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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और साथ ही अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढि़ए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
श्रीधर दामले जी का संस्मरण पढ़ते हुए मुझे एक पंक्ति याद आ गई, जिसमें लिखा था- ''फौजी भी कमाल के होते हैं! अपने छोटे से बटुए में पूरा परिवार छुपाकर रखते हैं और दिल में पूरा हिन्दुस्थान।'' इस पंक्ति में एक फौजी की जिंदगी का सार सिमटा हुआ है। आपने सही कहा था कि दुनिया में ज्यादातर लोग अच्छे हैं। बस हमारे देखने का नजरिया अच्छा होना चाहिए। मानवीयता से भरी हुई दामले जी की यह छोटी-सी बात आज न जाने कितने लोगों को प्रेरणा दे रही होगी।
बीएसएफ की रिपोटिंर्ग के दौरान मुझे फौजियों की जिंदगी को बहुत करीब से देखने और उनसे बात करने का मौका मिला। अभी कुछ अरसा पहले ही सरकार ने ड्यूटी के दौरान दिव्यांग हो जाने वाले सैनिकों की पेंशन में कटौती कर दी। यह कटौती मामूली नहीं थी, बल्कि तीस फीसदी तक की थी। जब यह समाचार पढ़ा तो अजीब-सी पीड़ा हुई। या यूं कहूं कि व्यवस्था पर बहुत गुस्सा आया। मन ही मन विचार करने लगी। एक सैनिक जो देश के लिए अपनी जवानी, अपनी खुशियां और अपनी जिंदगी कुर्बान कर देता है वह बिना पलक झपकाए मोर्चे पर मुस्तैदी से डटा रहता है। देश प्रेम के जज्बे से सराबोर होकर वह अपना सबकुछ न्योछावर कर देता है, लेकिन जीवन के मुश्किल दौर में जब उसे हमारी जरूरत होती है तो हम अपना हाथ पीछे खींच लेते हैं। व्यवस्था में बैठे लोगों को भी उसकी फिक्र नहीं होती है।
हमारी सुरक्षा के लिए ये सैनिक दुश्मन से मुकाबला करते हैं। युद्ध या कठिन परिस्थितियों में ड्यूटी के दौरान अपना अंग तक गंवा देते हैं और हम उन्हें पलटकर देखते तक नहीं हैं। यह तो वही बात हो गई कि जब तक घोड़ा तेज दौड़ता है अस्तबल में बना रहता है। जैसे ही वह घायल, बीमार, चोटिल, अपंग होता है, उसे अस्तबल से बाहर फेंक दिया जाता है। घोड़ा तो फिर भी जानवर है, लेकिन फौजी तो इनसान होते हैं। हालांकि दर्द दोनों को ही होता है। चाहे वह मानसिक हो या शरीरिक।
दूसरी ओर, जिंदगीभर सरकारी कुर्सी पर बैठकर मोटी तनख्वाह और हर तरह की सुविधाएं पाने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी मोटी पेंशन के हकदार होते हैं। ऐसी विषमताओं को क्या दूर नहीं करना चाहिए? विकासशील देशों की तरह हम अपने फौजियों को सुविधाएं क्यों नहीं दे पाते हैं? नेताओं और सरकारी अधिकारियों को मिलने वाली सुविधाओं के सबसे बड़े हकदार तो फौजी हैं।
रावघाट यात्रा के दौरान जंगल में तैनात बीएसएफ के एक हेड कांस्टेबल से बातचीत कर रही थी। मैंने पूछा- ''साहब जी, कितने दिनों में घर जाते हो?'' जवाब मिला- ''छत्तीसगढ़ में पोस्टिंग के बाद तो चार महीने में एक बार ही घर जा पाते हैं। इस सुनसान जंगल में नेटवर्क भी कभी-कभी ही मिलता है। इसलिए फोन पर अमूमन 15 दिनों में घरवालों से बात होती है। घरवाले कहते हैं, बेटी बड़ी हो गई है। उसकी शादी करनी है। बेटे की कॉलेज फीस भरनी है। खेत में काम करवाना है। बूढ़े माता-पिता बीमार हैं, उनका इलाज चल रहा है। इस सब के बाद भी अगर कुछ बचा तो पत्नी धीरे से बोलती है कि घर खर्च के लिए इस बार पैसे कम पड़ गए। किससे उधार लेकर रसोई में राशन भरूं। मैडम जी, मंहगाई इतनी बढ़ गई है। क्या करें?''
यह पीड़ा उस जवान की थी जो 24 घंटे की ड्यूटी के दौरान शायद ही कभी ठीक से बैठ पाता होगा। वरना उसकी सारी जिंदगी खड़े-खड़े निकल जाती है। यह वाकया आपसे इसलिए साझा किया है, क्योंकि दामले जी जिन सैनिकों से मिले और उनकी पीड़ा को महसूस किया, वे भी इससे जुदा नहीं है।
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