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पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव एक साथ कराने से देश के करोड़ों रुपए बच सकते हैं। उस पैसे का इस्तेमाल विकास कार्यों में हो सकता है। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को बार-बार चुनाव कार्य में नहीं लगाना पड़ेगा। सरकारी कामकाज एक बार ही बाधित होगा। इससे देश के लोगों का ही भला होगा
के़ सी़ त्यागी
इन दिनों ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का मुद्दा सुर्खियों में है। हाल ही में नई दिल्ली में प्रधानमंत्री के साथ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक के बाद इसकी चर्चा एक बार फिर से तेज हो गई। हालांकि देशभर में लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनावों को एक साथ कराए जाने के विचार पर अब तक राजनीतिक सहमति के आसार नहीं दिख रहे हैं, लेकिन राष्ट्रहित की इस पहल को गैर-राजनीतिक चश्मे से देखे जाने की आवश्यकता है। शुरुआती दौर में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। 1951 से 1967 तक ये सभी चुनाव एक साथ ही संपन्न हुए। 1968-69 के दौरान कुछ विधानसभाओं के पांच सफल वर्ष पूरे नहीं हो पाने की स्थिति में यह प्रक्रिया अनियमितता की शिकार हो गई। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘पंचायत से पार्लियामेंट’ तक के चुनावों को एक साथ कराए जाने के विचार को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल मानकर विपक्ष विरोधी स्वर अख्तियार किए हुए है लेकिन समझने योग्य तथ्य है कि यह कोई नई विषय वस्तु नहीं है और न ही इसे भाजपा या कांग्रेस पार्टी की पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। 1999 में न्यायमूर्ति बी़ पी. जीवन रेड्डी द्वारा चुनाव सुधार पर बनाई गई अपनी रपट में ‘एक साथ चुनाव’ कराए जाने की सिफारिश की जा चुकी है। 2015 में संसद की स्थायी समिति ने भी इस पर सहमति दी है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा भी चिंता जताई जा चुकी है कि देश में पूरे साल कोई न कोई चुनाव चलते रहने के कारण सरकार के सामान्य कामकाज प्रभावित होते हैं। वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बार-बार चुनाव होने से मानव संसाधन पर पड़ रहे भार को लेकर चिंता जताई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लंबे समय से इस विचार के पक्षधर रहे हैं। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी इसके सबसे पुराने पैरोकार रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा कई अवसरों पर इसकी वकालत से संभावनाएं मजबूत जरूर हुई हैं, लेकिन सर्वदलीय सहमति और संवैधानिक सुधारों के अभाव में 2019 तक इसका क्रियान्वयन असंभव प्रतीत होता है।
वर्तमान चुनावी संरचना के अंतर्गत देश का कोई न कोई राज्य चुनाव में व्यस्त रहता है। चुनाव आचार संहिता लागू हो जाने की वजह से सरकार और मतदाता दोनों के रोजमर्रा के कार्य प्रभावित होते हैं। इस दौरान न तो कोई नई नीतिगत घोषणा हो पाती है और न ही क्रियान्वयन की कार्रवाई हो पाती है। मंत्री समेत प्रशासनिक अधिकारियों की चुनावी प्रक्रिया में व्यस्तता की वजह से विकास एवं जनकल्याण के कार्य ठप हो जाते हैं। अलग-अलग चुनावों की वजह से बड़े पैमाने पर सरकारी अधिकारी सामान्य कार्य से मुक्त कर चुनावी प्रक्रिया में तैनात कर दिए जाते हैं। देश में प्रति पांच वर्ष में लोकसभा का चुनाव होता है और प्रतिवर्ष औसतन पांच से सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होते हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के साथ चार राज्यों आंध्र प्रदेश, अरुणाचल, सिक्किम तथा ओडिशा में चुनाव हुए। इसी वर्ष सितंबर में महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए। पुन: अक्तूबर से दिसंबर के दौरान झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव हुए। फरवरी, 2015 में दिल्ली विधानसभा के बाद अक्तूबर में बिहार में चुनाव हुआ। मार्च, 2016 से मई, 2016 तक असम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल में चुनाव हुए। इसके बाद मार्च, 2017 में उत्तर प्रदेश तथा इसके बाद मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड, गुजरात तथा हिमाचल में विधानसभाओं के चुनाव संपन्न हुए। 