सोनू की सुनी नहीं, नक्सलियों की वकालत
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सोनू की सुनी नहीं, नक्सलियों की वकालत

by
May 1, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 May 2017 12:31:56

 

मीडिया और पत्रकारों की विश्वसनीयता दांव पर है। चयनित विषयों पर ही इनकी जुबान हिलती है

अभी हाल छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमला हुआ। देश को अपने 25 बहादुर जवानों से हाथ धोना पड़ा। जितनी त्रासद यह घटना थी, उससे भी कहीं त्रासद वे लोग हैं जो नक्सलवाद का विष बोने में लगे हैं। अभी हमले की पूरी जानकारी भी सामने नहीं आई थी कि चैनलों के एक तबके ने इस बर्बर घटना पर ऐसी रिपोर्टिंग शुरू कर दी, जो नहीं होनी चाहिए। इंडिया टुडे टीवी के एक वरिष्ठ पत्रकार ने दिल्ली की कुख्यात नक्सल समर्थक महिला प्रोफेसर को अपने स्टुडियो में बैठाकर समस्या पर प्रतिक्रिया लेनी शुरू कर दी। ये वही प्रोफेसर हैं, जिन पर नक्सलियों का समर्थन करने से इनकार करने वाले वनवासी की हत्या तक का आरोप है। अब यह कहां तक उचित है कि जिन लोगों की विचारधारा के कारण जवानों को शिकार बनाया गया, उन्हीं को बैठाकर पक्ष रखने का मौका दिया जाए। हिंसा के रास्ते क्रांति का सपना देख रहे इन असामाजिक तत्वों को टीवी पर बैठाना और वह भी दर्शकों को बिना बताए कि इनकी पृष्ठभूमि क्या है, पत्रकारिता की कौन-सी आचार संहिता इसे मान्यता देती है? ठीक इसी तरह कई नक्सल समर्थक लगभग सभी चैनलों पर बड़ी बेशर्मी के साथ नक्सली बर्बरता का औचित्य समझाते देखे गए। यह एक तरह का महिमामंडन है जो बीते कई साल से बेरोकटोक जारी है। 

जब-जब ऐसे हमले होते हैं, यह बात सामने आती है कि लगभग सभी मीडिया समूहों में नक्सली समर्थक सक्रिय हैं। ये बड़ी सफाई से माओवादी हमलों और उनके कुकृत्यों को वाजिब ठहराते हैं। इस मामले में एनडीटीवी का कोई तोड़ नहीं है। चैनल के संवाददाताओं ने बड़ी सफाई से इस आरोप को तथ्य की तरह पेश किया कि सुरक्षा बल वनवासी महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं। यह आरोप एक नहीं, कई बार झूठ साबित हो चुका है। चैनल के एक रिपोर्टर ने बार-बार यह दावा किया कि नक्सलियों ने वनवासी महिलाओं के साथ हुए 'कथित' बलात्कार का बदला लेने के लिए यह हमला किया था। यहां सवाल उठता है कि बिना सबूत सुरक्षा बलों को बदनाम करने की यह कोशिश कब तक बर्दाश्त लायक है? अगर कुछ चैनल और अखबार इस झूठ को बार-बार इस तरह से दिखाते रहेंगे तो हो सकता है कि कुछ लोगों को यह वाकई सच लगने लगे। देश के जवानों को बदनाम करने वाले पत्रकार तब अचानक बहुत सक्रिय हो जाते हैं जब कोई जवान खाने-पीने या उच्चाधिकारियों के खिलाफ खुली शिकायत करता है।

बीएसएफ के जिस जवान ने सोशल मीडिया पर खराब खाने की शिकायत की थी। उस मामले में कुछ ऐसा ही गैरजिम्मेदाराना रवैया देखने को मिला। सुरक्षाबलों के कुछ अनुशासन और नियम-कायदे होते हैं। आम तौर पर जिम्मेदार सरकारें इसमें कभी दखलंदाजी नहीं करतीं। बीएसएफ ने उस जवान को अपनी अंदरूनी प्रक्रिया के जरिए नौकरी से निकालने का आदेश दिया। इस बात को मीडिया के एक जाने-पहचाने तबके ने ऐसे दिखाया मानो उसे सरकार ने नौकरी से निकाला हो। कम से कम सुरक्षा के मामलों में मीडिया को थोड़ी संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है। जरूरी नहीं कि वे दावे सही हों जो मीडिया के जरिए किए जा रहे हों। वैसे भी न्यायालय में मामला जाएगा और उम्मीद है कि सचाई सामने आएगी। लेकिन अगर कोई चैनल या अखबार इस विषय पर फैसला सुनाता दिखे तो उसकी मंशा पर शक

जरूर होगा।

यही स्थिति सहारनपुर में हुई हिंसक घटनाओं की रिपोर्टिंग में देखने को मिली। वहां आंबेडकर जयंती की शोभायात्रा पर मुसलमानों ने पथराव किया। लेकिन दिल्ली के लगभग सभी अखबारों और चैनलों ने इस पहलू को सिरे सेे गायब कर दिया। इसके बजाय इस घटना की प्रतिक्रिया में जो हिंसा हुई, उसको ज्यादा प्रचारित किया गया।

सहारनपुर की घटना के ईद-गिर्द ही मीडिया में एक ऐसा पूरा नेटवर्क सक्रिय था जिसने यूपी में दंगे भड़काने की कोशिश की। कई बड़े पत्रकारों और संपादकों ने सोशल मीडिया पर ऐसे अपुष्ट वीडियो फैलाने की कोशिश की, जिनसे यह साबित होता हो कि भाजपा की सरकार बनने के बाद यूपी में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। पत्रकार होने के कारण लोग उनके फैलाए इन झूठे वीडियो पर यकीन भी कर लेते हैं। यह वही वर्ग है जिसे बंगाल के बीरभूम में हनुमान भक्तों पर हुए बर्बर लाठीचार्ज की खबर तक नहीं थी। लेकिन बांग्लादेश में किसी दाढ़ी वाले की पिटाई के वीडियो को ये लोग उत्तर प्रदेश का बताकर नफरत फैलाने की कोशिश करते रहते हैं।

उधर गायक सोनू निगम के खिलाफ फतवे और उन्हें नुकसान पहुंचाने के बदले पुरस्कार की घोषणाओं की बाढ़ आई हुई है। मीडिया इन सभी खबरों को सेंसर कर रहा है। यह बात सही है कि ऐसे गैरजिम्मेदार तत्वों को ज्यादा तवज्जो नहीं देनी चाहिए, लेकिन सोचने की बात यह है कि जब केरल या बंगाल के मुख्यमंत्री को लेकर कोई छोटा-मोटा नेता भी ऐसा कोई बयान दे देता है तो उसे आखिर चैनलों और अखबारों में इतना प्रचार कैसे मिल जाता है? दरअसल, सेकुलर मीडिया का बड़ा हिस्सा आज इस तरह के तमाम विरोधाभासों में घिरा दिखाई देता है। ऐसे उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं। 

 

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