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श्री सुशील लाहिड़ी और नृपेन्द्र ने विनायकराव पर जोर डाला कि वह पार्टी का रुपया और हथियार उनको सौंप दे। विनायकराव ने पहले तो इनकार कियार, परंतु बाद में सुशीलदा से कहा कि आप कल इसी स्थान पर आ जाएं, हम आपको सभी चीजें लौटा देंगे। विनायकराव के साथ एक युवक और था जिसको न सुशीलदा जानते थे न नृपेन्द्र। दूसरे दिन जब सुशीलदा और नूपेन्द्र उसी स्थान पर पहुंचे, तो बातचीत शुरू होने से पहले ही विनायकराव के साथी युवक ने सुशीलदा पर गोली चला दी। अकस्मात इस आक्रमण से दोनों चकित हो गये। जवाब में नृपेन्द्र ने माउजर से आततायी पर तुरंत आक्रमण किया, परंतु गोली उसको न लगकर, विनायकराव को लगी जिससे उसका तत्क्षण निधन हो गया। इस घटना के बाद सुशील लाहिड़ी पकड़े गए और उनको मृत्युदंड मिला। उन्होंने अपनी पैरवी करने से इनकार किया। उन्होंने कोई बयान भी नहीं दिया।
कंकाल रूप में वे नृपेंद्र ही थे
उसी रात से नृपेन्द्र फरार हो गए। पुलिस बराबर उनका पीछा करती रही, परंतु गिरफ्तार न कर सकी। यूरोप में प्रथम महायुद्ध समाप्त हो चुका था। नजरबंदी से छूटकर मैं उरई में ही उत्साह नामक एक साप्ताहिक पत्र का संपादन करने लगा था।
एक दिन अकस्मात नृपेन्द्र वहां पहंुच गए। मैं उसको पहले पहचान न सका।
उसने मुस्कराते हुए पूछा— ''पहचान नहीं पा रहे हो?''
आवाज सुनते ही मैंने पहचान लिया—''अरे तुम? कितने कमजोर और दुबले हो गए हो!'' उसकी शक्ल एक कंकाल सी हो गई थी।
मैं जल्दी से उठा और उससे कहा—''नृपेन्द्र, चलो स्नान कर लो, भोजन अभी तैयार हो जाएगा।''
''भोजन! भोजन कौन करेगा? मुझे तो भयंकर संग्रहणी हो गई है, कुछ भी नहीं पचता।'' —उसने मुस्कराते हुए कहा।
''तो फिर? क्या तुम एक दिन भी नहीं ठहरोगे? कितने दिन बाद मुलाकात हुई।''
''मैं तो एक घंटा भी ठहरने को तैयार नहीं हूं। क्या तुमने स्टेशन पर मेरा चित्र चिपका हुआ नहीं देखा? कुछ रुपए अगर दे सकते हो तो जल्दी दे दो, मैं चलूं।''
मेरी जेब में ग्यारह रुपए पड़े थे, मैंने निकालकर उसके हाथों में दे दिये। उसको दो मिनट रुकने के लिए कहकर मैं दौड़कर मकान के अंदर पहुंचा और मकान मालिक से 15 रुपए उधार लाकर नृपेन्द्र को दे दिये।
''चलता हूं सुरेशदा, अब पता नहीं, कब मुलाकात होगी। न जाने कितनी बातें करनी थीं, कितने बातें पूछनी थी।'' वह दो मिनट में मेरी दृष्टि से ओझल हो गया। इसके बाद नृपेन्द्र से मुलाकात हुई, लगभग एक वर्ष बाद कानपुर में सिरकी मुहाल की गली में। मैं उस समय दैनिक 'प्रताप' में काम कर रहा था। मैं एक इक्के पर राम नारायण बाजार की ओर जा रहा था। अकस्मात पीछे से वही परिचित आवाज सुनाई पड़ी—'सुरेशदा।' सुनते ही इक्का रुकवाया और उतर पड़ा। शक्ल से नृपेन्द्र को पहचानना और भी कठिन हो गया था। यद्यपि उसकी धारणा यही थी कि पुलिस उसको देखते ही पहचान लेगी। मैं उसको लेकर प्रताप प्रेस गया। गणेश जी (विद्यार्थी जी) अपने कमरे में बैठे थे। मैंने उनसे 40 रुपए लेकर नृपेन्द्र को दिये और काशी में अपने मंझले भाई के नाम एक पत्र भी लिखकर उसको दिया ताकि ठहरने का कोई कष्ट न हो।
वह कांत मौत
लगभग एक महीने बाद मैं छुट्टी लेकर काशी गया। मैं स्वयं काफी अस्वस्थ था। मंझले भाई साहब से मालूम हुआ कि नृपेन्द्र काशी में आया था और लक्ष्मीकुंड स्थित हमारे मकान में ही उसको छिपाकर ठहराने का प्रबंध किया गया था। परंतु उस मकान पर पुलिस की पहले ही से दृष्टि थी। नृपेन्द्र के वहां ठहरने से पुलिस को संदेह होने लगा और वह इधर-उधर पूछताछ करने लगी। इस पर नृपेन्द्र तुरंत वह स्थान छोड़ने को तैयार हो गया। परंतु वह इतना अस्वस्थ था कि कहीं उसको ले जाना भी कठिन था। अंत में उसके अत्यंत आग्रह करने पर भाई साहब ने उसको चौकाघाट के अस्पताल में पहुंचा दिया। हर चौथे-पांचवें दिन वे उसको देखने के लिए जाया करते थे। अंत में, एक दिन जब वे शाम को उसे देखने के लिए पहुंचे तो अस्पताल वालों ने उनसे कहा—''पण्डित जी! अब आप आने का कष्ट न करें, कल सबेरे उनका देहांत हो चुका है।''
मौन श्रद्धांजलि
इसके बाद भाई साहब को कुछ करना न था। नृपेन्द्र की अंत्येष्टि अस्पताल वालों ने ही की थी। दूसरे दिन मैं अपने भाई के साथ अस्पताल पहुंचा। उन्होंने मुझे वह स्थान दिखाया जहां नृपेन्द्र एक चारपाई पर लेटा रहता था।
थोड़ी देर तक मौन खड़े रहकर मैंने नतमस्तक होकर उस स्थान को प्रणाम किया—जहां उसने अंतिम सांस छोड़ी थी। उसके बाद अपने भाई की ओर मुड़कर कहा—''चलो मेजदा चलें।'' ल्ल
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