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सोशल मीडिया – एक बहन की सोच, जरा आप भी पढ़ें

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Oct 16, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Oct 2017 14:25:09

सन् 1983 में फिल्म आई थी-कुली। अमिताभ बच्चन की शायद यह पहली फिल्म थी जो मैंने टॉकीज में देखी। आठ साल की लड़की जब परदे पर एक ऐसे हीरो को देखती है जो छाती पर हरी चादर लपेटे गोलियां खाने के बाद भी अंत तक मरता नहीं, तो उस हरी चादर के प्रति मन में बड़ी श्रद्धा उपजती है। कितनी शक्तिशाली होगी यह चादर और कितना दयालु होगा उसको बनाने वाला? वह मेरे कोमल मन की गीली मिट्टी पर पहला सेकुलर बीज अंकुरित कर गया। चूंकि मैं ऐसे मुहल्ले में रहती थी, जो मुस्लिम बहुल था और हिन्दू-मुस्लिम मिल-जुलकर रहते थे, इसलिए यह बीज मेरे जन्म के साथ ही पड़ गया था।
मोहर्रम पर बच्चों के लिए ताजियों पर रेवडि़यां उड़ाने को पहले ही लाकर रख देते थे। सुबह से शाम तक हम गुड़ और शक्कर की रेवडि़यां हाथ में पकड़े रहते। आधी ताजियों पर फेंकते, आधी खुद खा जाते और दिनभर चिपचिपे हाथ लिए घूमते रहते। मैं सिर्फ इतना जानती थी कि वे मुस्लिम हैं और उनके भगवान अलग तरह के होते हैं, जिनका हमें भी सम्मान करना चाहिए और पूजना चाहिए। इसलिए जब पापा कहते 'जाओ ताजिये के नीचे से निकलो' तो मैं अन्य हिन्दू बच्चों के साथ भक्ति भाव से प्रार्थना करते हुए नीचे से निकलती। 'कुली' के बाद उस अंकुरित सेकुलर बीज को अच्छा खाद-पानी मिलने लगा। 1988 में 'शहंशाह' देखी तो बालमन पर यह तस्वीर साफ हो गई कि चोरों को पकड़ना इंस्पेक्टर विजय जैसे पुलिसकर्मियों के बस का नहीं। उसके लिए तो रात के अंधेरे में कोई रहस्यमय आदमी निकलता है, जिसका एक हाथ लोहे का होता है और वह बहादुरी से गुनाहगारों को सजा देता है।
इंदौर के मोती तबेला वाले घर में हमारा 40 सदस्यीय संयुक्त परिवार रहता था। घर की महिलाएं फिल्म देखने निकलतीं तो लगता, पूरा मुहल्ला निकला है। मुझे चुनिंदा फिल्में ही दिखाई जाती थीं। हालांकि मैं 16वें सावन में प्रवेश कर चुकी थी, फिर भी बच्ची ही थी। उस समय लड़कियां आज की तरह जल्दी बड़ी नहीं हो जाया करती थीं। 'शहंशाह' के बाद 1991 में 'अजूबा' देखी, जो मेरे लिए सच में अजूबा थी। एक ऐसा शहर जो हमारे देश-सा नहीं है, लेकिन बहुत जादुई है, जहां लोग जब चाहे, चिडि़या जितने छोटे होकर दुश्मन की पगड़ी पर जा बैठते हैं! कहां होगा ऐसा शहर? किसी मुस्लिम देश में ही होगा, तभी अमिताभ बच्चन ने वहां शूटिंग की होगी। किशोर मन की कल्पनाओं में अमिताभ बच्चन का इस्लामिक चरित्र गहरे पैठता जा रहा था। इस सेकुलर पौधे पर जो पहला मीठा फल लगा, वह था 1993 में आई 'खुदा गवाह'। इस बीच, अमिताभ की कई फिल्में देखी होंगी, पर 'खुदा गवाह' का बादशाह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था। खुद को श्रीदेवी समझने लगी