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पाकिस्तान में इस्लाम पर सवाल उठाना ही जुर्म है। ईशनिंदा के मामलों में आरोप को ही सबूत और गवाह मान कर भीड़ तुरंत फैसला कर देती है और कानून देखता रहता है। पाकिस्तान ने नफरत की जो खेती की है, उसकी फसल पककर तैयार हो चुकी है। यहां कॉलेज के छात्र भी इस तरह कट्टरपंथी हो गए हैं कि किसी की जान लेने से गुरेज नहीं करते। महिलाएं भी ईशनिंदा के वास्तविक या काल्पनिक आरोप
पर जान लेने से नहीं चूकतीं
अरशद फरीदी
पाकिस्तान में खैबर-पख्तूनख्वा के मरदान स्थित अब्दुल वली खान यूनिवर्सिटी परिसर में बीते माह 13 अप्रैल को मशाल खान नामक एक 23 वर्षीय छात्र को उसके साथी छात्रों ने ही पीट-पीट कर मार डाला। मशाल का गुनाह क्या था? यह कोई नहीं जानता। कहा गया कि उसने इस्लाम पर सवाल उठाया था। हालांकि सबूत किसी के पास नहीं था। पाकिस्तान में इस्लाम पर सवाल उठाना जुर्म है। इसे ‘तौहीन कानून’ कहा जाता है। कहा तो यह भी जाता है कि तौहीन कानून की मांग भारत विभाजन की मांग की एक बड़ी और महत्वपूर्ण वजह रही थी। मुस्लिम लीग चाहती थी कि उनका इलाका ऐसा हो, जहां कोई इस्लाम को लेकर कुछ न कह सके। ये सब इतिहास की बातें है। इतिहास की बातें और भी हैं। खैबर-पख्तूनख्वा खान अब्दुल गफ्फार खान का कार्यक्षेत्र था, जिन्होंने पूरी जिंदगी बड़ी लड़ाइयां लड़ीं। सभी लड़ाइयां गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांतों पर लड़ीं। लेकिन चंद दशकों में तस्वीर इस हद तक बदल चुकी है। जिनके नाम पर विश्वविद्यालय है, वह अब्दुल वली खान अब्दुल गफ्फार खान के पुत्र हैं।
पाकिस्तान में तौहीन भले ही जुर्म हो, लेकिन है तो कानून के दायरे में ही। कानून की एक प्रक्रिया होती है। शिकायत, सुनवाई, फैसला वगैरह। लेकिन तौहीन मामलों में पाकिस्तान में आरोप लगना ही सबूत और गवाह हो जाता है। सुनवाई की जगह आजमाइश होती है और सुनाई जाने वाली सजा हमेशा मौत की होती है, जिसे कई बार फौरन तामील कर दिया जाता है। भीड़ तुरंत फैसला कर देती है और कानून देखता रहता है। हम भारत के लोग शायद कल्पना भी न कर सकें कि तौहीन कानून क्या होता होगा या उस पर मुसलमान ही मुसलमानों के खिलाफ दंगाई कैसे बन जाते होंगे? लेकिन पाकिस्तान इस कल्पना से भी आगे निकल चुका है। वहां कच्ची उम्र के कॉलेज छात्र भी इस कदर कट्टरपंथी हो चुके हैं कि किसी की जान लेने से भी गुरेज नहीं करते। दरअसल कच्ची उम्र की आंखों में सपने होते हैं और सपनों का कोई हीरो होता है। पाकिस्तान भर में सबसे बड़े हीरो वे आतंकवादी हैं, जो सरकारी और फौजी शह पर के तमाम इलाकों में अपनी हुकूमत कायम कर चुके हैं। कहने को आखिर में फौज का सब पर नियंत्रण रहता है, लेकिन वास्तव में वह नियंत्रण कम और सौदेबाजी की हालत ज्यादा होती है।
लड़कों के हीरो बने ये आतंकवादी आखिर कौन हैं? इनमें से ज्यादातर सऊदी प्रायोजित मदरसों के उत्पाद हैं, जिनके दिलो-दिमाग में एक या दूसरे मौलवी ने हर तरह के यकीन भर दिए होते हैं। हालांकि उनमें से कुछ पेशेवर होते हैं और कुछ हालात के गुलाम होते हैं।
मरते दम तक कलमा पढ़कर सुनाने वाले और पानी मांगने पर गोली का निशाना बनाए जाने वाले मशाल खान का खून किसके हाथों पर माना जाए? कोई कहता है कि वह यूनिवर्सिटी के प्रशासकों को खटकता था। इसलिए उन्होंने छात्रों को उसके खिलाफ भड़का दिया होगा। बहरहाल, यूनिवर्सिटी प्रशासन ने जांच के लिए एक कमेटी बनाई है। यह कमेटी मशाल खान की हत्या की जांच करने के लिए नहीं बनाई गई है, बल्कि ‘मशाल खान द्वारा की गई’ ईशनिंदा की जांच के लिए बनाई गई है। लेकिन फैसला तो पहले ही कर लिया गया। सारी बात शायद यहां खत्म हो जाती है। लेकिन यह भी कोई नया चलन नहीं है। ऐसी ही एक घटना कराची में कुछ वर्ष पहले घटी थी, जहां एक फैक्ट्री के कर्मचारियों ने अल्पसंख्यक समुदाय के एक मजदूर को पीट-पीट कर मार डाला था और पुलिस ने उस मारे जा चुके मजदूर के ही खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी।
