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पेरिस समझौते से अमेरिका के हटने से भू-राजनीति में एक नए समीकरण का सूत्रपात। चीन के खुद को पर्यावरण के प्रति ‘चिंतित’ दिखाकर कमान हाथ में लेने की संभावना
जे.के. त्रिपाठी
विगत 1 जून को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्टÑपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने वादे के अनुसार, अपने देश को 2015 में हस्ताक्षरित पेरिस पर्यावरण समझौते से हटाने की घोषणा कर दी। ट्रंप ने जहां अपने कदम को सही साबित करने के लिए बेरोजगारी, आर्थिक बोझ और ‘अमेरिकन फर्स्ट’ के तर्क दिए, वहीं इस कदम की अमेरिका और अन्तरराष्टÑीय स्तर पर आलोचनाएं भी हुर्इं।
स्वयं ट्रंप प्रशासन में इस फैसले पर सर्वसम्मति का अभाव यह दर्शाता है कि यह कदम राष्टÑपति की जिद का नतीजा है। अन्तरराष्टÑीय स्तर पर अधिकांश देशों ने ट्रंप प्रशासन के इस कदम की आलोचना की है। इटली, जर्मनी और फ्रांस ने एक साझा बयान में अमेरिका के इस कदम को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। जापान, कनाडा और मैक्सिको ने भी इसकी आलोचना की है। रूस और चीन ने पेरिस समझौते का पक्ष लिया है, वहीं न्यूजीलैंड ने गहरी निराशा व्यक्त की है। संयुक्त राष्टÑ महासचिव ने भी इस निर्णय को बड़ी भारी निराशा बताया है।
यह विश्लेषण का विषय है कि इस निर्णय का विश्व समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ेगा। फ्रांस ने तो ट्रंप के इस सुझाव को सिरे से नकार दिया है कि समझौते की धाराओं को अमेरिका के पक्ष में अधिक लचीला करने पर पुनर्विचार किया जाए। अमेरिका की इस समझौते में अनुपस्थिति से चीन, जो वर्तमान में सर्वाधिक प्रदूषणकारी देश है, विश्व-समुदाय का नेतृत्व करने आगे आ सकता है ताकि उसे यह दिखाने का अवसर मिल जाए कि वह पर्यावरण संरक्षण के लिए सच में प्रयासशील है। जर्मनी, फ्रांस और जापान जो अमेरिका से टीटीपी को लेकर पहले ही रुष्ट हैं, विदेश व्यापार को गैर-अमेरिका बाजारों में बढ़ाने के लिए नए प्रोत्साहन दे सकते हैं। अमेरिका के इस निर्णय का पर्यावरण संरक्षण कोष पर निश्चिय ही दुष्प्रभाव पड़ेगा। प्रस्तावित कोष की मूल राशि 100 अरब डॉलर में से अमेरिकी भागीदारी केवल 3 अरब डॉलर है, जिसमें से वह अभी तक केवल कुल प्रस्तावित राशि का मात्र एक प्रतिशत दे पाया है। इससे विकसित देशों को भी अपनी भागीदारी न निभाने का बहाना मिल सकता है। इस कोष के संकुचित होने से विकासशील देशों को नई स्वच्छ तकनीक खरीदने में समस्या होगी। फलत: प्रदूषण मुक्ति का मार्ग कठिनतर हो सकता है। भारत जैसे देशों के लिए स्वच्छ तकनीक अपने बूते खरीद सकने की असमर्थता सारी कवायद को अगर रोक नहीं पाएगी तो धीमी अवश्य कर देगी।
इस अमेरिकी निर्णय के एक नजीर बन जाने का खतरा भी है। अंतरराष्टÑीय एवं क्षेत्रीय संगठनों को कमजोर करने के लिए आइसीजे, डब्ल्यूटीओ आदि इस कदम के संभावित शिकार हो सकते हैं। संयुक्त राष्टÑ संघ से अमेरिका को हमेशा शिकायत रही है।
जिन देशों की पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता है, उन पर अमेरिका के इस कदम का विपरीत प्रभाव पड़ेगा (जैसे विकासशील देश, जो उन्नत स्वच्छ तकनीक अपने बूते पर नहीं खरीद सकते), उन देशों के साथ अमेरिका के विदेश व्यापार में कमी आ सकती है। ऐसी स्थिति में यदि चीन और जर्मनी आदि विकासशील देशों की सहायता को आगे आते हैं (भले ही उनका यह प्रयास आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित हो) तो आर्थिक दृष्टि से विश्व का एक नया स्वरूप सामने आ सकता है, जहां अमेरिका की प्रभुता के बजाए चीन की दादागीरी चलेगी।
(लेखक विभिन्न देशों में भारत के राजदूत रह चुके हैं)
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