अयोध्या पुन: पुन:
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अयोध्या पुन: पुन:

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May 22, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 May 2017 12:34:13

तरुण विजय
भारत के मान-बिन्दुओं के प्रति हर हिन्दू को गर्व का भाव रखते हुए अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजे रखना होगा। नई पीढ़ी को अपनी गौरवमयी थाती का भान कराना होगा
अयोध्या केवल नगर नहीं, सरयू का प्रवाह ही नहीं, खेत और किसान और मंदिर और आश्रम भी नहीं। अयोध्या एक भाव है। अयोध्या का अर्थ ही है भारत-भाव। जो भी इस राष्टÑ के मन से जुड़ा है, यहां की सभ्यता, विचार, ज्ञान-सम्पदा और परंपरा का वाहक है- उस सबका नाम अयोध्या है।
अयोध्या रामजी का मंदिर मात्र नहीं। वह हिन्दू मन की सर्वोच्च, निर्मल और सुखदायी अभिव्यक्ति है। कोई तो वजह होगी कि पिछली चार-पांच सदियों से हिन्दू अयोध्या जी का स्मरण कर, वहां की रज माथे लगाने का स्वप्न पाले, रामजी के मंदिर की ओर मुंह कर उस क्षण की प्रतीक्षा में छटपटाते आते रहे हैं, जब सरयू में कारसेवकों का रक्त नहीं बल्कि आरती के नन्हे-नन्हे दीये बहते दिखेंगे।
उस अयोध्या का भारत के अभ्युदय से पूरा-पूरा रिश्ता है। काम आधा-अधूरा नहीं हो सकता। याद है किसी को उन तमाम पिछली शताब्दियों का लेखा-जोखा जब मंदिर तोड़े जाते थे, नरसंहार किए जाते थे, अपनों की ही मदद से कोई अकबर राणा प्रताप जैसों को हल्दीघाटी से संघर्ष करते रहने को बाध्य करता था? वे दिन जब कश्मीर के पंडित गुरु तेग बहादुर साहब के पास रक्षा की गुहार को आते थे और मुगल शासक हर सिख के सिर पर इनाम घोषित करते थे? वे दिन भी याद करो कि पानीपत क्यों हुआ या हम्पी क्यों ध्वस्त हुई और छत्रपति शिवाजी ने मिर्जा राजा जयसिंह को आह्वान भरा पत्र क्यों लिखा।
जब आप वह सब याद करेंगे तो पता चलेगा कि अभी भी लड़ाई बाकी है—बहुत बाकी है। कश्मीर में सैनिकों का अपमान जैसा घटनाक्रम दुनिया का कोई देश स्वीकार या सहन नहीं कर सकता। यह सब उसी सिलसिले की कड़ी है जो हमलावरों ने हजार साल पहले शुरू किया था। हमला किसी व्यक्ति पर नहीं, किसी वर्दीधारी अर्द्धसैनिक बल के जवान पर नहीं, बल्कि भारत पर हुआ था— यह माने और समझे बिना कोई समाधान नहीं निकल सकता।
यह सब न हो, अकेला भव्य महान तिरंगा और उसके सम्मान में झुके सिर ही दिखें- उसी का नाम अयोध्या है। तपती गरमी में लू के थपेड़ों को सहते हुए 42 से 47 डिग्री तापमान में सड़क पर जो काम करता मजदूर है, बच्चों को दूध न दे पाने, अच्छे विद्यालय में भेज न पाने का जो क्लेश है, कर्जा न चुका पाने से निराश-हताश वह किसान जो अपनी और अपने प्रियजन-बच्चों-पत्नी-मां बाप को भी सल्फास खिला कर जान लेने को मजबूर होता है-उसकी जो मर्मांतक वेदना है—वह सब न हो- सुख, शांति-समृद्धि से खुशी को महसूस करना, इसका नाम भी अयोध्या है।
कोई कुलदीप जाधव, एक वहशी सैनिक के तमाशे का शिकार हो मृत्युदंड न पाए, दुनिया का कोई देश किसी भी भारतीय के साथ अन्याय करने से पहले सौ बार सोचे कि अगर वैसा किया तो कितना अचानक दंड भुगतना पड़ेगा- वैसा अभियान, सशक्त भारत बनने का नाम अयोध्या है। हिन्दू होने का अर्थ ही है सबके साथ समान न्याय करना—सबके कल्याण और आरोग्य की कामना करना। लेकिन फिर भी हिन्दू के प्रति इतना लज्जा बोध कि हर हिन्दू संवेदनशील विषय पर बोलते समय स्पष्टीकरण देना पड़े या उसे दस आवरणों में कहना पड़े— इससे बढ़कर क्या विडम्बना होगी। वह मानसिकता एक निर्भीक, अभय, भारतीय जागरण का उषा काल देखें तो उस सुबह का नाम अयोध्या है।
हम अगर आज भी हिन्दू के नाते जिन्दा हैं तो उसका कारण हमारे पुरखों का पराक्रम ही नहीं, विद्वानों द्वारा उस संस्थानों का सृजन करना भी है जिन्होंने हमारे मानस को बचाए रखा। केवल विदेशी हमलावरों से देश और जन की रक्षा के लिए सेना का शौर्य पर्याप्त नहीं होता। काया बच गयी पर मन बदल गया तो क्या करेंगे? कश्मीर की काया बची पर मन बदल गया तो आप देख रहे हैं कि अपना ही खून अपनों के खिलाफ कैसे लड़ रहा है?
उस मन को बचाने का काम मंत्रालयों के जरिए नहीं, मंत्रालयों के परे जाकर ही हो सकता है। हिन्दुओं की प्रतिरोधक शक्ति के स्रोत क्या हैं? वह परंपरागत-ज्ञान का परिचय देने वाले संस्थान कहां हैं और कितने हैं? क्या यह सत्य नहीं कि परिवर्तन का एक विराट अवसर केवल कार्यक्रमों और उत्सवों में फैलता दिखता है? सात दशकों का अंध-भारतीयता विरोध और उससे जन्मा द्वेष जिन बौद्धिक संस्थानों, शिक्षा के ढांचे, पाठ्यपुस्तकों के अध्यायों और व्यवहार की पद्धतियों में समा गया- उसको निर्मूल किए बिना भारत के मन की रक्षा का सूत्र कैसे बचेगा, बढ़ेगा
और फलेगा?
विक्रमी संवत् तो मानते हैं पर विक्रमादित्य कौन, उनकी सेना का अनुशासन-आज्ञाएं-बारिकियां- शस्त्र निर्माण- राज्य के आदेश-आदेशों की पद्धति- राजकीय व्यवहार- भाषा का विन्यास- शत्रुओं की पहचान के माध्यम- सीमा का प्रबंधन- आदि इत्यादि विषयों पर किसका काम हुआ? बंकिम का आनंद मठ तो ठीक है, लेकिन वह संन्यासी परंपरा जिसने आनंद मठ को जन्म दिया होगा या संन्यासियों के हाथों में शस्त्र उठाने का साहस किया होगा- उसका स्रोत क्या है? उस पर किसका काम हुआ और हुआ भी तो वह उस साफ्टवेयर इंजीनियर या अध्यापक या किसान के बच्चों के मानस में कैसे उतरेगा ताकि आने वाला भारत उसी परंपरा का वाहक बने?
आज वह अरुणोदय दिखने लगा है। धीरे-धीरे उन आवाजों की आहट कानों में आ रही है जो संकेत देती है कि कल तक जो असंभव दिखता था, वह आज संभव होता जा रहा है। अपनी तैयारी रखिए। वक्त बदलने लगा है।

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