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अशोक कुमार श्रीवास्तव
कुछ वर्ष पहले मैंने सब्जी की दुकान पर एक भद्र महिला को अपने बेटे के साथ सब्जी खरीदते देखा। सब्जी वाला सब्जियों का भाव बता रहा था, तभी उस भद्र महिला के पुत्र ने पूछा, ‘‘मम्मी दस मीन्स व्हट?’’ उस अबोध बालक का यह प्रश्न निश्चित रूप से हमारे, आपके और हम सबके सामने एक प्रश्न चिन्ह के रूप में होगा। लाखों की संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो शिक्षा तो प्राप्त कर रहे हैं परन्तु ऐसी शिक्षा जो उन्हें उनकी मातृभाषा से अलग कर रही है, वे अपनी पहचान भी भूल रहे हैं। देश के नगरों और महानगरों में ही नहीं, बल्कि गांवों तक में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़-सी दिखती है। प्रत्येक माता-पिता आज यही चाहता है कि उनके बच्चों की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही हो। यहां तक देखने को मिला है कि माता-पिता भी संभ्रांत कहलाने की होड़ में घरों में अपनी मातृभाषा का प्रयोग न करकेअंग्रेजी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और अपने नन्हे-मुन्नों पर अंग्रेजी थोपने का प्रयास करते हैं। क्या यह स्वस्थ और हितकारी परम्परा है? आइये, इसका लिटमस परीक्षण करें।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रोफेसर रॉयबर्न ने लिखा था— एक बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिये जिसमें वह सोचता और सपने देखता है। विगत कुछ वर्षों में हमारे देश में सत्ता में रही कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने इस मूलभूत शिक्षा सिद्धांत को ताक पर रखते हुए प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को बढ़ावा दिया और देश के नौनिहालों के साथ घोर अपराध किया है। दरअसल उसने मैकाले के स्वप्न को साकार किया है। महात्मा गांधी ने कहा था,‘‘राष्टÑभाषा के बिना राष्टÑ गूंगा होता है।’’ पिछले कुछ वर्षों में समूचे देश में एक षड्यंत्र के तहत हिंदी व अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की घोर उपेक्षा की गई है। भारतीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने वाले प्राथमिक विद्यालयों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। उनके स्थान पर अंग्रेजी माध्यम वाले प्राथमिक विद्यालयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
स्थिति अत्यन्त भयावह है। विभिन्न ईसाई मिशनों द्वारा संचालित स्कूलों में नन्हे विद्यार्थियों द्वारा हिन्दी, तमिल, बंगला अथवा अन्य किसी भारतीय भाषा में बातचीत करने पर जुर्माना लगाया जाता है। यह मानवीय अत्याचार नहीं तो क्या हैÑ आज देश के तमाम अंग्रेजी माध्यम वाले ईसाई मिशनरी स्कूलों में कमोबेश यही नियम प्रचलित है। देश के नौनिहालों के उनकी मातृभाषा में होने वाले प्राकृतिक चिंतन को एक साजिश के तहत कृत्रिम रूप से बाधित कर देश की भावी पीढ़ी और समूचे राष्टÑ की जनशक्ति को विदेशी ताकतों द्वारा विभिन्न चर्चों के माध्यम कुंठित किया जा रहा है।
आज देश में हम अनिवार्य व नि:शुल्क शिक्षा की बात करते हैं। शिक्षा प्राप्त करना और अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना एक बच्चे का मौलिक अधिकार है। आज देश के शिक्षित व नवधनाढ्य वर्ग की माताएं तो यही चाहती हैं कि जन्म के समय उनके बच्चे का प्रथम रुदन भी अंग्रेजी में हो। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समय आ गया है कि देश की सरकार, विधायिका व न्यायपालिका के साथ ही देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस विषय पर गहराई से विचार करे।
उच्च न्यायालयों में हो भारतीय भाषाओं में काम
भारत के उच्च न्यायालयों में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के उपयोग संबंधी संसदीय समिति के सुझावों पर शीघ्रता से अमल हेतु शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव श्री अतुल कोठारी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री राजनाथ सिंह तथा विधि और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद को एक पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने लिखा है कि कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी मामलों की संसदीय समिति ने सभी 24 उच्च न्यायालयों में न्यायिक कामकाज हिंदी एवं संबंधित राज्य की राजभाषा में किये जाने की सिफारिश की है। समिति की रपट में कहा गया है कि इस विषय पर संविधान के अनुच्छेद 348(2) में स्पष्ट प्रावधान है कि संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से हिंदी/राज्य की राजभाषा में कार्यवाही किए जाने की अनुमति दी जा सकती है। इस हेतु न्यायालय से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता नहीं है।
न्यास ने भारत सरकार से इस समिति की रपट पर अतिशीघ्र कार्रवाई करने का अनुरोध किया है।
हमारा विरोध अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा से नहीं है अपितु हमारा विरोध जबरन थोपी जा रही गलत शिक्षा नीति से है। इसके तहत भारत के लाखों नौनिहालों को उनकी मातृभाषा से अलग-थलग कर देश में मातृभाषा विहीन जनशक्ति को एक छलावे के तहत शिक्षा दी जा रही है। समझदार वर्ग का मानना है कि बच्चों को अनिवार्य रूप से उनकी मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा तो मिलनी ही चाहिये। इससे देश के उन स्कूलों पर भी लगाम लगेगी जो अंग्रेजी माध्यम के नाम पर स्कूलों को शिक्षा की दुकान बनाकर विद्यामंदिरों को धनोपार्जन का केन्द्र बना रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसा करके वे भारतीय समाज का बौद्धिक व आर्थिक शोषण भी कर रहे हैं।
राष्टÑभाषा प्रचार समिति, वर्धा की एक शाखा देश की स्वाधीनता के कुछ वर्ष पहले सुदूर अंदमान-निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में कार्य कर रही थी। इस समिति के प्रचारक द्वीप समूह के गांवों में जाकर लोगों को हिंदी पढ़ना-लिखना सिखाते थे। 1947 में जब देश के विभाजन की बात चल रही थी तभी इन द्वीपों में रहने वाले कुछ मुसलमानों ने अंदमान-निकोबार द्वीपसमूह को पूर्वी पाकिस्तान के साथ मिलाने की मांग की थी। जब हिन्दी के इन प्रचारकों को यह बात पता चली तो उन्होंने दिन-रात एक करके लोगों से मिलकर यही कहा कि इन द्वीपों के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं इसलिये वे पाकिस्तान से न जुड़कर भारत के साथ जुड़ना पसंद करेंगे। लोगों ने इस आशय का ज्ञापन तत्कालीन सरकार को भेजा और अन्तत: इस ज्ञापन को स्वीकार किया गया। इस प्रकार हिन्दी ने सुदूर अंदमान-निकोबार द्वीप समूह को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा। अन्यथा यह भूभाग विभाजन के बाद पाकिस्तान के साथ जुड़ गया होता। इस घटना से हमें कुछ सीख लेनी चाहिए। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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