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घाटी अशांत है। वहां के ज्यादातर दल और उनके नेता भारत का दाना-पानी खाते हुए भी भारत की नीतियों के विरुद्ध काम करने से नहीं हिचकिचाते। पत्थरबाजों के जरिए मुल्ला-मौलवी अपने हित साध रहे हैं
विजय क्रान्ति
इन दिनों जम्मू-कश्मीर फिर से सुर्खियों में है। लेकिन दुर्भाग्य से हर बार की तरह इस बार भी इन सुर्खियों की केंद्र केवल कश्मीर घाटी है जो जम्मू-कश्मीर के मात्र साढ़े 11 फीसद हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। अगर प्रदेश के पाकिस्तान और चीन के गैरकानूनी कब्जे में फंसे हिस्से को भी गिना जाए तो खबरों में रहने वाली इस घाटी का कुल हिस्सा सवा सात प्रतिशत से भी कम बैठता है। प्रदेश के बाकी हिस्से में जम्मू और लद्दाख हैं, जबकि पाकिस्तान के हिस्से वाले इलाके में उसके कब्जे वाला कश्मीर का हिस्सा और गिलगित-बाल्टिस्तान हैं। चीनी कब्जे वाले हिस्से में अक्साईिचन और शक्सगाम आते हैं।
लेकिन कमाल है कश्मीर के राजनेताओं, पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों, अलगाववादियों और उनके लिए गला फाड़-फाड़कर हलकान होने वाली एनजीओ बिरादरी और भारतीय मीडिया के 'प्रगतिशील' हिस्से का कि पिछले 70 साल से भारत और दुनिया के लोगों की नजर में जम्मू-कश्मीर के नाम पर केवल कश्मीर घाटी की ही बात की जाती रही है। बाकी 89 प्रतिशत हिस्सा महज इस कारण सुर्खियों से ओझल रहता है, क्योंकि लद्दाख का इलाका स्विट्जरलैंड के किसी शहर से ज्यादा अनुशासनशील है और जम्मू पूरे भारत के किसी भी अन्य इलाके के मुकाबले ज्यादा कानूनप्रिय, शांत और सुरक्षित है।
इन दोनों इलाकों को खबरों में केवल तभी जगह मिलती है जब जम्मू के पहाड़ों में कोई बस खड्ड में गिरती है या कश्मीरी प्रशासन के घोर सांप्रदायिक फैसलों के विरोध में अमरनाथ-यात्रा जैसा कोई बड़ा आंदोलन होता है। लद्दाख भी केवल तभी खबरों में आता है जब वहां के लोग कश्मीरी दबदबे वाले प्रशासन के उपनिवेशवादी अन्याय से तंग आकर लद्दाख के लिए केंद्र शासित प्रदेश की मांग करते हुए आंदोलन चलाते हैं।
कश्मीर घाटी में हिंसा और अशांति का मौजूदा दौर 8 जुलाई, 2016 से चल रहा है जब पाकिस्तान की शह पर घाटी में आतंकवाद चलाने वाले हिज्बुल मुजाहिद्दीन गुट के एक आतंकवादी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। तब से कश्मीर घाटी की राजनीति पत्थरबाजों और सुरक्षाबलों के बीच टकराव तक सीमित होकर रह गई है। हालत यहां तक आ पहुंची है कि पत्थरबाजी का चलन स्कूली लड़कियों तक में पहंुच चुका है।
एक जमाना था जब कश्मीर में एक आतंकवादी के जनाजे की भीड़ के फोटो दुनिया भर के अखबारों के लिए एक आकर्षक 'फोटो-ऑप' होते थे। मगर उसके बाद किसी और 'फोटोजेनिक' खबर के लिए मीडिया को एक दो महीने का इंतजार करना पड़ता था। लेकिन मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के फैलाव ने कश्मीर घाटी को इस तरह की 'न्यूज़ी' तस्वीरों और खबरों के लिए एक ऐसे 'काटेज-इंडस्ट्री जोन' में बदल दिया है, जहां हर गली में 'न्यूज' फैक्ट्रियां चल रही हैं। दुर्भाग्य से भारत के मुख्यधारा मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने एक दूसरे से ज्यादा तेज दिखने की होड़ में बिना सोचे-समझे अपने आपको कश्मीर की भारत विरोधी प्रोपेगेंडा बिरादरी की गोद में बिठा दिया है।