2018 में त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में चुनाव होने के बावजूद छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा मिजोरम में चुनाव शेष हैं। इस लिहाज से मार्च, 2014 से अब तक 24 राज्यों में चुनाव हो चुके हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि देश में एक चुनाव समाप्त होने से पूर्व दूसरे-तीसरे की घोषणा होती रही है। चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान में लोकसभा चुनाव हेतु 9़ 3 लाख मतदान केंद्र हैं। इनमें चुनाव संपन्न कराने के लिए लगभग 11,00000 लोगों की आवश्यकता होती है। पिछले लोकसभा चुनाव पर लगभग 3,900 करोड़ रु. खर्च हुए थे। इसके अनुपात में निरंतर होते चुनावों के खर्चे और अन्य संसाधनों के इस्तेमाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 2017 के अंत में हुए गुजरात चुनाव में 300 करोड़ रु. खर्च हुए हैं। यही हाल लगभग सभी राज्यों का है। एक साथ चुनाव होने की स्थिति में इसमें कटौती की काफी गुंजाइश है। चुनाव आयोग द्वारा स्थायी समिति को दिए गए एक आंकलन में यह बात सामने आ चुकी है कि सभी चुनाव एक साथ करवाए जाने पर कुल खर्च 4,500 करोड़ रु. का आएगा। चुनाव के दौरान आयोग से लेकर शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, जल और अन्य विभाग के कर्मचारियों के चुनाव में व्यस्त हो जाने के कारण आम जनजीवन सीधे रूप से प्रभावित होता है।
पिछले वर्षों के दौरान ‘चुनाव सुधार’ भी एक अहम विषय बना रहा है। 2017 के बजट में चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से अज्ञात स्रोतों से दिए जाने वाले चंदे की सीमा को 20,000 रु. से कम कर 2,000 रु. तक प्रतिबंधित करने के अलावा चुनावी बांड का प्रचलन सराहनीय है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के तहत उम्मीदवारों को स्वयं और अपने आश्रितों की आय के स्रोत का पूरा ब्योरा फॉर्म-26 में दाखिल करना अनिवार्य किया गया है। न्यायालय के इस फैसले का सभी राजनीतिक दलों द्वारा स्वागत किया जाना मौजूदा चुनावी प्रक्रिया के शुद्धीकरण के प्रयास में एकजुटता रही लेकिन इस दिशा में अभी और परिपक्वता की जरूरत है। एक साथ चुनाव कराए जाने की पहल बड़ा चुनाव सुधार होगी। एडीआर की एक रपट के अनुसार राजनीतिक दलों के कुल चंदे का लगभग 70 से 80 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होता है। चुनावों में अर्थ बल की उपयोगिता से सभी वाकिफ हैं। इस दौरान भारी मात्रा में नकदी और अन्य प्रकार के धन से मतदाताओं को प्रभावित करने की शिकायतें भी होती रही हैं। आयकर विभाग के छापे और चुनाव आयोग की जांच में लगभग प्रत्येक चुनाव में ऐसे दृश्य सामने आते रहे हैं। इस सूरत में कालेधन की व्यवस्था पर लगाम लगा पाना दूर की कौड़ी है। सर्वविदित है कि चुनाव संपन्न कराने और इसकी तैयारियों में प्रचार के दौरान करोड़ों-अरबों की रकम पानी की तरह बहाई जाती है। एडीआर की ही एक रपट की मानें तो वर्ष 2016 में असम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल के चुनावों में विभिन्न दलों द्वारा लगभग 574 करोड़ रु. खर्च किए गए थे जिसका बड़ा हिस्सा प्रचार तंत्र में लगाया गया था। इस बीच ऐसी भी खबरें रहीं कि क्षेत्रीय दलों को चंदे के रूप में 54 करोड़ रु. मिले, जबकि उनका कुल खर्च 274 करोड़ रु. दिखाया गया था। इस व्यवस्था में पारदर्शिता और धन का सदुपयोग दोनों ही नगण्य रह जाते हैं। मौजूदा चुनावी प्रणाली में केंद्र और राज्य सरकार समेत पार्टी तथा उम्मीदवार का मोटा पैसा चुनाव में लगता है। एक साथ चुनाव कराए जाने पर आर्थिक बचत सबसे महत्वपूर्ण होगी। चुनावी आहट मिलते ही जातिवादी, सांप्रदायिक और अन्य तरह की सौदेबाजी की खबरें आम होने लगती हैं। सुरक्षा बलों की कड़ी मौजूदगी के बावजूद इन कृत्यों पर काबू नहीं पाया जा सका है इसलिए विकल्प प्रासंगिक बना हुआ है।
