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राजनीति की बिसात ने समय-समय पर समाज को जातीय आधार पर बांट अपना राजनीतिक स्वार्थ साधा है। सहारनपुर में अपनी राजनीतिक जमीन खोती जा रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने कथित तौर पर मुस्लिम प्यादों को भड़काकर वहां वातावरण को और दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी
डॉ़ रवीन्द्र अग्रवाल
भारत के दो महापुरुषों, महाराणा प्रताप व बाबासाहेब डॉ़ भीमराव आंबेडकर की मूर्तियां लगाने के नाम पर सहारनपुर में गत 5 मई व उसके बाद जिस प्रकार जातीय हिंसा का प्रकटीकरण हुआ, वह बहुत ही शर्मनाक है। महाराणा प्रताप एक ऐसे महायोद्धा थे जिन्होंने देश की रक्षा और उसके सम्मान के लिए पिछड़ों और भीलों के सहयोग से मुगलों को नाकों चने चबवा दिए थे, वहीं बाबासाहेब आंबेडकर एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने समाज के दबे-कुचले वर्ग को शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया और भारत के संविधान निर्माता होने का गौरव प्राप्त किया। यही नहीं, उन्होंने दलित-मुस्लिम एकता के नारे के खोखलेपन को पूरी दृढ़ता से
उजागर किया तथा मुस्लिम कट्टरपंथ और पाकिस्तान के खतरों के प्रति देश को समय रहते सचेत किया।
जिन महानायकों ने देश और समाज की रक्षा के लिए जीवनभर संघर्ष किया, यदि उनके अनुयायी उनकी मूर्तियां लगाने के नाम पर आपस में लड़ने लगें तो यह गंभीर चिंता का विषय है। एक प्रश्न यह भी है कि जब स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पूरा देश जातीय भेदभावों से ऊपर उठ एकजुट होकर संघर्षरत था तो आज जातीय संघर्ष क्यों विकराल रूप धारण करते जा रहे हैं? हां, एक बात अवश्य है कि हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रश्न उस समय भी गंभीर चर्चा का विषय था। तब इस मुद्दे पर देश के जिस सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व ने बेबाकी से अपनी बात कही, उनमें बाबासाहेब आंबेडकर का नाम प्रमुख है। उन्होंने समय-समय पर ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ के नारों का विश्लेषण करते हुए इसे असम्भव कार्य बताया था। उन्होंने कहा था, ‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों के स्थान पर और कोई शब्दावली नहीं रख सकता। अब तक हिंदू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती है और न ही मन में है। यहां तक कि अब तो गांधी जी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।’’ (बाबासाहेब डॉ़ आंबेडकर, सम्पूर्ण वाड्मय, खंड- ‘पाकिस्तान और भारत का विभाजन, पृ़ 178)
यह बात, निर्विवाद रूप से पूरा देश जानता है कि मुसलमानों और ईसाइयों की ओर से बाबासाहेब को कन्वर्जन के लिए अनेक प्रलोभन दिए गए, परन्तु उन्होंने उनकी वास्तविकता को समझते हुए उन्हें ठुकरा दिया और प्रतीक स्वरूप बौद्ध मतावलंबी बन गए। इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि देश विभाजन के समय जो नेता ‘दलित-मुस्लिम एकता’ की राजनीति के झांसे में आकर पाकिस्तान चले गए, उनके और उनके अनुयायियों के साथ वहां किस प्रकार का दुर्व्यवहार किया गया। आज दलित-मुस्लिम एकता के नारे लगाने वालों को पाकिस्तान के एकमात्र दलित मंत्री जोगेन्द्रनाथ मंडल का 8 अक्तूबर, 1950 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के नाम लिखा त्यागपत्र जरूर पढ़ना चाहिए। रोंगटे खड़े कर देने वाले इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि किस प्रकार वे हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर पाकिस्तान गए और वहां जाकर इने-गिने दिनों में ही किस प्रकार इस एकता से उनका मोह भंग हो गया और किस प्रकार एकता का यह नारा पाकिस्तान के हिंदुओं के लिए रक्तरंजित और आत्मघाती छलावा सिद्ध हुआ।
आज सहारनपुर में दलित-मुस्लिम एकता के नारे लगाने वाले नेता क्या यह बताएंगे कि 50 लाख से ज्यादा जो दलित जोगेन्द्रनाथ मंडल की बातों पर विश्वास कर पूर्वी पाकिस्तान में ही रह गये थे, वे आज वहां किस हाल में हैं, वे जीवित हैं भी
या नहीं?