उदाहरण के लिए, 2016 के स्वतंत्रता दिवस पर नई दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने पहले पेज पर 'घाटी में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए' शीर्षक से बड़ी खबर छापी, जिसे पढ़कर ऐसा लगता था, मानो पूरी कश्मीर घाटी पाकिस्तानी झंडों से भर गई हो। इस खबर के साथ अखबार ने श्रीनगर से अपने फोटोग्राफर का भेजा जो फोटो छापा, उसे देखते ही पता चल जाता है कि यह एक 'स्टेज मैनेज्ड' फोटो था, जिसे किसी घर के भीतर या गली के कोने में दीवार पर पेंटिंग करके और एक युवक को नकाब पहना और पाकिस्तानी झंडा पकड़ाकर खींचा गया था। इसी तरह नई दिल्ली से छपने वाले एक और अंग्रेजी दैनिक 'एशियन एज' ने अपने 28 सितंबर के अंक में ठीक इसी तरह का एक फोटो छापा। इस फोटो में किसी घर के भीतर एक दीवार पर 'गो इंडिया गो बैक-वी वांट फ्रीडम' (भारत वापस जाओ-हम आजादी चाहते हैं) लिखा था और उसके सामने स्प्रे कैन लिए एक नकाबपोश युवक को 'विक्ट्री-साइन' बनाते हुए दिखाया गया था। दिल्ली के अखबारों में आए दिन कुछ ऐसा ही छपता रहता है।
दुर्भाग्य से पिछले 70 साल के दौरान कश्मीर घाटी से जिस तरह किस्त-दर-किस्त गैर-मुस्लिम आबादी को भगाकर उसे आज लगभग 100 फीसद मुस्लिम इलाके में बदला जा चुका है, उसका एक बहुत बुरा असर कश्मीर के बारे में भारत और शेष दुनिया में जानकारी पहुंचाने वाली व्यवस्था पर पड़ा है।
आज पूरे भारत में केवल श्रीनगर एक ऐसा राजधानी शहर है जहां के पूरे मीडिया पर केवल एक मजहब (सुन्नी इस्लाम) और केवल एक जाति (कश्मीरी) का कब्जा हो चुका है। भले ही वह पीटीआई और यूएनआई जैसी भारतीय समाचार एजेंसियां हों; विदेशी एजेंसियां हों या हिन्दी अग्रेजी के नामी दैनिक अखबार…। हर मीडिया घराने को केवल एक खास मजहब, खास भाषा और खास राजनैतिक एजेंडे वाले पत्रकारों के व्यक्तिगत नज़रिए वाली खबरें मिलती हैं। नतीजा यह है कि कश्मीर घाटी का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया एक ऐसी न्यूज-फैक्ट्री में बदल चुका है जहां से पैदा होने वाली पूर्वनियोजित और आयोजित खबरों के आधार पर कश्मीर के बारे में एक खास किस्म का जनमत बन रहा है जो कश्मीर पर दुनिया की सोच की दिशा तय करता है।
भारतीय और अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनलों में चलने वाली टीआरपी की होड़ ने कश्मीर से चलने वाले एकपक्षीय और भारत विरोधी प्रोपेगेंडा को और बड़ा आयाम दे दिया है। एक दूसरे से बढ़कर रोचक फुटेज दिखाने की इस होड़ का ही नतीजा है कि भारत के सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकना कश्मीरी युवाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय चैनलों पर दिखने का सबसे सस्ता और आसान शगल बन चुका है। पिछले दिनों कश्मीरी युवाओं की इस निर्लज्जता और दुस्साहस ने आम हिंदुस्थानी की भावनाओं को बहुत आहत किया, जब चुनाव बूथ से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन लेकर लौटते हुए सीआरपीएफ जवानों पर कश्मीरी नकाबपोश पत्थरबाज युवाओं को घूंसे और लातें बरसाते हुए दिखाया गया।
दुर्भाग्य से इस घटना के लिए किसी भी 'प्रगतिशील' भारतीय पत्रकार ने कश्मीरी युवाओं की निंदा नहीं की। लेकिन उसके अगले दिन एक चुनाव बूथ पर पत्थरबाजों की भीड़ से घिरे सुरक्षाबलों की एक टुकड़ी को जीवित और सुरक्षित निकाल ले जाने के लिए जब एक सुरक्षाबल अधिकारी ने एक पत्थरबाज युवक को पकड़ कर अपनी गाड़ी के आगे बांधने का तरीका अपनाया तो मीडिया के इस वर्ग और मानवाधिकारों के लिए चुनिंदा मौकों पर छाती पीटने वाली एनजीओ बिरादरी ने हंगामा खड़ा कर दिया।
