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ऐसे समय में जब चीन एशिया में दबंगई पर उतारू दिखता है, भारत समन्वय और सहयोग के नए वैश्विक समीकरण गढ़ रहा है। लेकिन क्या चीन को इससे कोई फर्क पड़ता है? ऊपरी तौर पर वह चाहे जितना स्थिर और विशाल दिखे किन्तु यह पक्के तौर पर माना ही जाना चाहिए कि भारत की कूटनीतिक सक्रियता ने चीन के सत्ता गलियारों में बेचैनी और थरथराहट पैदा कर दी है।
यह अकारण नहीं था कि सिक्किम सीमा पर धींगामुश्ती और गतिरोध की कहानी ठीक 26 जून को उखड़कर सामने आई। भारत-अमेरिकी सहयोग का यह नया अध्याय वह चरम बिन्दु था जब चीनी बौखलाहट डोकलम के बहाने फूट ही पड़ी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐतिहासिक इजराइल दौरे और इसके अभूतपूर्व प्रतिसाद ने ड्रेगन की मरोड़ और बढ़ा दी है। विश्व राजनीति में तेजी से बदलते समीकरणों का यह ऐसा दौर है जब छोटी बातों की अनदेखी बड़ी भूल साबित हो सकती है। लेकिन इस अहम मौके पर चीन तीन बातें भूल रहा है :
’ पहली बात, भारत और भूटान के बीच परस्पर सहयोग की अंतरराष्टÑीय स्तर पर स्वीकृत संधियों की परंपरा है जबकि चीन के साथ भूटान का कोई संधि समझौता नहीं है। ऐसे में भूटान के साथ खड़ा भारत अवांछित पक्ष नहीं है बल्कि 269 वर्ग कि.मी के भूटान प्रशासित डोकलम में घुसपैठ करने वाला चीन ही अवैध अनचाहा पक्ष है।
’ दूसरी बात यह कि चीन भारत के बारे में चाहे जो कहे, किन्तु अब उसकी झूठी प्रतिक्रियाओं के सामने सत्य का भूटानी प्रत्युत्तर है। भूटान के राजदूत ने 28 जून को यह साफ कर दिया कि चीन ने इस छोटे हिमालयी देश की संप्रभुता पर चोट की है और भूटान ने इसके विरुद्ध स्पष्ट आपत्ति दर्ज कराई है।
’ तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, भारतीय राजनय अब किसी को नाराज न करने की रीत छोड़कर संबंधों को साफ-स्पष्ट रखने की लीक पर चल रहे हैं। हम इजराइल के प्रति गर्मजोशी इसलिए नहीं दिखाएंगे कि फिलिस्तीन उबाल खा जाएगा.. वे दिन गए। हम तेल उत्पादक इस्लामी देशों से तेल की बजाए कश्मीर पर समर्थन की ज्यादा अपेक्षा रखेंगे वे दिन भी गए।
ऐसे में तीनों स्थितियों को दृष्टिगत रख भूटान-भारत सीमा पर हालिया चीनी गतिरोध का आकलन करते हुए विधिपूर्ण दृष्टिकोण से देखें तो तस्वीर साफ है। संप्रभुता, संप्रभुता होती है। अंतरराष्टÑीय फलक पर यह छोटी-बड़ी नहीं अपितु किसी देश की ऐसी अखंड पावन भावना के तौर पर दर्ज की जाती है। ऐसी भावना जिसकी सुरक्षा और सम्मान सबके लिए बाध्यकारी तौर पर आवश्यक है। सो, चीनी हेकड़ी ज्यादा नहीं चलने वाली।
दुखद बात यह है कि जिस दौर को दुनिया एशिया की उठान और अगुआई के दौर के रूप में देख रही थी, लगातार बढ़ती चीनी साम्राज्यवादी लिप्सा ने उस पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
चीन चाहता है कि भारत पंचशील की ‘भावना’ याद रखे। उसे भी चाहिए कि वह पंचशील से जुड़ा ‘तिब्बत’ याद रखे। क्योंकि यह समझौता तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार के बारे में ही है। अकेले पंचशील का और इसमें भी सिर्फ भारत द्वारा इसकी भावना का सम्मान करने का क्या अर्थ रह जाता है? चीन यह भी चाहता है कि भारत 1962 याद रखे। ऐसे में चीन को चाहिए कि वह 1967 भी ठीक से याद रखे। ठीक है कि ’62 में भारत ने एक ठोकर खाई थी किन्तु उस घटना को सैन्य विफलता से ज्यादा ‘राजनीतिक अदूरदर्शिता से उपजी आपदा’ कहना ठीक है। यह ऐसा झटका था जिसके बाद प्रधानमंत्री नेहरू ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ की गुलाबी गलतफहमियों से बाहर आ गए थे और उन्होंने माना था कि ‘‘भारतीय अपनी समझ की दुनिया में रह रहे थे।’’ चीन के बारे में भारत की गलतफहमियों के दूर होने का ही नतीजा था कि ’67 में नाथूला के मोर्चे पर चीन ने मुंह की खाई थी। ’62 के नतीजे भुगतने की भभकियां और गर्मागर्मी के तेवर तब भी आज जैसे ही थे लेकिन सच्चाई यह है कि तब चीन की जो दुर्गति हुई, वह आज उसके जिक्र मात्र से घबराता है।
बहरहाल, चीन चाहता है कि दुनिया ‘वन चाइना’ की नीति पर मुहर लगाए और उसकी बातों का समर्थन करे। पर अंतरराष्टÑीय स्तर पर पारदर्शिता और वचनबद्धता के बिना यह बात संभव नहीं है। चीन दुनिया में बारी-बारी से अलग-अलग देशों या क्षेत्रों की संप्रभुता और जनभावनाओं को रौंदेगा और बाकी सब चुप बैठे देखेंगे, उसका ऐसा सोचना भी भूल है। भारत की आजादी तक तिब्बत स्वतंत्र देश था। परंतु तिब्बत के मुद्दे पर क्या स्वयं तिब्बतियों से कोई सलाह ली गई? ताइवान की राष्टÑपति को ट्रम्प के एक फोन से बौखला जाने वाला चीन ताइवान को अपना कहता है तो इसके लिए उसने उसकी सहमति ली है? विश्व बिरादरी ने उसे इसका हक दिया है? दक्षिणी चीन सागर के स्वतंत्र व अन्य देशों की दावेदारी अथवा आपत्तियों वाले क्षेत्र में सैन्य जमावड़े से पूर्व उसने किसकी अनुमति ली है? चीन ज्यादा तर्क देगा तो दुनिया के तरकश में उसकी काट के लिए हजार तीर हैं। यदि चीन को लगता है कि उसकी चाह ही बाकियों की भी राह है तो वह गलत है। यदि चीन को लगता है कि दुनिया उसकी अनुमतियों से चलगी और बाकियों को उसकी रजामंदी लेनी होगी तो भी वह गलत है।
ऐसे में चीन के लिए सही यही है कि वह अपनी गलतियां दूसरों पर थोपने से बाज आए क्योंकि परस्पर सहमति से बढ़ती दुनिया में विकास की संभावनाएं भले अथाह हों, किसी एक की हेकड़ी को बर्दाश्त करने वाली सहनशीलता अब इस दुनिया में नहीं है।
सो ड्रेगन भाई जरा ठंड रखो, क्योंकि शांति का यह हिमालय पिघला तो बड़ी दिक्कत होगी।
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