जोगेन्द्रनाथ मंडल प्रकरण से स्पष्ट है कि मुस्लिम नेताओं ने राजनीतिक कारणों से दलित-मुस्लिम एकता का नारा लगाया था। तब इस नारे के छलावे में बाबासाहेब तो नहीं आए लेकिन आजादी के बाद भारत के कुछ राजनेता इस नारे को अपनी राजनीति के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगे, जिससे देश में जातीय कटुता और संघर्ष नए रूप में सामने आने लगा। कांग्रेस में नेतृत्व के लिए हुए संघर्ष के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दलित राजनीति का भरपूर उपयोग किया। बाबू जगजीवनराम को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर नारा लगाया गया-‘जात पर न पात पर, बाबू जी की बात पर…’। यह नारा खूब काम आया और इससे मिला जातीय राजनीति को नया आयाम। इसके बाद तो देशभर में सत्ता-लोभी राजनेताओं ने यादव-मुस्लिम, जाट-मुस्लिम, दलित-मुस्लिम एकता के नारे लगाने प्रारम्भ कर दिए। बस एकता के इन नारों की आड़ में कहीं खो गई थी तो उन भारतीयों की एकता जिन्होंने एकजुट होकर देश की आजादी के लिए संघर्ष किया था।
सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में 5 मई को हुई जातीय हिंसा पर अब राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास किया जा रहा है। इस हिंसा में बसपा और भीम आर्मी के नेताओं की भूमिका सबसे ज्यादा संदिग्ध रही है। भीम आर्मी का उदय 2-3 वर्ष पूर्व ही सहारनपुर में हुआ था। तब से यह युवकों में अपना आधार बनाने का प्रयास कर रही है। भीम आर्मी ने इस दौरान 50 लाख रुपये से ज्यादा का चंदा विभिन्न माध्यमों से एकत्र किया है। जांच एजेंसियां अब इस धन के स्रोत की जांच में जुटी हैं। इस संबंध में कुछ स्थानीय राजनेताओं के नाम भी सामने आए हैं। 5 मई की हिंसा के बाद भीम आर्मी ने जिस प्रकार 9 मई को सहारनपुर को जोड़ने वाले सभी रास्ते जाम कर वाहनों में तोड़फोड़ करके आग लगाई तथा 21 मई को दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया गया, उससे इसके संबंध में कई प्रकार की शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर ने कहा कि ‘‘अपने समाज की लड़ाई के लिए वे नक्सली बनना भी स्वीकार करते हैं।’’ इस प्रदर्शन में जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया भी शामिल हुआ। इसके बाद 23 मई को बसपा सुप्रीमो मायावती के शब्बीरपुर दौरे के बाद एक बार फिर हिंसा भड़क गई। हुआ यह कि मायावती के आने से पूर्व उनके कुछ समर्थकों ने राजपूतों के घरों पर हमले किए थे। इसके बाद मायावती की रैली से लौटते समर्थकों पर हमले किए गए, जिससे स्थिति ज्यादा गंभीर हो गई। इसके बाद प्रशासन ने त्वरित कार्रवाई कर स्थिति को नियंत्रित किया।
26 मई को दो दलित बहनों के विवाह में राजपूतों सहित समाज के सभी वर्गों के लोग उत्साह से शामिल हुए। यही नहीं,19 मई को जब कुछ असामाजिक तत्वों ने पड़ोस के मिर्जापुर गांव में बाबासाहेब आंबेडकर की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया तब क्षेत्र के प्रमुख राजपूत व दलित नेताओं ने एकजुट होकर तत्काल वह प्रतिमा हटाकर उसके स्थान पर नई प्रतिमा लगा दी थी। क्षेत्र में ऐसे एक-दो नहीं, अनेक उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि क्षेत्र के लोग शांति और सद्भाव चाहते हैं, लेकिन दलगत राजनीति इस शांति के आड़े आ रही है।
राजनीति की बिसात
उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति के लिए सहारनपुर कितना महवपूर्ण है, यह जानने के लिए पिछले 20 वर्ष के चुनावी इतिहास को जानना आवश्यक है। 1996 से सहारनपुर बसपा का गढ़ रहा है। 1996 और 2002 के विधानसभा चुनाव में स्वयं मायावती सहारनपुर जिले की हरोडा सीट से विधायक चुनी गई थीं। 1996 में बसपा ने सहारनपुर जिले की 7 में से 2 सीटें जीती थीं। 2002 में उसे 4 सीटों पर जीत हासिल हुई। 