव नहीं है। यह तथ्य तत्कालीन ब्रिटिश नीति निर्माताओं द्वारा लिखित रूप में दर्ज है।
शिक्षा व्यवस्था को धराशायी करने के लिए दोतरफा रणनीति अपनाई गई। पहली, कुटिल नीतियों के जरिए यहां के संस्थानों को ध्वस्त करना और दूसरा, अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का महिमामंडन। भारतीय समाज में गोरों के प्रति आकर्षण की प्रवृत्ति का लाभ उठाते हुए, फिरंगियों ने समाज के प्रभावशाली वर्ग को लुभाया और उन्हें पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया, साथ ही, उन्हें स्थानीय लोगों के लिए रोल मॉडल के रूप में पेश किया गया। इन नए, तथाकथित साक्षरों के समूह ने उपनिवेशवादियों के हाथों का खिलौना बनकर मौजूदा शिक्षा प्रणाली को पिछड़ा और निम्न स्तर का बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस नए रुझान ने संक्रमण की प्रक्रिया की गति को तेज कर दिया।
पश्चिमी शिक्षा में शिक्षित ऐसे स्थानीय लोगों को चुनी हुई आजादी और सुविधाएं दी गई और उन्हें अंग्रेजों की टोली में प्रतिष्ठित स्थान भी प्रदान किए गए। इन सबने हमारी पुरानी शिक्षा प्रणाली की तबाही के बीच अपनी सतही प्रगति का जमकर जश्न मनाया। भारत का गौरवशाली अतीत, जो वास्तव में गौरवशाली था, उपेक्षित हाशिए पर खिसकता रहा और धीरे-धीरे अपनी स्वर्णिम आभा खोने लगा। नई शिक्षा प्रणाली की धूमधाम से ताजपोशी के साथ अंग्रेजी आधिपत्य स्थापित हुआ। हमारी समृद्ध परंपरा पर तब एक और वार हुआ जब आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 के माध्यम से कई पारंपरिक छोटे समुदायों को अपराधी करार कर दिया गया। इसके जरिए उनकी संस्कृति को बदनाम किया गया और अंतत: ये समुदाय हाशिए में खो गए। कई समृद्ध परंपराओं को सामुदायिक ध्रुवीकरण के जरिए सुनियोजित तरीके से बर्बाद कर दिया गया जिन पर समाज सदियों से टिका था।
हथियार के रूप में कन्वर्जन
कन्वर्जन हमेशा सांस्कृतिक आतंकवाद का एक शक्तिशाली हथियार रहा है। कई जगहों पर संपूर्ण जनसांख्यिकी बदल चुकी है और कट्टरता को बढ़ावा मिल रहा है, क्योंकि कन्वर्टेड लोगों में असुरक्षा की भावना भरी होती है। सुनियोजित योजना के जरिए कराए गए अंतर-पांथिक विवाह, जो ‘लव जिहाद’ कहला सकते हैं, किसी अन्य संस्कृति को सूक्ष्म रूप से खत्म करने की साजिश है।
भारत दुनिया भर में कलात्मक रूप से गढ़ी गई मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है, जो सभी युगों के इतिहास को दशार्ती है। देश भर में दूर-दराज इलाकों में ऐसे शिल्प प्राचीन परंपरा के साक्षी के तौर पर ऐतिहासिक धरोहर के रूप में मौजूद हैं। तस्करों के लिए ये खजाना हैं। फिलहाल ऐसी कोई रिपोर्ट उपलब्ध नहीं जो यह बता सके कि सांस्कृतिक संपत्ति का अवैध कारोबार आतंकवादी या राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए धन इकट्ठा करने का साधन है या नहीं। यह ऐसा विषय है जिसके संबंध में पर्याप्त जांच नहीं हुई है, लिहाजा इसकी तस्वीर साफ नहीं। इसपर ध्यान देने की जरूरत है। सांस्कृतिक संपदा की तस्करी को रोकने के लिए स्थानीय लोगों को शिक्षित करना होगा। सांस्कृतिक शिल्पों और कलाकृतियों को तस्करी से बचाने के लिए साझा सहयोग की जरूरत है। सहभागी प्रयास ही इसका एकमात्र समाधान है।
क्षति की भरपाई
सरकार पूर्व में हुए नुकसान को संवारने और प्राचीन इतिहास के गौरव को बहाल करने की कोशिश कर रही है, जिसने हमें वैश्विक नेता बनाया था। आज छोटी से छोटी परंपरा की भी फेहरिस्त बनाई जा रही है ताकि कुछ भी न छूटे। हमारे समृद्ध ज्ञान कोश के बारे में जनता को जागरूक करने के लिए हमारे शास्त्रों के उत्कृष्ट पाठों को जनता में प्रसारित करने की कोशिश की जा रही है, ताकि वे महसूस कर सकें कि हमें दूसरों की संस्कृति की नकल करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारे पास हमेशा दूसरों के मुकाबले बेहतर और समृद्ध ज्ञान परंपरा रही है। राष्ट्रीय और राज्य स्तर की प्रत्येक संस्था भी इतिहास के गुमनाम नायकों के योगदान के बारे में लोगों को जानकारी देने का काम कर रही है। शिक्षा प्रणाली में सुधार इस दिशा में एक अहम कदम है। निहित स्वार्थ वाली कुछ पार्टियां इसे धार्मिक युद्ध बताकर गुमराह कर रही हैं। वास्तव में, यह कदम सामूहिक सांस्कृतिक क्रांति का आह्वान है जो देश में सांस्कृतिक आतंकवाद के प्रभाव को खत्म करने के लिए किया गया है। भारत का हर नागरिक इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित है। दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद जैसे हमारे आधुनिक समाज सुधारक और दार्शनिक इसकी आवश्यकता को पहले ही समझ चुके थे। इसलिए उन्होंने भारतीयों से अपनी जड़ों की ओर लौटने का आह्वान किया था।
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