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केंद्र सरकार द्वारा पशुओं पर हो रही क्रूरता की रोकथाम को लेकर एक अधिसूचना जारी होते ही उसके विरोध में केरल, बंगाल जैसे कुछ राज्यों में छद्म सेकुलरों ने 'बीफ पार्टी' का आयोजन किया। सेकुलर बुद्धिजीवी जान-बूझकर इस मुद्दे को भटका रहे हैं और यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इसके जरिये देश में खान-पान पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है, जबकिहकीकत कुछ और है
मोनिका अरोड़ा
सेकुलरों के नाम एक खुला पत्र
प्रिय छद्म सेकुलरो! आप गलत राह पर हो। केरल, पश्चिम बंगाल और पूवार्त्तर के अनेक शिक्षण संस्थानों में 'बीफ पार्टी' आयोजित करने और केरल में 18 महीने के एक बछड़े को काटे जाने को समर्थन देने से पहले आपने 23 जनवरी, 2017 को पारित पशु क्रूरता निवारण (मवेशी बाजार विनियमन) अधिनियम को क्यों नहीं पढ़ा था? यदि आपको एनडीटीवी पर शाम की बहसों से कुछ फुर्सत होती तो आप 10 मिनट का समय निकालकर नौ पृष्ठ लंबी अधिसूचना पढ़ सकते थे जिसके आधार पर 18 महीने के मासूम बछड़े को बचाया जा सकता था।
हे सेकुलरो, आप लोग अपना अधिकांश समय जानवरों के साथ होने वाली क्रूरता के खिलाफ दिल्ली के लुटियंस में गोष्ठियां करने और अदालतों में अर्जियां देने में गुजारते हैं। लेकिन अब पूरा देश उम्मीद करता है कि आप 16 जनवरी, 2017 को सार्वजनिक की गई उस अधिसूचना को पढ़ने का समय निकालेंगे, जिस पर 30 दिन में आमजन से उनके विचार भी मांगे गए थे। यह मामला सवार्ेच्च न्यायालय में गौरी मौलेखी के विरुद्ध भारत सरकार (डब्ल्यू़ पी़ (सी) सं़ 881/2014) मामले से जुड़ा था। इसमें 13 जुलाई, 2017 को सवार्ेच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि भारत से नेपाल ले जाए जाने वाले पशुओं की रोकथाम पर दिशानिर्देश बनाए जाएं। नेपाल में बड़ी संख्या में इन पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है।
सवार्ेच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को मवेशी बाजार से जुड़े नियमों का मसौदा बनाने और उन्हें अधिसूचित किए जाने के संबंध में भी निर्देश दिए थे और इन नियमों को धारा 38 (1) के अंतर्गत पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत जोड़े जाने के संबंध में भी निर्देश दिए थे। लेकिन आप जेएनयू से लेकर एनडीटीवी और हुर्रियत नेताओं के साथ गलबहियां डालने में इतने व्यस्त थे कि आपको पूरी अधिसूचना पढ़ने का समय ही नहीं मिला। लिहाजा, मैं आपको संक्षेप में अधिसूचना के मुख्य बिंदुओं से अवगत करा देती हूं—
इन नियमों को अनुभाग 38(1) के पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु क्रूरता निवारण (मवेशी बाजार विनियमन) अधिनियम, 2017 के अधीन जोड़ा गया है।
मवेशी (गाय, भैंस, बैल, ऊंट) को काटने या बलि देने के लिए पशु बाजार नहीं लाया जा सकता। राज्य के मवेशी प्रतिबंध कानून के अंतर्गत मवेशियों को बिना अनुमति के राज्य से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेचा जा सकता। मवेशियों के बेचे जाने के बाद खरीदार, विक्रेता, तहसील कार्यालय, मुख्य पशु चिकित्सक एवं पशु बाजार समिति को बिक्री का प्रमाण सौंपा जाएगा।
सभी मौजूदा पशु बाजारों को तीन माह के अंदर जिला पशु निगरानी समिति के अंतर्गत पंजीकृत किया जाएगा। समिति को सुनिश्चित करना होगा कि पशु बाजारों में बिजली, पानी, चारा स्थान, पशु चिकित्सा सुविधाएं, शौचालय, मृत पशुओं के निस्तारण आदि की समुचित व्यवस्था हो।