सलमान तासीर की हत्या इन मामलों में एक बड़ा पड़ाव मानी जाती है, जो पाकिस्तान के मौजूदा हालात के लिए एक आईना की तरह है। हर वारदात के लिए, जो अब सामाजिक आदत जैसी है, जिया उल हक को, अमेरिका को और कभी-कभार सऊदी अरब को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेने वाले पाकिस्तानी विद्वान भी पंजाब के गवर्नर रहे सलमान तासीर की उन्हीं के बॉडीगार्ड के हाथों हुई हत्या पर चुप रह जाते हैं। जिसने हत्या की थी, उसका जिया उल हक से, अमेरिका से, अफगानिस्तान से, सऊदी अरब से और यहांं तक कि वहाबियत तक से कोई संबंध नहीं था। उसे जब अदालत ले जाया गया था, तो अदालत में मौजूद वकीलों ने उस पर फूल बरसाए थे। जिस जज ने उसे सजा सुनाई, वह सजा सुनाते ही परिवार समेत पाकिस्तान छोड़कर भाग गया था। उस समय के पाकिस्तानी मीडिया को देखें, तो आप पाएंगे कि लगभग सारे लोगों ने सलमान तासीर के कत्ल को जायज ठहराने की कोशिश की थी, क्योंकि सलमान तासीर पर आरोप ‘ईशनिंदा’ का था।
अगर आपने पूछ लिया कि सलमान तासीर ने क्या ईशनिंदा की थी, तो सारे लोग ऐसे घूरते जैसे नजर आएंगे, जैसे कह रहे हों कि कितना बेहूदा सवाल है। ईशनिंदा के लिए ईशनिंदा का आरोप लगना ही काफी है। पाकिस्तान ने जो नफरत की खेती की है, अब उसकी फसल पक कर तैयार हो चुकी है। लड़के तो लड़के, लड़कियां और महिलाएं भी ईशनिंदा के वास्तविक या काल्पनिक आरोप पर किसी की जान लेने से नहीं चूकती। ऐसे अनेक उदाहरण हाल में आए हैं।
यह कट्टरपंथ पाकिस्तान की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, कानूनी, फौजी, हर तरह की मजबूरी बन चुका है। आखिर पाकिस्तान भारत का ही टुकड़ा है और इस तरह का कट्टरपंथ उसे कम से कम विरासत में तो नहीं मिला था। पिछली सदी में, खैरपुर के नवाब के पास कोई शिकायत पहुंची थी कि उसकी रियासत के किसी गैर-मुसलमान ने ईशनिंदा की है। नवाब ने उसे बुलाया और कहा कि जब तक मामला शांत न हो, तुम किसी और जगह रहने चले जाओ। उस समय ‘तुरंत जान ले लेने’ का जुनून जैसे हालात नहीं थे। लेकिन विभाजन के चंद वर्ष बाद ही, जब ऐसी ही शिकायत लेकर कोई व्यक्ति लाहौर हाई कोर्ट पहुंचा था, तो जज ने ताना देते हुए उससे कहा था कि तुमने उसे मौके पर ही मार क्यों नहीं डाला? यह शिकायत लेकर क्यों आए हो?
फिर भी, इस सारे फसाद की जड़ जिया उल हक को मानने वालों की बात में काफी दम है। जो शिक्षा जिया उल हक ने शुरू करवाई, जिस तरह तमाम पाठ्यक्रम बदले गए, इतिहास को अपने हिसाब से बदला गया, उसका नतीजा यही निकलना था। आज पाकिस्तान में किसी नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह इस पाठ्यक्रम पर सवाल उठा सके। आसिफ जरदारी और उनके बाद नवाज शरीफ ने हाल ही थोड़ी समझदारी और सहिष्णुता दिखाने की कोशिश की है। हिंदू मैरिज एक्ट पारित हो गया है, कई मंदिरों में पूजा की इजाजत दी गई है और ईसाइयों पर हमला करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात कही गई है। लेकिन ये सारी कोशिशें पाकिस्तान की सियासत में नेताओं के गले की फांस बनती रही हैं। फिर शुरुआती सवाल पर लौटें। मशाल खान का खून किसके हाथों में लगा माना जाए? जो हालात है, उनसे तो लगता है कि उल्टा यह पूछा जाना चाहिए कि किसे इसका गुनहगार न माना जाए।
पाकिस्तान अब खुद को ही खत्म करने के दौर में आ चुका लगता है। अगर वह इससे बचना चाहता है, तो उसे कम से कम अपने पाठ्यक्रमों और अपने मदरसों पर तुरंत लगाम लगानी होगी।
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