शक्ति सिन्हा
अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के क्षेत्रीय निहितार्थ क्या होंगे, यह जानना आवश्यक है। जहां तालिबान पिछली बार से बदला हुआ व्यवहार प्रदर्शित करने के प्रयास कर रहा है तो रूस और ईरान की दृष्टि भी बदली हुई है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत का रुख क्या हो
अफगानिस्तान की सरकार और उसकी सेना के अचानक पतन ने अफगानिस्तान के लोगों, विश्व और निश्चित रूप से भारत को आश्चर्य में डाल दिया है। पिछली बार भारत को अपना दूतावास 1996 में बंद करना पड़ा था, जब तालिबान कूच करता आया और बिना लड़ाई के काबुल पर काबिज हो गया था। इस बार के विपरीत, तब विश्व ने तालिबान के कब्जे को पूर्णत: अनदेखा कर दिया था। उस समय अफगानिस्तान विश्व का एक अलग-थलग और पिछड़ा हुआ कोना था, शीत युद्ध समाप्त हो चुका था और इसके रणनीतिक परिणाम होने का कोई अनुमान नहीं था।
इस बार स्थिति भिन्न है। अफगानिस्तान और वहां के लोग विश्व से इतनी निकटता से जुड़े हैं कि काबुल से उड़ान भर रहे विमानों से लटकने का प्रयास कर रहे लोगों के गिरकर मर जाने की भयावह छवियां देखते ही देखते समूची दुनिया में फैल गईं। तालिबान की जीत की जय-जयकार केवल पाकिस्तान ने ही नहीं की है, रूस और चीन ने भी सार्वजनिक रूप से कहा है कि वे तालिबान के साथ काम करेंगे। यह भी उन्होंने तभी कह दिया था जब तालिबान ने औपचारिक रूप से सत्ता संभाली तक नहीं थी। यह रपट लिखे जाते समय स्पष्ट नहीं है कि किस प्रकार की सरकार बनेगी, कौन लोग सरकार में होंगे, आदि-आदि। काबुल में केवल चार राजदूत राजधानी बचे हैं—पाकिस्तान, चीन, रूस और ईरान। भारत ने दूतावास को खाली करके और सभी भारतीय कर्मियों को बुलाकर समझदारी का परिचय दिया, क्योंकि वे तालिबान के भीतर घुसे पाकिस्तानी तत्वों और काबुल पहुंच चुके अन्य पाकिस्तानी टहलुओं के हमलों के संभावित निशाने पर थे।
रूस-ईरान का रुख
यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि इस क्षेत्र के लिए इस घटनाक्रम के क्या निहितार्थ होंगे और संबंधित देश इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे। पिछली बार जब तालिबान सत्ता में था, उसके विरोधी अहमद शाह मसूद की अगुआई वाले नॉर्थर्न एलायंस का तीन देशों—भारत, ईरान और रूस—ने समर्थन किया था। इस बार रूस और ईरान, दोनों तालिबान के सहयोगी देशों के रूप में उभरे हैं। ईरान पिछले पंद्रह वर्ष से पश्चिमी अफगानिस्तान में अस्त्र-शस्त्र और गोला-बारूद तथा सुरक्षा सुलभता में तालिबान की सहायता करता आ रहा है। वहीं, रूस ने तालिबान को अंतरराष्ट्रीय वैधता प्राप्त करने में सहायता देने के लिए बड़ी कूटनीतिक भूमिका निभाई है।
ईरान इस बार शांत है, क्योंकि उसका राजदूत काबुल में ही है। वहीं रूस ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उसे तालिबान से सुरक्षा की गारंटी मिली है और इसी आधार पर वे काबुल में रहेंगे। तथापि यह तथ्य स्मरण रखना चाहिए कि ईरान और रूस का दृष्टिकोण उनकी भू-रणनीतिक चिंताओं पर आधारित है और उसका संबंध न तो अफगानिस्तान से और न भारत से है। दोनों अमेरिका का विरोध करने को प्रतिबद्ध हैं और उसके दृष्टिकोण तथा हितों को हानि पहुंचाने के लिए काम कर रहे हैं। वास्तव में, ईरान ने तालिबान की सहायता का निर्णय उसे सत्ता में आते देखने के लिए नहीं, अपितु अमेरिकी सेना की कठिनाइयां बढ़ाने के लिए लिया है। इसी प्रकार, रूस की स्थिति ऐसी है जो उसे आगामी समय में संभवत: कठिनाइयों में डाल सकती है। हां, चीन की स्थिति स्पष्ट है, जो यह है कि अफगानिस्तान को पाकिस्तानी चश्मे से ही देखना चाहिए। इससे रूस के लिए जोड़-तोड़ की गुंजाइश अवश्य कम हो जाती है।
तालिबानी वादों पर सतर्कता