सींगों को रंगने, भैंसों के कान काटने, पशुओं को सख्त जमीन पर लेटाने, पशुओं पर रसायनों के इस्तेमाल, पशुओं के साथ अप्राकृतिक कृत्य करने, नाक काटने, कान काटने या चाकू से काटने अथवा पहचान आदि के लिए जानवरों को गर्म लोहे से दागने पर प्रतिबंध है।
मवेशियों का मालिक उन्हें मारने या बलि देने के लिए नहीं बेच सकता।
पशुओं के स्वास्थ्य की जांच के लिए पशु चिकित्सा अधिकारी की नियुक्ति।
अशक्त, अस्वस्थ या गर्भस्थ पशुओं की बिक्री पर रोक।
मित्रो, मुझे नहीं लगता कि आप गाय खरीदकर उसे काटने और फिर खाने की कवायद करने के लिए पशु बाजार में जाते हैं। आपके जैसे सेकुलर केवल दुकानों पर गोमांस की एक प्लेट खरीदते हैं और उसे खाते हुए भारत में गरीबी कम करने के विचार पर मंत्रणा और बहस करने का काम करते हैं।
इसलिए आज भी आप स्थानीय दुकानदार के पास जाकर मांस खरीद सकते हैं और उसे पहले की तरह खा सकते हैं। यह अधिसूचना आपके किसी भी तरह के मांस खाने के अधिकार पर असर नहीं डाल रही है। यह अधिसूचना केवल पशु बाजारों में गंदे और अमानवीय हालात के विनियमन की बात करती है, जहां पांच पशुओं की सीमा वाले बाड़े में 10 को रखा जाता है। यहां तक कि केरल उच्च न्यायालय ने हाल में आपकी एक याचिका के जवाब में भी यही कहा था।
प्रिय मित्रो, 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का नारा लगाते समय आपने संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत अभिव्यक्ति की आजादी का सहारा लिया था। उसी संविधान के अनुच्छेद 48 में गोहत्या पर प्रतिबंध है और अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि नीति निर्देशक सिद्धांत देश चलाने में आधारभूत हैं और सरकार को नीति बनाते समय इन पर गहन विचार करना होता है। दोनों अनुच्छेदों को एक साथ पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि सरकार इनके आधार पर देश में गोवध से संबंधित नीति बना सकती है।
सवार्ेच्च न्यायालय में कपिल सिब्बल ने दलील दी कि तीन तलाक को इस्लाम में आधारभूत एवं आवश्यक माना गया है और यह 1400 वर्ष से चली आ रही परंपरा है। यदि ऐसा है तो मेरे प्रिय सेकुलरो, आपको याद दिला दूं कि गाय की पूजा भारत में 5000 वर्ष से भी अधिक समय से चली आ रही है।
सवार्ेच्च न्यायालय ने मो़ हनीफ कुरैशी बनाम बिहार सरकार मामले में अनुच्छेद 48 के आधार पर कहा था कि गोहत्या पर रोक एक उचित नियम है। परंतु आपको मैं संविधान के प्रावधानों की दुहाई क्यों दे रही हूं? आपके पास मीडिया में बौद्धिकों और सवार्ेच्च न्यायालय में वकीलों की इतनी विशाल फौज है कि आप उनके दम पर अफजल गुरु से लेकर याकूब मेमन और शहाबुद्दीन से कन्हैया कुमार तक के सभी मामलों पर लड़ाई लड़ सकते हैं। परंतु सावधान रहें, इन वकीलों ने आपको यह नहीं बताया होगा कि किसी भी जानवर की सार्वजनिक हत्या के मामले में आपको धारा 153ए, 504, 505 आईपीसी के अंतर्गत जेल हो सकती है। उन्होंने आपको यह भी नहीं बताया होगा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय में साफ तौर पर कहा गया है कि पशुओं को काटने का काम केवल लाइसेंसधारी बूचड़खानों में ही किया जा सकता है और किसी स्थान पर नहीं। अत: आपके पास खाने का अधिकार तो है परंतु किसी भी स्थान पर पशुओं को मारने का अधिकार नहीं है। (लक्ष्मी नारायण मोदी बनाम भारत सरकार डब्ल्यू़ पी़ (सी) 2003 के 309)
एक बार फिर मैं कहना चाहंूगी कि उस बेजुबान की हत्या इसलिए हुई कि आपने उससे जुड़ा अधिसूचना दस्तावेज नहीं पढ़ा था। इसलिए दंगा करने से पहले ध्यान से पढ़ें।
(लेखिका वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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