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असली गोभक्ति वह है जो सार्वजनिक जीवन में गाय की सर्व स्वीकार्य प्रतिष्ठा करवाए न कि कानून हाथ में ले कानूनन हारे हुए विपक्ष में जान फूंकने वाली प्रतिक्रियाएं पैदा करवाए
तरुण विजय
स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर के जो भक्त गाय पर इतना उद्वेलित हो रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि केवल उत्तर भारत और वहां के एक बड़े सामाजिक वर्ग को ही समूचा भारत नहीं माना जा सकता। वे कृपया विवेकानंद और सावरकर को दोबारा पढ़ें। जैसे हिन्दी सारा हिन्दुस्थान नहीं है और शेष भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान एवं आत्मीयता दिखाये बिना भारत की एकता संभव नहीं है, वैसे ही खान-पान और पहनावे के बारे में उत्तर भारत के नियम-कानून सारे देश पर कैसे लागू हो सकते हैं?
केरल और बेंगलुरु में जिन वहशी दरिंदों ने सार्वजनिक रूप से गाय काटी, निश्चित रूप से वह अक्षम्य अपराध है। यह भी सत्य है कि उनके द्वारा गाय काटना केवल भारतीय संविधान ही नहीं, बल्कि भारत की काया और मन पर वैसा ही आघात है, जैसा मोहम्मद गोरी ने सोमनाथ मंदिर तोड़ कर और बाबर ने राम जन्मभूमि तुड़वा कर किया था। कोई मनुष्य इतनी पाशविकता के साथ किसी पशु को मार सकता है और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर राजनीतिक बयान दे सकता है, यह पिशाचों के बारे में तो सुना होगा, लेकिन मनुष्यों के बारे में कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों ने ऐसा उदाहरण दे दिया।
पर यह बात यहीं समाप्त कर, अगर बहुत गुस्सा और दम है तथा राजनीतिक क्षमता का परिचय देने की इच्छा है तो जिन लोगों ने ऐसा कृत्य किया है, उनके विरुद्ध कार्रवाई करवाइए। आपको रोकता कौन है? ख्वामख्वाह की बयानबाजी आपकी अपनी प्रचार की भूख को शांत भले ही कर दे, लेकिन आहत हिन्दू मन पर मरहम नहीं लगा सकती। गाय को मारने वालों में उन तमाम लोगों का अपराध शामिल है जो अपने स्तर पर न केवल गाय को अनारक्षित छोड़ते हैं, बल्कि गोरक्षा के लिए केवल और केवल सरकार की ओर ताकते हैं। उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली कुछ गोशालाओं की बात छोड़ दीजिये। वे जीवनदानी महापुरुष हैं जिनके तप और देवतुल्य गोभक्ति के कारण वे गोशालाएं बड़े से बड़े मंदिर से भी बढ़कर तीर्थ स्थान बनी हैं। लेकिन बाकी जगह का क्या हाल है? हमारे तीर्थ गंदगी से भरे, मंदिरों में पंडों और संस्कृत से प्राय: अनिभज्ञ पंडितों की मनमानी, बछड़ों को भूखा-तड़पा कर गाय का अधिकतम दूध निकालना, वह भी अत्यंत कष्टकारी इंजेक्शन लगा कर। यह सब कौन कर रहा है? इसके खिलाफ कौन बोलता है? बूढ़ी और बिना दूध वाली गायों को कसाई के हाथ बेचने के लिए मजबूर कौन करता है? इसका समाधान निकालने का कोई प्रयास हुआ, जिससे इस व्याधि का अंत हो? असली गोभक्ति वह है जो सार्वजनिक जीवन में गाय की सर्व स्वीकार्य प्रतिष्ठा करवाए, न कि कानून हाथ में ले या कानून के सहारे एक विद्रूप एवं हारे हुए विपक्ष में जान फूंकने वाली प्रतिक्रियाएं पैदा करवाए।
अब आप बहुत जिद करेंगे तो किरन रिजीजू तथा बीरेन सिंह के बयानों के क्या जवाब तलाशेंगे? परमपूज्य गुरुजी ने उत्तर पूर्वांचल के संबंध में जो लिखा है, वह हमें बार-बार पढ़ना चाहिए। वनवासी कल्याण आश्रम में काम करते हुए मेरी अधिक निष्ठा बनी कि 'विचार नवनीत' हमारे वर्तमान युग के लिए कार्यकर्ताओं और राष्ट्रभक्तों का उपनिषद् है। उन्होंने उत्तर पूर्वांचल में कार्य, वहां की परिस्थिति की समझ तथा वहां की गायों के संबंध में जो कहा था, वह हमें याद है? फिर अभी हमारी पहली आवश्यकता क्या है? हमारी वरीयताएं क्या हैं? क्या आज के समय में जो कुछ घटते दिख रहा है, उसके बारे में अतीत और भविष्य के संदर्भ में हमने विवेचन की कोई आवश्यकता महसूस की है? जो विवेचन और चिंतन शिविर होने थे, वे हो चुके? जिन लोगों ने पिछले 15 वर्ष राष्ट्रीयता समर्थक संगठनों और व्यक्तियों को क्षण भर चैन से जिंदा नहीं रहने दिया, जो दुनियाभर के हिंदू विरोधी एवं राष्ट्रीयता के कट्टर शत्रुओं से हर प्रकार की सहायता लेते हुए हम पर 24 घंटे शारीरिक, बौद्धिक, राजकीय मंचों से आक्रमण करते रहे, क्या आज राष्ट्रीयता समर्थक तत्वों की बढ़ती शक्ति को देखकर वे चुप रहेंगे? एक ओर प्रधानमंत्री हर घर में बिजली, सौर ऊर्जा, अच्छी रेलगाडि़यां, राजमार्गों का निर्माण, अरुणाचल और कश्मीर में सुरक्षा की मजबूत तैयारी, महिला सशक्तीकरण व युवाओं के कौशल विकास में जुटे हैं, दूसरी ओर, हम सारे हिन्दुस्थान को अपनी व्यक्तिगत पसंद और नापसंद से चलाने की कवायद कर रहे हैं।
देश ऐसे चलेगा कि किसकी थाली में क्या परोसा जाये या आर्थिक और शिक्षा की नई उड़ानों से नया भविष्य गढ़ने पर ध्यान देना जरूरी समझा जाये? ऐसी परिस्थिति में बड़े प्रश्नों के समाधान तथा स्थायी भाव की लंबी लड़ाई के लिए तैयार प्रतिरोधक केंद्रों की स्थापना पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है। लेकिन एक आम हिंदू का स्वभाव है कि वह आपसी विद्वेष, घरेलू विद्वेष, अहंकार, तीव्र व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के कारण संगठन के बड़े उद्देश्यों से समझौता करते हुए बड़ी छलांग को छोटे कदमों में बदल देता है।
यह समय विवेकानंद को दोबारा पढ़ने और खानपान के संबंध मेंं उनकी प्रहारक वाणी को ध्यान में रखने का है। सावरकर को भी कभी-कभी पढ़ा करिये। हिन्दुत्व के दर्पण पर जमी प्रपंचों तथा पाखंडों की धूल साफ होती रहेगी। लंबी दूरी के यात्री छोटे स्टेशनों पर झगड़ा कर रेलगाड़ी छोड़ने का जोखिम नहीं उठाते। रज्जू भैया बार-बार इस बात को दोहराते थे।
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