2007 में बसपा को 5 और 2012 में 4 सीटें मिली थीं। लेकिन 2017 के चुनाव में सहारनपुर से उसका दबदबा समाप्त हो गया। इस बार यहां से भाजपा ने 4, कांग्रेस ने 2 और सपा ने एक सीट पर कब्जा किया। यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव भी बसपा के लिए निराशाजनक सिद्ध हुए थे। तब वह लोकसभा में अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी। बसपा ने 1999 और 2009 में सहारनपुर लोकसभा सीट हासिल की। यहां बसपा के प्रभाव का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मायावती ने 1998 के लोकसभा चुनाव में कांशीराम को सहारनपुर से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था, पर वे भाजपा के नकली सिंह से पराजित हो गए थे। सहारनपुर में भीम आर्मी के उदय को भी मायावती अपनी राजनीति के लिए खतरा मान रही हैं। अपने उग्र और उत्तेजक विचारों के कारण भीम आर्मी का संस्थापक यहां अपनी पकड़ बना रहा है।
सहारनपुर में मायावती को जो भी सफलता मिली, वह दलित-मुस्लिम गठजोड़ का ही परिणाम है। लेकिन 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों के साथ ही दलितों के उनसे छिटक जाने के कारण उन्हें झटका लगा है। अब तक नसीमुद्दीन सिद्दीकी पार्टी में सबसे बड़ा मुस्लिम चेहरा रहे हैं, लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कुछ न कर पाने के कारण हाल ही में मायावती ने पार्टी से उनकी छुट्टी कर दी। इससे पहले मायावती ने सहारपुर से 5 बार लोकसभा सदस्य रहे रशीद मसूद और 2004 में बसपा से ही लोकसभा सदस्य रहे मंसूर अली खां को पार्टी में शामिल किया था। मसूद की 1977 से ही जिले की मुस्लिम राजनीति पर अच्छी पकड़ रही है, परन्तु अब उनकी विरासत उनके भतीजे इमरान मसूद के पास है। इमरान वही हैं जो लोकसभा चुनाव के दौरान ‘मोदी की बोटी-बोटी’ करने की धमकी देकर कुख्यात हुए थे। अब वे कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मायावती शब्बीरपुर प्रकरण के चलते अपने खोये राजनीतिक दबदबे को पुन: प्राप्त करना चाहती हैं। लेकिन भीम आर्मी उनके लिए खतरा बनती दिख रही है। इसीलिए उन्होंने 23 मई की रैली में अपने समर्थकों से कहा कि वे जो भी प्रदर्शन करें वह बसपा के झंडे तले हो, किसी छोटे-मोटे संगठन के नाम से नहीं।
दलितों से कितना प्यार?
दलित नेता कहने के लिए तो दलितों के हितों के लिए मर-मिटने की बातें करते हैं परन्तु जब मामला दलित बनाम मुस्लिम होता है तो सबको सांप सूंघ जाता है। कोई नेता दलितों के हितों के लिए मुसलमानों की आलोचना नहीं करना चाहता। ऐसी स्थिति में मायावती स्वयं कई बार चुप्पी साध जाती हैं।
सहारनपुर में इसी 20 अप्रैल को मुसलमानों ने आंबेडकर जयंती के जुलूस को सड़क दूधली गांव में घुसने नहीं दिया था, जिसके कारण वहां बड़ा बवाल हुआ। तब किसी भी दलित नेता ने यह कहने का साहस नहीं जुटाया कि संविधान निर्माता की जयंती पर आयोजित जुलूस को भी मुस्लिम बहुल गांव से होकर क्यों नहीं जाने दिया जा रहा है? सहारनपुर के शब्बीरपुर प्रकरण के 10 दिन बाद 15 मई को आंबेडकर नगर में दलितों और मुस्लिमों में हिंसक संघर्ष हुआ। मामला था एक दलित के खेत में पड़ोसी मुसलमान की बकरी का बार-बार घुसकर गन्ने की फसल को नुकसान पहुंचाने का। दलित ने अपने पड़ोसी से कई बार बकरी को बांधकर रखने को कहा था, लेकिन वह नहीं माना। लेकिन जब उसने बकरी को खेत से बाहर करना चाहा तो इससे नाराज मुसलमानों ने दलितों की पिटाई कर दी, जिससे दोनों वर्गों में संघर्ष हुआ। 25 फरवरी, 2017 को मेरठ में एक दलित युवती पर फब्तियां कसने के चलते सांप्रदायिक टकराव हो गया। 23 फरवरी 2017 को ग्रेटर नोएडा के अच्छेजा बुजुर्ग गांव में दलित एक महिला के साथ हुई छेड़छाड़ की घटना के बाद दो समुदायों में मारपीट हो गई। इन सब घटनाओं में एक बात समान है कि मुसलमानों का दलितों से संघर्ष हुआ, पर किसी भी दलित नेता ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। क्या सिर्फ इसलिए कि कहीं मुसलमान नाराज न हो जाएं, कि ‘दलित-मुस्लिम एकता’ में कोई खलल न पड़े। अर्थात् दलित नेता दलितों के हितों की बलि चढ़ाकर अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ही दलित-मुस्लिम एकता का राग अलापते रहते हैं।
