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माधवी (परिवर्तित नाम ) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और साथ ही अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता इतनी कोमल है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है।
अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
इन विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढ़िए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
आज जिस घटना के बारे में लिख रही हूं, वह करीब 15 दिन पुरानी है। मेरे दफ्तर में एक बुजुर्ग सफाईकर्मी हैं, जिनको मैं दादा बुलाती हूं। सुबह जब मैं दफ्तर आती हूं तो गार्ड और उनका मुस्कुराता चेहरा देखती हूं। वे मेरी हर छोटी-बड़ी जरूरत का ध्यान रखते हैं। रोज बिना पैसे मांगे अपनी जेब से पैसे लगा कर चाय का प्याला मेरी मेज पर रख जाते हैं। एक दिन पहली मंजिल पर काम कर रही थी। वहां संपादकीय टीम की सुबह की मीटिंग भी चल रही थी। इसी बीच, दादा आए और मेरे पीछे खड़े हो गए। धीरे से बोले, ‘‘मैडम 100 रुपये चाहिए।’’ सुनकर थोड़ा अटपटा लगा, क्योंकि बॉस और सारे रिपोर्टर मुझे देख रहे थे। मैंने उन्हें मीटिंग के बाद आने को कहा। इस बीच, मन में सवाल उठने लगे कि अचानक ये मुझसे पैसे क्यों मांग रहे हैं? शराब पीने के लिए तो नहीं मांग रहे? एक बार दे दूंगी तो कहीं आदत ही न बना लें। अभी यही सब सोच रही थी कि दादा फिर आ गए। मैने पर्स से 100 रुपये का नोट निकालकर दे दिया और वे बिना कुछ बोले पैसे लेकर चले गए।
शाम को घर जाते समय वे नीचे खड़े मुस्कुराते दिखे। जवाब में मैं भी छोटी-सी मुस्कान देकर चली गई। अगले दो दिन वे दफ्तर नहीं आए। तीसरे दिन सुबह-सुबह चाय लेकर ऊपर आए। मुझसे कहने लगे, ‘‘मैडम उस दिन मेरी तबीयत बहुत खराब थी। मेरे पास दवाई लेने के लिए पैसे नहीं थे। आपने एक बार में ही पैसे दे दिए। जिंदगी भर आपका आभारी रहूंगा। अभी मेरा वेतन नहीं आया है। आते ही पैसे लौटा दूंगा।’’ यह सुनकर मेरा दिल बैठ-सा गया। मन ही मन खुद को कोसने लगी। बिना कुछ सोचे-समझे उस बुजुर्ग व्यक्ति की नीयत पर कैसे शक कर बैठी? आंखों में आंसू आ गए, पर इस बात की तसल्ली हुई कि दादा को समय पर पैसे मिल गए। उनकी तबीयत सुधर गई।
तीन-चार दिनों के बाद दादा फिर मेरे पास आए तो मैंने उनकी बात सुने बगैर पूछा- ‘‘कितने रुपये और चाहिए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘मैडम और पैसे नहीं चाहिए। बस आपके 100 रुपये नहीं दे पा रहा हूं। आप भी सोच रही होंगी न कैसा आदमी है। पैसे लेकर दे नहीं रहा। वेतन नहीं आया है।’’ यह सुनकर फिर दिल भर आया। उनसे कहा, ‘‘दादा आपकी बेटी हूं। इतना तो कर ही सकती हूं। रुपये लौटाने की जरूरत नहीं है।’’ इस पर फिर वो बोले, ‘‘नहीं मैडम, मैं रुपये लौटाऊंगा।’’ उनका मान रखते हुए मैंने उनसे कहा, ‘‘जब आपका वेतन आ जाए तो दे देना।’
कल घर जाते हुए वे 100 रुपये का नोट लेकर मेरे सामने खड़े हो गए। प्यार से कहने लगे, ‘‘आपके 100 रुपये उस समय मेरे लिए 10,000 रुपये के बराबर थे। अब आप इसे रखो। मेरे पास पैसे आ गए हैं।’’ चूंकि मैं पहले ही उनकी नीयत पर शक करके शर्मिंदा थी इसलिए कहा, ‘‘आप इसे रखो और 100 रुपये से एक कप चाय रोज सुबह पिला देना।’’ यह सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उनकी खुद्दारी देखकर लगा… दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। बस हमारी नजरें उन तक नहीं पहुंच पातीं। पापा कहते हैं कि हर खूबसूरत चीज में परमात्मा का अंश होता है। उस दिन उनकी अच्छाई में मुझे परमात्मा का अंश दिखा। सोचने लगी- अमीरों का जमीर जिंदा रहे न रहे, पर गरीब अपने सम्मान एवं स्वाभिमान से कभी नहीं डिगता। अनजाने ही सही, मगर मेरे जैसे करोड़ों लोग बेवजह उनकी मजबूरी और जरूरत का सच जाने बगैर उनकी नीयत पर सवाल खड़े कर देते हैं। आखिर मदद का हाथ बढ़ाकर भी तो हम उनके चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास कर सकते हैं। ल्ल
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