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शिखा गुप्ता एक बेहद संवेदनशील कवयित्री हैं। अपनी कृति ‘धूप का टुकड़ा तेरा है’ में वह लिखती हैं कि मन के भाव कभी-कभी नदी की मानिंद उन्मुक्त होकर बहते हैं, लेकिन कभी-कभी ये किसी बांध में एकत्रित जल की तरह हफ्तों और महीनों तक पड़े रहते हैं। तब इन्हें शब्दों का आकार देने के लिए मन अकुलाता और छटपटाता है। कभी-कभी इन मनोभावों को शब्द-आकार देने में जो पीड़ा होती है, उसे उन्होंने कविता के जन्म से पूर्व की प्रसव पीड़ा की संज्ञा दी है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, ‘‘जिस तरह आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।’’ शिखा गुप्ता की रचनाओं पर यह बात सटीक बैठती है। उनकी कविताएं भाव को बिम्ब अथवा चित्र के रूप में धारण करती हैं। वह जीवन, समाज और आसपास के माहौल से मार्मिक तथ्यों को चुनती हैं और कल्पना के सहारे उनकी मार्मिकता को सघन और प्रभावी रूप में चित्रित करती हैं। यह एक दुरूह कार्य है, जिसे कोई संवेदनशील कवि ही कर सकता है। भावावेग को शब्दों में ढालना वैसे भी सरल नहीं होता है। कवयित्री ने जीवन के उतार-चढ़ाव से उपजी संवेदनाओं को कविता में ढाला है। कुछ रचनाओं में प्रयुक्त शब्द शिल्प के तो क्या कहने! सच है मन की गति बेहद तीव्र होती है। मन बार-बार उन रास्तों पर ले जाता है, जो काफी पीछे छूट गए होते हैं। पहली कविता मन के इसी भागमभाग से प्रस्फुटित हुई है-
धुंधलायी यादों को/क्यूं सहलाता है मन/अपनों की भीड़ में/खुद को कर पराया/क्यूं सपनों के छलावे से/बहल जाता है मन नारी विषयक उनकी कई कविताएं स्वस्थ-सकारात्मक दृष्टिकोण लिए हुए हैं, जिनके जरिये वह नारी की क्षमताओं को उकेरती हैं, उन्हें समृद्ध करना चाहती हैं और उनमें चेतना का संचार भी करना चाहती हैं। यह सोच कर ही रूह कांप जाती है कि कोई शख्स किसी लड़की पर तेजाब कैसे फेंक सकता है। कोई निष्ठुर, पाषाण हृदयी और मानसिक तौर पर रुग्ण व्यक्ति ही ऐसा जघन्य कार्य कर सकता है। केवल इस बात के लिए कि लड़की ने उसके प्रेम अनुनय को स्वीकार नहीं किया! ऐसी घटनाएं हर किसी को विचलित करती हैं। कवयित्री का विचलित होना तो और भी स्वाभाविक है। पीड़िता पर क्या-क्या गुजरती होगी, एक नारी होने के नाते शिखा उस पीड़ा को भी आकार देती हैं-
मेले थे जिन राहों में/नागफनी उग आई है/अपनी ही मंजिल है पर/खुद से ही कतराई है
एक ओर उनकी कुछ कविताओं में संबंधों के कुछ बुने-अधबुने नाजुक रेशे, विरह, खालीपन या अकेलेपन की झलक मिलती है। दूसरी ओर, वह पतझड़ के झड़ते पत्तों को उदासी का प्रतीक भी नहीं मानती हैं, बल्कि उसे वसंत का प्रतीक मानती हैं। इसलिए उन झड़ते पत्तों को वह प्रसन्न मन से विदाई देती हैंं।
भीगा मन है रिसती आंखें/कौन किसे समझाए/शोर बहुत हैं सन्नाटे में/अपने हुए पराए अब जरा इन पंक्तियों को देखें-
लिखे जिन पर प्रेम गीत/कोमल शृंगारित राग/नहीं शोभता हमको/उन पातों से बैराग।
इतनी गहरी बात कोई वही कर सकता है, जो बेहद संवेदनशील हो। इतना ही नहीं, मौजूदा दौर में हावी होती आधुनिकता और उत्सव को भुनाते बाजार भी उन्हें भीतर तक झकझोरते हैं और यह सोचकर कवयित्री का मन घबराता है कि ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की संस्कृति हमें किस दिशा में ले जा रही है? कुछ जगहों पर उन्होंने रुपकों का भी प्रयोग किया है, जबकि कई कविताएं तो ऐसी हैं जो मन के कैनवास पर चित्र उकेरती चली जाती हैं। शब्दश: अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं।
पहुंच समीप भोर के द्वारे/रात के चक्के हांफ रहे थे/मयंक स्वेद-कणों के मनके/पंखुरियों पे कांप रहे थे
दरअसल, शिखा की अमूमन हर रचना संवेदनाओं के बेशकीमती टुकड़े हैं, जिन्हें उन्होंने जाने कब से संजो कर रखा होगा जो अब धरोहर बन गए हैं। शिखा अपने अधिकारों को लेकर भी सजग हैं। वह पूछती हैं कि अपने मन का जीना स्त्री के लिए स्वार्थ कैसे है? साथ ही, अधिकार भाव से कहती हैं कि मुझे जीना है, मन का भी और मन भर भी। खासकर जिस कविता की पंक्ति को उन्होंने पुस्तक का शीर्षक बनाया है, उसमें दुख, पीड़ा और उदासी के बावजूद नई उम्मीद का ताना-बाना दिखता है।
मन में रख विश्वास घनेरा/कल फिर एक सवेरा है/सूरज गर ना भी मिल पाए/धूप का टुकड़ा तेरा है
पुस्तक की भूमिका अशोक चक्रधर और दिनेश रघुवंशी सरीखे कवियों ने लिखी है। अशोक चक्रधर लिखते हैं- नदी का उन्मुक्त प्रवाह तब होता है, जब भावों का आवेग बहुत तीव्र होता है। भावावेग बिना अनुभवों के नहीं आते। बड़ी कविता वही होती है जो सबको लगे कि यह उसके अपने मन की कविता है। शिखा की रचनाएं पाठकों और श्रोताओं को यह अहसास कराने में अवश्य सफल होंगी।
नागार्जुन
पुस्तक का नाम : धूप का टुकड़ा तेरा है
लेखिका : शिखा गुप्ता
मूल्य : 250 रु.
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110092
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