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बाईस लोगों की जान गई, पांच दर्जन बुरी तरह घायल हुए। सुर कराहटों में बदल गए। ब्रिटेन के मैनचैस्टर ऐरीना में घटनास्थल पर जितना खून और लोथड़े पड़े थे, सोशल मीडिया पर इस्लामी उन्माद के विरुद्ध उससे ज्यादा आक्रोश दिख रहा था। हमलावर की पहचान हो भी गई और नहीं भी। उसका नाम सलमान आबिदी है। नाम से जाहिर है, हर चीज से जाहिर है लेकिन सोशल मीडिया पर सफाइयों के कुछ कथित उदारवादी या मुस्लिम स्वर भी हैं— यह मुसलमान नहीं है। आतंकी है। आतंकी का कोई मजहब नहीं होता। बिल्कुल ठीक। आतंकी सिर्फ आतंकी हो सकता है। जरूरी नहीं कि उसका कोई मत, पंथ हो। जैसे नक्सली किसी एक आस्था के हों, जरूरी नहीं। किसी वनवासी को नक्सली आतंकी बनाने के पीछे, अपने ही गांववालों के हाथ-पांव काटने, पास-पड़ोस की भोली युवतियों को ‘शिकार’ बनाने, दल में भर्ती के लिए घसीटने के पीछे, वामपंथी/माओवादी फितूर काम करता है। सो इसी तरह सलमान आबिदी के पीछे भी कोई नाम, कोई संगठन और उस संगठन का उद्देश्य, उसकी प्रेरणा कुछ तो रहा होगा। फिर बात सिर्फ इस एक ‘फिदायीन’ और इसके नाम या कुख्यात संगठन तक पहुंचकर ही क्यों ठिठक जाए? बार-बार सलमान आते हैं, ओसामा आते हैं, जवाहिरी आते हैं। सलाहुद्दीन और हाफिज सईद आते हैं। तालिबान आता है, जैश आता है, आईएस आता है… बगदादी गुर्राते हैं..मानवता को लहूलुहान करते हैं ..ये हमले बढ़ रहे हैं लेकिन इस्लामी आतंक पर बहस ठिठकी हुई है! चिकित्सा विज्ञान में उन्माद अपने आप में एक रोग है। इस्लामी उन्माद की पड़ताल की राह में यह ऐसी ठिठकन है जो इसे उन्माद भी नहीं मानती और इसे परिभाषित भी नहीं करती। यह ऐसी जिद है जो इलाज तो छोड़िए बीमारी भी पकड़ में आने नहीं देना चाहती। यह दुराग्रह क्या है? क्यों है? क्या मुस्लिम समाज इस आतंकवाद से त्रस्त नहीं है? क्या कष्ट उधर नहीं है? क्या बाहरी दुनिया के अलावा इस्लाम के भीतर की टकराहट मुसलमानों को ही नहीं कुचल रही? आतंकियों की जड़ें खोजते हुए आप किस भूगोल और किस विचार तक पहुंचते हैं? क्या मध्य और पश्चिमी एशिया में उफनता और पाकिस्तान में पलता, खदबदाता लावा पूरी दुनिया को जला नहीं रहा? इसका जवाब मुस्लिम समाज के भीतर से आए तो सबसे अच्छा है कि
’ अल्लाह की प्रेरणा पावन और प्रेममय है तो मुल्ला जहरीली बातें क्यों करते हैं?
’ क्यों दुनिया में एक भी मुस्लिम देश अन्य मतावलंबियों के लिए उदार और उनकी आस्था को सम्मान देता नहीं दीखता?
’ इस्लामी देशों में इनसान और इनसान में फर्क क्यों बरता जाता है? और तो और, एक तरह के मुसलमानों और दूसरी तरह के मुसलमानों में फर्क क्यों बरता जाता है?
गड़बड़ कहां है? क्या यह मुल्लाओं द्वारा फैलाई गई है? और यह भी कि क्या यह गड़बड़ इतनी ज्यादा फैल चुकी है कि आम मुसलमान मुल्ला-मौलवियों से यह सवाल करने का साहस खो बैठा है कि आज आमतौर पर मारे जाने वाला हर आतंकी मुस्लिम क्यों है? मुंबई, पेशावर, पेरिस, नीस, मैनचैस्टर.. हर जगह नफरत के पीछे एक-सा सबक, पथराई हुई आंखों में 72 हूरों का सपना क्यों है? दुनिया में क्या कमी है जो मुल्लाओं की सोहबत मुस्लिम युवाओं को मौत की ओर खींच ले जाती है? लाशें उठा ली गई हैं लेकिन सवाल वहीं पड़ा है। इस तरह के हर हमले के बाद यह सवाल यूं ही पड़ा रहा है। कोई भय है? या अस्पष्टता? हां अस्पष्टता..यह अस्पष्टता बार-बार रची जाती है। तर्कों का झुरमुट खड़ा कर हर फिदायीन की लाश, उसका नाम, उसकी पहचान… हर सवाल दफनाया ही तो जाता रहा! लेकिन वह कब्रिस्तान भी अब भर चुका है! सो आतंकी कारनामे को अंजाम देने वालों के साथ-साथ उसे उकसाने वाले को कॉलर से पकड़कर न्याय के कठघरे तक लाना अब वक्त की जरूरत है। कुछ सिरफिरों के कारण, अपने अलावा बाकियों को खारिज करती नफरत पर टिकी 'आस्था' के कारण दुनिया कितने घाव खाएगी! क्यों खाएगी? मुसलमानों से एक अपराध जाने-अनजाने हो रहा है। तालिबान या दाएश, उन्मादी आतंकी अपने घृणित, विकृत व्यवहार को सही ठहराने के लिए जिस प्रेरणा का उल्लेख कर रहे हैं, उद्धरण दे रहे हैं, उस प्रेरणा की सही व्याख्या दुनिया तो छोड़िए, मुसलमानों को ही उपलब्ध नहीं है।
तीन तलाक से लेकर आधुनिक समाज से तालमेल बैठाने के अन्य तरीकों तक मुल्लाओं का इस्लाम उदारता और मानवीयता को आंखें तरेरता और ‘काफिरों’ से बदला लेने को उबलता दिखाई देता है। मुसलमानों को जवाब देना होगा कि नफरती आयतें यदि गलत हैं तो सही क्या है? काफिरों के बारे में, महिला-पुरुष समानता के बारे में पूरी मानवता के बारे में इस्लाम की 'उदार' अवधारणा क्या है? पूरी दुनिया न मुस्लिम है, न हो सकती है लेकिन ऐसे में गैर-मुस्लिम हमेशा बुरी आशंकाओं से घिरे तो नहीं रह सकते! आधुनिकता का मतलब यदि ज्ञान, समझ और मेल-मिलाप का बढ़ता दायरा है तो किसी गैर-मुस्लिम को मुसलमान मित्रों को रमजान मुबारक कहने में हिचक नहीं होनी चाहिए। लेकिन मुस्कराकर शुभकाननाएं स्वीकारने वाले मुसलमानों को भी यह मानना होगा कि पृथ्वी 'गोल' है और सूरज 'कीचड़ में से' नहीं निकलता।
शुभकामनाओं और मुस्कराहट के लेन-देन के साथ समझ का व्याप दोनों ओर बढ़े तभी मानवता का ताप-संताप घटेगा।
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