नेताओं के इसी दोहरे चरित्र की एक बानगी 27 मई को रामपुर में 13-14 मुस्लिम युवकों द्वारा दो युवतियों से छेड़छाड़ और उनका अपहरण करने की कोशिश का वीडियो वायरल होने के बाद देखने को मिली। इस घटना को लेकर सबने प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर तो प्रश्नचिह्न लगाया पर किसी ने भी इसे मुसलमानों की गुंडई कहने का साहस नहीं किया, जबकि दबंगों और भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ वे ‘गुंडई’ शब्द का प्रयोग करना अपना विशेषाधिकार समझते हैं। होना तो यह चाहिए कि गुंडई किसी की भी हो, उसकी समान स्वर से आलोचना हो और उस पर कार्रवाई भी हो। परन्तु वोट बैंक की राजनीति के चलते यह भेदभाव अंतत: आत्मघाती ही सिद्ध होता है।
केन्द्र व राज्य सरकार को बदनाम करने की साजिश
सहारनपुर में हुआ जातीय संघर्ष निंदनीय है, लेकिन उससे भी ज्यादा निंदनीय है इस संघर्ष पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के प्रयास। इस घटना के बाद हो रही जांच में यह साफ होता जा रहा है कि किस प्रकार चुनावों में जनता द्वारा ठुकरा दिए गए नेताओं ने, प्रदेश की शांति भंग करने के लिए सुनियोजित षड्यंत्र रचे। भीम आर्मी के खातों में अचानक 50 लाख रुपये कहां से आ गए। मायावती के भाई का भीम आर्मी के चंद्रशेखर से क्या संबंध है। सपा व कांग्रेस के नेताओं ने किस प्रकार उत्तेजक बातें फैलाकर माहौल को बिगाड़ा। यह सब हुआ केंद्र व राज्य सरकार को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश के तहत। ऐसा पहली बार हुआ हो, ऐसा नहीं। हाल ही में जेवर में चार महिलाओं से सामूहिक दुष्कर्म व एक व्यापारी की हत्या के मामले में खुलासा हुआ है कि एक राजनेता व पत्रकार ने षड्यंत्रपूर्वक पीड़ित महिलाओं से यह बयान दिलवाया कि गोमांस खाने के कारण बदमाशों ने इस घटना को अंजाम दिया, जिससे इस मामले को सांप्रदायिक रंग दिया जा सके। बाद में ये महिलाएं अपने बयान से पलट गईं और कहा कि कुछ लोगों ने उन्हें गुमराह कर ऐसा बयान दिलवाया था।
हरियाणा में भाजपा सरकार बनने के बाद प्रदेश में जाट आरक्षण की मांग को लेकर बहुत ही हिंसक आंदोलन हुआ था। उसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले भी आंदोलन किया गया। इस आंदोलन में धरना समीति के उपप्रधान हवासिंह ने 26 मई को सोनीपत में संवाददाता सम्मेलन में आंदोलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष यशपाल मलिक पर आंदोलन के नाम पर एकत्र किए गए धन में हेराफेरी करने का आरोप लगाया है। हवासिंह ने कहा कि आंदोलन के लिए विदेशों से 400 करोड़ रुपये से ज्यादा पैसा आया है, जो जाट ग्लोबल मिशन के खातों में जमा हुआ है। प्रश्न यह है कि जाट आंदोलन के नाम पर विदेशों से 400 करोड़ रुपये किसने भेजे और क्यों? जिस आंदोलन में स्थानीय लोग भागीदारी कर रहे हों उसमें विदेशों से 400 करोड़ रुपया किस मकसद से भेजा गया? क्या यह पैसा केंद्र और हरियाणा सरकार को अस्थिर करने के मकसद से तो नहीं भेजा गया था?
केंद्र सरकार को इस मामले की पूरी जांच करनी चाहिए, जिससे षड्यंत्रकारियों को बेनकाब किया जा सके। उक्त तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि जनता ने जिन नेताओं को चुनाव में नकार दिया है, वे अब विदेशी ताकतों के सहारे, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को, अस्थिर करने के काम में लगे हैं। इस संदर्भ में याद रहे कि कुछ दिन पहले कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के वीडियो सामने आए थे जिनमें वे पाकिस्तान जा कर वहां के नेताओं से यह कह रहे थे कि ‘भारत में मोदी सरकार को हटाने के लिए आप मदद करो।’
तस्वीर एकदम साफ है। राजनीति के पैंतरेबाज अपने स्वार्थ से समाज को बांटने की जहरीली सोच पर काम कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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