थी और इंतजार करने लगी थी अपने सपनों के बादशाह का। एक दिन वह घोड़े पर आएगा और मुझे पिछले जन्म की सारी बातें याद आ जाएंगी। मैं भी ऐसे ही किसी मुस्लिम देश की मलिका थी और मेरा बादशाह अपने वचन की खातिर मुझे छोड़कर चला गया था। मेरा बादशाह आया, पर 35 साल के लंबे इंतजार के बाद। यह क्या? मेरे बादशाह के सिर पर तो ब्राह्मणों जैसी शिखा है! नफासत, नजाकत व तहजीब वाली उर्दू में नहीं, बल्कि क्लिष्ट हिंदी में बात करता है! मुझे मलिका नहीं, देवी कहता है!
लगा, मेरे अंदर के सेकुलर पौधे का खाद-पानी बंद हो गया है, वह सूख रहा है। खुद पर नजर डाली तो हृदय की जिस धरती पर वह बीज बोया था, वहां खुदाई की जा रही थी। शिलालेखों पर पड़ी धूल को झाड़कर उस पर लिखे मंत्रों को वह ऊंची आवाज में सुना रहा था। कई दिनों तक आत्मा की जमीन में दबी मेरी वास्तविक पहचान, जन्मस्थली और परवरिश की परिस्थितियों से बनी इमारत के बीच संघर्ष चलता रहा। बचपन की सारी घटनाएं मेरी आंखों के सामने बिखरी पड़ी थीं। आंखों पर पड़ा परदा हटा तो उभर कर आया 1992 का वह साल जब चारों तरफ राम जन्मभूमि, अयोध्या व कारसेवकों की बातें चल रही थीं। उन दिनों कारसेवकों की हत्या का वीडियो सब जगह फैल गया था। सभी बड़े टीवी में वीसीआर लगाकर देख रहे थे। उस समय यह सब समझ नहीं आया। आज उन दृश्यों को याद करती हूं तो याद आती हैं घर के बड़ों की फुसफुसाहट, सामने मुसलमानों के मुहल्ले से हुई पत्थरबाजी। पापा और चाचाओं के मुंह से तब पहली बार पेट्रोल बम का नाम सुना। घर की महिलाओं को पहली बार इतना सहमा हुआ देखा। दादी कह रही थीं- ''सभी मिर्ची के पैकेट बनाकर अपने पास रखो। दरवाजों के पीछे लोहे के सब्बल छुपाओ। अपनी सुरक्षा की तैयारी तो कम से कम रखनी ही होगी।'' जब पीछे देखती हूं तो लगता है, केवल जन्म व पारिवारिक परिस्थितियां ही नहीं, फिल्में भी अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए अब पूरा प्रयास रहता है कि मैं इस पर ध्यान दूं कि मेरे बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं और उनके बालमन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? पर उस शिखाधारी ब्राह्मण यानी स्वामी ध्यान विनय के घर में जन्मे बच्चों को मुझे कुछ भी अलग से सिखाना नहीं पड़ता। उन पर मुझसे अधिक उनके पिता के संस्कारों का असर है, इसलिए अक्सर वे ऐसे कार्टून देखते मिलते हैं जिसे देख मुझे अपने वास्तविक नायक पर गर्व होता है। कल ही मैंने दोनों को रामदेव बाबा पर एनिमेशन फिल्म देखते और योग करते पाया। आपको यह जानकर अचंभा होगा कि दोनों जब कम्प्यूटर पर राष्ट्रगान का वीडियो लगाते हैं, तो बैठकर नहीं, हमेशा सावधान की मुद्रा में खड़े होकर सुनते हैं। यह तय करने का समय आ गया है कि हमारी आने वाली पीढ़ी के मन में किन नायकों के संस्कार को डालना है।    (संजय गुप्ता की फेसबुक वॉल से)

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