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अपनी बात :आड़… और घुसपैठियों की बाढ़

by
Sep 11, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Sep 2017 10:56:11

यदि हम अतीत से नहीं सीख सकते तो भविष्य में और गहरी चोट खाने के लिए तैयार रहना चाहिए। व्यक्ति और समाज दोनों पर यह बात समान रूप से लागू होती है। ज्यादा समय नहीं हुआ, केवल पांच वर्ष पहले असम के बोडो क्षेत्र में भारी हिंसा और उत्पात मचा था। हिंसा थमने के बाद अध्ययन दल ने पाया कि दंगे की शुरुआत बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा पूर्व नियोजित तरीके से हुई और यह खूनी षड्यंत्र राजनीति से प्रेरित था।  किन्तु बांग्लादेशी घुसपैठियों पर सुभीते की राजनीति करने वाली बिरादरी इन जमीनी तथ्यों को अनदेखा कर मुस्कुराती रही।
इसके एक वर्ष बाद 7 जुलाई, 2013 को बिहार के बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर में एक-एक कर दस धमाके हुए। यूनेस्को विश्व विरासत स्थल पर हुए धमाकों की जिम्मेदारी लेने वाले आतंकियों का गुस्सा म्यांमार सरकार पर था जो उत्पाती रोहिंग्या मुसलमानों से सख्ती से पेश आ रही थी। इसके तीन माह बाद ही 27 अक्तूबर को भाजपा की चुनाव पूर्व रैली के दौरान पटना को नौ धमाकों ने थर्रा दिया। छह लोग मारे गए और अठारह ऐसे बम मिले जो फटने से रह गए थे। जांच एजेंसियों ने बताया कि इसके पीछे भी रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों के हमदर्द इंडियन मुजाहिदीन का हाथ है। लेकिन सेकुलर राजनीति तब भी मौन साधे बैठी रही।
अब जब केन्द्र सरकार ने राज्यों से रोहिंग्या घुसपैठियों की पहचान करने के लिए कहा है तो सेकुलर राजनीति की कराह फिर उठी है—रोहिंग्याओं को कुछ न कहो। मानवता की खातिर, सबको जगह देने वाली हिंदू सहिष्णुता की खातिर और सबसे बढ़कर..सेकुलर राजनीति के अदद, थोक वोटबैंक की खातिर..
सवाल है—क्या घुसपैठ जैसे गंभीर मुद्दे पर घटिया राजनीति की छूट दी जा सकती है? क्या म्यांमार द्वारा मुस्लिम अतिवाद पर सख्ती बरतने पर भारतीयों का खून बहाने, हमारे पवित्र विरासत स्थलों को आतंकी निशाना बनाने और इस दहशत की आड़ में रोहिंग्या घुसपैठियों के लिए जमीन तैयार करने की इजाजत दी जा
सकती है?
मजबूत सरकार है तो शासन-प्रशासन सख्त क्यों न हो! देश को इसका लाभ क्यों न हो? सही-गलत का अंतर क्यों न हो? वैध शरणार्थी और अवैध घुसपैठियों में अंतर क्यों न हो? घुसपैठ के मुद्दे पर अदालतें सख्त क्यों न हों!
सवाल यह भी है कि देश के आर्थिक हितों और सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों को गहरे प्रभावित करने वाला यह जोर-जबर भारत के भीतर और इस देश के साथ भला क्यों चलना चाहिए!
म्यांमार का कहना है कि रोहिंग्या उस देश के जनजातीय समाज का हिस्सा नहीं हैं बल्कि बांग्लादेश से आकर जमे घुसपैठिए हैं। म्यांमार में भारत कोई पक्ष नहीं है! बांग्लादेशी मुसलमानों की दुर्दशा के लिए भी भारत जिम्मेदार नहीं है! दोनों ही जगह से भारत की ओर उमड़ती बाढ़ मुस्लिम है। किन्तु क्यों मुस्लिम देशों में इन्हें जगह देने के लिए गुंजाइश और सदाशयता नहीं दिखती? क्यों भारत से ही इन्हें जगह देने की उम्मीद की जाती है! इस देश के विधिसम्मत नागरिक घुसपैठियों का बर्बर आतंक और संसाधनों पर बेजा कब्जेमारी भला क्यों झेलें?
यह तथ्य है कि कांग्रेस शासनकाल में घुसपैठ को लेकर सरकार और प्रशासन का रुख लचर ही रहा। जानकार मानते हैं कि इस कारण यह बीमारी इतनी बढ़ी कि बंगाल और असम में मुस्लिम घुसपैठियों ने कई क्षेत्रों के जनसंख्या संतुलन को गड़बड़ा दिया। जनजातीय पहचान मटियामेट कर दी। रोहिंग्या घुसपैठ के रूप में इसकी अन्य खेप जम्मू-कश्मीर और दिल्ली तक आ जमी।
तथ्य यह भी है कि ये घुसपैठी जत्थे जैसे निरीह, लुंज-पुंज और निहत्थे बताए जाते हैं, वास्तविकता में वे ऐसे नहीं हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इनका कोई माई-बाप, कोई संगठन और इस्लामी देशों में कोई सरपरस्त नहीं है। म्यांमार में अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी हाल में पुलिस और सेना के 20 जवानों की जान ले चुकी है। 25 अगस्त को ही एक बड़े हमले में इन्होंने दर्जनभर लोगों को मौत के घाट उतार दिया। म्यांमार सरकार और इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (आईसीजी) की रिपोर्ट बताती है कि इन खूंखार रोहिंग्याओं को विदेश में प्रशिक्षित किया गया है और इनके आका पाकिस्तान और सऊदी अरब से संबंध रखते हैं।
जाहिर है, सेकुलर राजनीति की सुविधा की खातिर भारत इन तथ्यों और गंभीर खतरे की अनदेखी नहीं कर सकता। सरकार ने सख्ती की वही मुद्रा दिखाई जो अपेक्षित और चिरप्रतीक्षित थी।
बहरहाल, जैसा  पहले कहा, समय सबसे बड़े सबक देता है। भले ही चोटों के साथ।
समय से चेतना, संभलना यह व्यक्ति और समाज की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र और उदार मूल्यों की आड़ बनाकर की जा रही क्षुद्र स्वार्थों भरी राजनीति यदि किन्ही कारणों से समय के इन पाठों को याद नहीं रखती तो वह भी इन बर्बर चोटों की भेंट चढ़ जाती है। लोकतंत्र, विविधता और मानवीयता की बातें इतिहास बन जाती हैं। उन्माद और रोग का तुष्टीकरण किसी का पुष्टिकरण नहीं करता..सब लील जाता है। जैसे.. अफगानिस्तान! समय की परतों में अफगानिस्तान भी तो कभी बौद्ध था, म्यांमार की ही तरह!

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