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रमजान का महीना है। पाक महीना!
अगर मुस्लिम इसे पाक कहते हैं तो बाकी लोग क्यों उनकी बात पर भरोसा करें? लंदन, काबुल या ईरान? इस्लामी आतंकी इस दौरान 500 से ज्यादा जानें ले चुके हैं?
दुनियाभर में उठ रहे प्रश्नों के इस तीखेपन ने उन कोनों-कंदराओं तक मार की है जहां इस्लाम के पैरोकार हर आतंकी घटना के बाद छिप जाते थे। इस बार जवाब आया है। ब्रिटेन में 130 से अधिक इमामों और मौलवियों ने लंदन ब्रिज पर हमला करने वाले मृत आतंकियों की मिट्टी ‘पलीद’ कर दी है। पूरे देश के इमामों, मौलवियों और मुस्लिम विद्वानों ने एक साझा सार्वजनिक बयान में न केवल आतंकियों के लिए जनाजे की नमाज पढ़ने से मना कर दिया बल्कि दूसरों से भी ऐसा ही करने को कहा। यह बहुत अच्छी बात है कि प्रतिकार की आवश्यक भंगिमा खुद मुस्लिम जगत से दिखी। यह इस बात का भी नमूना है कि कैसे एक छोटी घटना भविष्य के बड़े परिदृश्य का संकेतक बन जाती है। भविष्य क्या है? आतंकवाद की छंटाई के लिए दुनिया भर में एका।
हर बार हमला होता था पर ऐसा कुछ नहीं होता था। लंदन ब्रिज हमले के बाद इस्लामी उन्माद पर वैश्विक रोष की जोरदार लहर ने तय कर दिया कि चीजें सदा एक-सी नहीं रह सकतीं। हर बात में ‘मुस्लिम साथ-साथ’ और ‘इस्लाम का कोई दोष नहीं’ की बात अब ज्यादा नहीं चल सकती। इस्लामी जगत में आतंकवाद पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। बात सिर्फ लंदन के मौलवियों की नहीं है, कतर को आतंकियों का हमदर्द बताकर खाड़ी के प्रमुख देशों ने उससे राजनयिक और हवाई, सभी रिश्ते तोड़ लिए हैं। लेकिन यह भी काफी नहीं है। मुस्लिम ब्रदरहुड और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी समूहों की मदद के आरोपों के बाद कतर के ‘पर कतरने’ की कवायद ठीक भले लगे परंतु यह बहुत छोटा कदम है। यह आज की सचाई है कि इस्लामी उन्माद मुस्लिम देशों के भूगोल से बाहर वैश्विक सिरदर्द का रूप ले चुका है। ऐसे में आतंकवाद के खिलाफ केवल मुस्लिम देशों की लामबंदी से बड़ी उम्मीदें पालना गलत होगा। कतर अकेला क्या कर लेगा? और सिर्फ कतर को घेरकर क्या हासिल होगा? क्या यह सच नहीं कि इस्लामी उन्माद का सबसे बड़ा वहाबी इंजन ‘सऊदी हमदर्दी’ से चलता है?
ऐसे में सिर्फ कतर को प्रतिबंधित करना अधूरा और गलत कदम होगा। उलटे यह कदम आतंकवाद से लड़ाई को इस्लाम के गंभीर आंतरिक संघर्षों में भटका सकता है। इससे मुस्लिम जगत की आंतरिक शिया-सुन्नी राजनीति के गहराने और तेल के दामों में वैश्विक उथल-पुथल मचने का अंदेशा है। कतर को अलग-थलग करने की कवायद में शुरुआती तौर पर यही आशंकाएं सामने आई हैं। खाड़ी सहयोग परिषद् में फांक पड़ गई है। सऊदी अरब, बहरीन, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात एक ओर हैं तो कुवैत और ओमान कतर के साथ खड़े हो गए हैं। बहस अब आतंकवाद से ज्यादा धड़ेबाजियों की ताकत और इससे तेल उत्पादन की
रफ्तार के घटने-बढ़ने व दामों पर पड़ने वाले फर्क की ओर मुड़ने लगी है। सवाल है-
’ क्या इस खींचतान और लाभ-हानि से आतंकवाद को परास्त किया जा सकेगा?
’ जब आतंकी ईरान की संसद तक घुस आए हों तब क्या दुनिया हाथ पर हाथ धरे ‘तेल की धार’ देखती रह सकती है?
’ क्या इससे बाकी दुनिया को फर्क पड़ता है कि ‘काफिरों’ की जान लेने वाला शिया है या सुन्नी?
तो बहस को और बहकाया क्यों जाए?
वैसे भी, क्या जो आरोप कतर पर हैं वही काम पाकिस्तान लंबे अरसे से नहीं करता रहा? वैसे भी, आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम एकता की सफलता पर संदेह करने की एक और बड़ी वजह खुद पाकिस्तान है। जी हां, ओसामा बिन लादेन और हाफिज सईद जैसे कुख्यात आतंकियों को शह देने वाला और तालिबान को पोसने वाला पाकिस्तान। पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख राहील शरीफ के हाथों में जब से आतंकवाद के विरुद्ध इस्लामिक देशों के सैन्य गठजोड़ की कमान आई है, तब से यह सवाल ही बेमानी हो गया है कि आतंकवाद से लड़ाई में मुस्लिम देशों की कोई रुचि है भी या नहीं।
सो, खाड़ी देशों की पहल या ब्रिटिश मौलानाओं के नमाज-ए-जनाजा से इनकार का स्वागत करते हुए भी इससे ज्यादा उम्मीदें मत पालिए। क्योंकि इस तरह के गठजोड़ों में पाकिस्तान, और मौलानाओं की जमातों में तालिबान, हर जगह मौजूद हैं। इनकी मौजूदगी आतंक को मात देने की बजाय बाकियों को गच्चा देते हुए कट्टरता को पोसने के लिए ही है। इसलिए भंगिमाओं का संज्ञान लेना और आतंकवाद के मूल प्रश्न को तेल पर फिसलने से बचाना जरूरी है। आखिरकार, इस्लामी आतंक से लड़ाई एक ऐसा विषय है जो गैर मुस्लिमों को साथ लिए बिना पूरा हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह लड़ाई मूलत: है ही उन लोगों के विरुद्ध जिनका इस्लाम से कुछ लेना-देना नहीं है।
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