सच है कि केंद्र और प्रदेशों के चुनाव एक साथ कराए जाने की व्यवस्था लागू करना आसान नहीं है। इस दिशा में कई तरह की चुनौतियांं स्वाभाविक हैं। सबसे व्यावहारिक सवाल यह कि वर्तमान संसदीय प्रणाली में बहुमत की सरकार यदि अल्पमत में आ जाए तो उस स्थिति में क्या होगा? इस स्थिति में निश्चित ही पुन: चुनाव की कवायद प्रचलन में है। एक साथ चुनाव कराने के नियमत: भंग लोकसभा या विधानसभा को शेष अवधि तक के लिए स्थगित रखना या फिर बहुमत खो चुकी सरकार का सत्ता में बने रहना भी लोकतांत्रिक जनादेश के लिए अपमानजनक होगा। संविधान के अनुच्छेद 356 के उपयोग तथा उसके बाद की दशा भी चिंता का विषय होगी। जहां तक संविधान में बदलाव कर इस नई व्यवस्था को गति देने का विषय है, इसमें संशोधन के लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी जो वर्तमान परिदृश्य में स्पष्ट नहीं है। इस स्थिति में साफ है कि ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की संकल्पना किसी एक दल के चाहने से पूरी नहीं होगी, क्योंकि इसके लिए सर्वदलीय सहमति जरूरी है। चंूकि यह ऐतिहासिक पहल होगी, इसकी दूरगामी चुनौतियों को भी ध्यान में रखना जरूरी होगा। इस पहल का विरोध करने वाले धड़ों की दलीलें रही हैं कि एक साथ चुनाव कराने से स्थानीय मुद्दों के गौण रह जाने और केंद्रीय सत्तारूढ़ दल को इसका फायदा होने की संभावनाएं बनी रहेंगी। इस तर्क से इतर जब नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लोकसभा चुनाव के दौरान अपने चरम पर थी, तब दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। ऐसा ही उदाहरण ओडिशा, पंजाब, पश्चिम बंगाल तथा बिहार में भी देखने को मिला है। महत्वपूर्ण है कि मुद्दों की प्रासंगिकता स्थान विशेष के लिए भिन्न और संपूर्ण देश के लिए भिन्न हो सकती हैं और यह पूर्णतया मतदाता पर निर्भर करता है कि भिन्न स्तरों हेतु वह किसका चुनाव करता है? निर्दलीय उम्मीदवारों के चयन से भी स्पष्ट होता है कि विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-स्थानीय मुद्दे कारगर रहते हैं।
इस विषय की गंभीरता के मद्देनजर विभिन्न दलों और बुद्धिजीवियों को एकमत करने हेतु कई कार्यक्रम और सेमिनार आदि आयोजित हुए हैं जिसके सकारात्मक-नकारात्मक दोनों की पक्षों की समीक्षा जोरों पर है। गत माह मुंबई में रामभाऊ म्हालगि द्वारा इस विषय पर आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में कई दलों के बड़े नेताओं द्वारा अपने-अपने विचार रखे गए। इस विषय पर जहां तक चुनाव आयोग के मत का सवाल है, उसके लिए ‘एक चुनाव’ का सूत्र बेहद सुविधाजनक हो सकता है। देश एक, मतदाता एक, मतदान केंद्र भी एक, सुरक्षा बल भी एक, प्रक्रिया में शामिल प्रशासनिक और अन्य कर्मचारी भी एक, सब मिलकर चुनाव की सुगमता को चरितार्थ करते हैं। इस पूरे प्रकरण के दौरान एक ही खर्चे और संसाधन के तहत एक से अधिक चुनाव के लिए मतदान करने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। अतिरिक्त खर्चे के रूप में ईवीएम मशीनों की संख्या में बढ़ोतरी लाजिमी होगी। इस पहल से रैलियों, पदयात्राओं समेत बूथ और प्रबंधकीय खर्चे में कई गुना कमी आना स्वभाविक हो जाएगा। इससे करदाताओं की मोटी रकम का इस्तेमाल विकास कार्यों में हो पाएगा।
बहरहाल, प्रधानमंत्री के इस आह्वान पर सभी दलों को तात्कालिक लाभ-हानि के गणित से ऊपर उठकर इसे चुनाव सुधार की पहल मानना चाहिए। इस क्रम में कई राज्यों को अपने पांच वर्ष के कार्यकाल से पहले की कुर्बानी देनी पड़ सकती है। चुनाव आयोग भी सभी दलों के बीच एकमत स्थापित करने को प्रयासरत है। इससे इतर, चुनाव सुधार की दिशा में लंबित अन्य सुधारों पर भी सभी दलों की एकजुटता लोकतंत्र को मजबूत करने वाली होगी। चुनावों में कालेधन के प्रवाह पर अंकुश लगाना भी तात्कालिक जरूरत है। इन तमाम प्रयासों से चुनावी प्रक्रिया दुरूस्त होगी जिसका सीधा असर देश के लोकतंत्र पर पड़ना स्वभाविक होगा। सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि होगी कि वह चुनाव सुधार के इस बड़े कदम को सर्वसम्मति प्रदान कर विश्व के लिए उदाहरणप्रस्तुत करे।
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