कश्मीर की यह हालत कोई अचानक होने वाली घटना नहीं है। इसके पीछे 1931 से चला आ रहा इतिहास है जो तत्कालीन मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के युवा नेता शेख अब्दुल्ला की शह पर पूरे जम्मू-कश्मीर में चलाए गए भयंकर 'काफिर' विरोधी नरसंहार से शुरू हुआ था। कश्मीर में शांति खरीदने के नाम पर भारत विरोधी और घोर इस्लामी सांप्रदायिक शक्तियों को मनमानी करने की 'प्रगतिशील' नीतियों के रूप में यह इतिहास गाथा आज भी जारी है।
दुर्भाग्य से नई दिल्ली में अलग-अलग मौकों पर राज करने वाले राजनेताओं ने कभी भी वहां की जनता को विश्वास में लेकर उससे बात करने और एक राष्ट्रीय सहमति बनाने का प्रयास नहीं किया। लगभग हर दौर में उनके प्रयास केवल वहां के राजनेताओं और अलगाववादियों के प्रभावशाली गुटों को कुछ ले-देकर खुश रखने और अपना वक्त बिता लेने की नीति तक ही सीमित रहे। इसी नीति की वजह सेे अब जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के रिश्तों का एक ऐसा आरामदेह समीकरण बना जिसके तहत नई दिल्ली अब तक इस राज्य की अनाप-शनाप मांगों को पूरा करने के लिए खुले हाथों से पैसा लुटाती
रही है।
इसी कारण पिछले 70 साल में कश्मीर घाटी में राजनेताओं, अलगाववादियों, मुल्ला-मौलवियों, अफसरशाहों और पुलिस अधिकारियों की तीन पीढि़यों के डीएनए में यह दर्ज करा दिया गया था कि नई दिल्ली में बैठे नेताओं को केवल दिलासे देकर, धमकियां देकर और लूट में हिस्सा देकर साधा जा सकता है।
सचाई यह है कि आज के कश्मीर में इन सभी बिरादरियों को यह समझ आ चुका है कि घाटी में अगर शांति स्थापित हो गई तो खुली लूट का यह खेल खत्म हो जाएगा। रोचक बात यह है कि अलग-अलग और विरोधी पार्टियों में होने के बावजूद लगभग सभी कश्मीरी नेता नई दिल्ली के साथ इस 'लेने-देने' के खेल में एक ही टीम के तौर पर खेलते रहे हैं। भले ही वह पूरे राज्य में अपने संजाल के दावे के बावजूद काफी हद तक केवल कश्मीर घाटी के बूते पर खम ठोकने वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस हो, घोर कश्मीरवादी पीडीपी हो, या फिर 'राष्ट्रीय' मुलम्मे के साथ 'कश्मीरी अस्मिता' के लिए मर मिटने का दावा करने वाले कश्मीरी कांग्रेसी नेता हों, सबके सब खुद को 'कश्मीरियत' का सबसे ईमानदार प्रतिनिधि बताते आए हैं और खजाने की लूट में पूरे उत्साह से शामिल रहते आए हैं।
आज कश्मीर में पत्थर उठाए युवाओं को देखकर हर किसी का दिल दुखी हो रहा है। एक नज़रिए से उनके भारत विरोधी नारों पर गुस्सा आना वाजिब है। लेकिन इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि यह युवा पीढ़ी असल में नई दिल्ली सरकार की ज्यादतियों से कहीं ज्यादा अपने उन कश्मीरी राजनेताओं, मुल्ला-मौलवियों और शासकों-प्रशासकों के पापों का शिकार है जिन्होंने अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक और मजहबी स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस पीढ़ी की जिंदगी से दूसरे भारतीय युवाओं की तरह शांति से रहने और अपने भविष्य के सपनों को परवान चढ़ाने की सोच, मौका और वातावरण सब छीन लिए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के अध्यक्ष हैं)
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