उधर रूस ने अफगानिस्तान की सीमा से सटे मध्य एशियाई देशों में कुछ सैन्य टुकड़ियां और टैंक तैनात कर दिए हैं। अफगान राष्ट्रीय सेना के सैकड़ों जवान जुलाई में उत्तरी क्षेत्रों में तालिबान का आक्रमण होने पर भागकर ताजिकिस्तान चले गए थे। उत्तरी पड़ोसी देशों, यथा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान से सटी अफगानिस्तान की सीमाएं छिद्रयुक्त हैं और उनसे घुसपैठ करना आसान है। तालिबान स्वयं तो जिहादियों का निर्यात नहीं करता, किंतु क्या वह विदेशी जिहादी शक्तियों को सुरक्षित स्वर्ग के रूप में अपने भू-भाग का उपयोग करने और प्रशिक्षण शिविर चलाने से इनकार कर पाएगा? निस्संदेह, तालिबान ने अमेरिका के साथ दोहा समझौते में यह सहमति दी थी कि वह किसी भी आतंकी धड़े को अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों से काम नहीं करने देगा, किंतु क्या वह अपने वचन निभाएगा? उसने चीन को भी सार्वजनिक रूप से आश्वासन दिया है कि वह उइगर पृथकतावादियों को अपने भूभाग से काम नहीं करने देगा। चीन के विदेश मंत्री यांग यी ने इसी महीने तिआनजिन में मुल्ला बारादर और उसके प्रतिनिधिमंडल के साथ इस तरह व्यवहार किया मानो वह संप्रभु सरकार का प्रतिनिधिमंडल हो, किंतु चीनी उस समय अपनी घबराहट छिपा नहीं पाए जब उन्होंने कहा कि उन्हें आशा थी कि तालिबान आतंकी धड़ों से अपने संबंध तोड़ लेगा और यह पुष्टि की कि दोहा के 17 महीने बाद भी उनके ये संबंध बने हुए हैं।
ईरान के बदले समीकरण
ईरान की स्थिति और भी जटिल है। तालिबान ने 1998 में ईरानी वाणिज्य दूतावास को उड़ाकर उसके 11 राजनयिकों को मार दिया था। तब अधिकांश पर्यवेक्षकों को लगा था कि यह तालिबान की शिया-विरोधी नीति का परिणाम है। उस समय तालिबान मुख्यत: सुन्नी कट्टरतावादी धड़ा था, जो शियाओं को मजहबी तौर पर भ्रष्ट ठहराता और उनके विरुद्ध पक्षपात करता था, किंतु इस अभूतपूर्व हमले का वास्तविक कारण नॉर्थर्न एलायंस को ईरान का समर्थन था। स्थिति अब भिन्न बताई जाती है। एक ओर, तालिबान ने अपना शिया-विरोधी दृष्टिकोण त्याग दिया है और अपने जत्थों में कम ही संख्या में सही किंतु शियाओं की भर्ती की है, दूसरी ओर, ईरान भी अब आईएसआईएस को अपने मुख्य स्थानीय शत्रु की तरह देखता है। यह रणनीति ईरान-तालिबान संबंधों को सुदृढ़ करती है। पाकिस्तान भी निश्चिंत नहीं हो सकता। काबुल में राजकाज का औपचारिक ढांचा स्थापित करने में विफलता से स्पष्ट है कि तालिबान और पाकिस्तान के बीच, और स्वयं तालिबान के भीतर, कई मतभेद अब भी अनसुलझे हैं। इतना ही नहीं, तालिबान ने तहरीक-ए-तालिबान के उन सभी कैदियों को छोड़ दिया है जिन्हें अशरफ गनी की सरकार ने पाकिस्तान को संतुष्ट करने के लिए कारावास में डाला था। इससे भी दोनों के बीच तनाव बढ़ सकता है। यदि पाकिस्तान में हिंसा बढ़ती है, तो तनाव और बढ़ेगा।
भारत के विकल्प
इसका यह अर्थ नहीं कि भारत और तालिबान आसानी से संबंध स्थापित कर सकते हैं। दोनों को अलग रखने के लिए पाकिस्तान वह सब करेगा जो वह कर सकता है। आवश्यक हुआ तो वह इसके लिए भारतीय प्रतिष्ठानों और भारतीयों पर हमले भी करवा सकता है, ताकि भारत में तालिबान को लेकर भारी संदेह बना रहे। भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वह धैर्य रखे, लोगों से लोगों के बीच संपर्क बनाए रखे, और स्थिति पर सतर्क दृष्टि रखे। उसे तालिबान को न तो हड़बड़ी में मान्यता देनी चाहिए और न ही खुलकर शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। वहां पहले से ही इतने सारे मतभेद और तनाव हैं जो आने वाले समय में सामने आएंगे। यही तनाव और मतभेद भारत को अफगानी लोगों के विश्वसनीय मित्र के रूप में अपनी स्थिति पुन: प्राप्त करने के अवसर प्रदान कर सकते हैं।
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