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पिछले कुछ समय से यूरोप और अमेरिका के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च में एक खलबली-सी है। इसकी वजह वहां ऐसे लोगों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी है जो खुद को 'ईसाई' दायरे से बाहर लाकर नास्तिक होने की बात कर रहे हैं। कन्वर्जन की ईसाई योजना को इस स्थिति से झटका लगा है
मोरेश्वर जोशी
आजकल यूरोप और अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग ईसाईयत को त्याग खुद को 'नास्तिक' बताने लगे हैं। इससे ब्रिटेन में ईसाइयों के अल्पसंख्यक होते जाने की रिपोर्ट सामने आ रही है। पिछले कुछ महीनों में यूरोप के10 देशों की यात्रा करने पर यह एहसास हुआ कि आने वाले कुछ वर्षों में यह परिवर्तन और गति पकड़ेगा। वहां इस विषय की चर्चा जोरों पर है। इसे लेकर एक के बाद एक सर्वे सामने आ रहे हैं, जबकि रोमन अथवा प्रोटेस्टेंट प्रवक्ता इस पर टिप्पणी करने से कतराते हैं। अमेरिका में 10 वर्ष से यह बदलाव देखने में आ रहा है। वहां की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर कैथोलिक चर्च ने वहां 'नास्तिकता' की इस लहर को रोकने के तरीके पर एक अंतरराष्ट्रीय परिषद आयोजित की थी। इसे 'सुनामी ऑफ सेक्युलरिज्म' नाम दिया गया था।
उधर ब्रिटेन के ट्विकेनहैम स्थित सेंट मेरी कैथोलिक विश्वविद्यालय, जो पिछले 30 वर्ष से ब्रिटेन के सामाजिक परिदृश्य का अध्ययन करता आ रहा है, ने उक्त रिर्पोट जारी की है, जिस पर ब्रिटेन और अमेरिका में गंभीरता से अध्ययन हो रहा है। ब्रिटेन में 2011 की जनगणना के अनुसार नास्तिकों, यानी जन्म से ईसाई होकर भी 'अब मैं ईसाई नहीं हूं' कहने वालों की तादाद 25 प्रतिशत थी। इसके तीन वर्ष बाद वह बढ़कर 48़ 50 प्रतिशत हो गई। इस साल तो यह 50 प्रतिशत पार कर गई है। स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन में ईसाइयों के अल्पसंख्यक होते जाने की चिंता उभरने लगी है। यूरोप एवं अमेरिका के बारे में पिछले वर्ष आई ऐसी रिपोर्ट के अनुसार वहां आधे स्थानों पर ऐसा परिवर्तन देखने में ंआ रहा है। कैथोलिकों के केन्द्र रोम स्थित वेटिकन और ब्रिटेन में प्रोटेस्टेंट्स के मुख्यालय 'चर्च ऑफ इंग्लैंड' की ओर से इसे रोकने के प्रयास असफल होते दिखे हैं।
भारत सहित यूरोप, अमेरिका और पूरी दुनिया की दृष्टि से यह परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुनिया में आज 150 करोड़ ईसाई ऐसे हैं, जो यूरोपीय मिशनरियों द्वारा कन्वर्टिड किए गए हैं। पिछले 500 वर्ष के दौरान यूरोपीय देशों ने मिशनरियों के माध्यम से दुनिया के गरीब देशों में अपना वर्चस्व बनाया है। लेकिन अब उनका अपने ही यहां महत्व समाप्त हो चुका है, इसलिए इस मत को न मानने वालों की संख्या बढ़ने लगी है। भारत का इस विषय पर गौर करना अत्यावश्यक है, क्योंकि भारत में आज ईसाई कन्वर्जन का व्यापक प्रयास जारी है। पूवार्ेत्तर भारत में नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय में मुख्यत: ब्रिटिश परंपरा वाले बैप्टिस्ट मिशन ने बड़े पैमाने पर कन्वर्जन किया है। साथ ही विभाजनकारी आतंकी आंदोलन भी खड़ा किया है। वहां कुछ हद तक सफलता मिलने पर ऐसा ही प्रयोग झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश के अधिकांश हिस्सों, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में भी किया गया। आज देश में बड़े पैमाने पर कन्वर्जन के उनके प्रयास जारी। पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 15 वर्ष पूर्व भारत आकर सारे मिशनरियों के समक्ष इसी सदी में 'इंडिया विल बी क्राइस्ट लैंड' की घोषणा की थी। भारत में जिस तेजी से यह सब चल रहा है, वैसे ही यह चीन, दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका के कई देशों और कुछ लातीनी अमेरिकी देशों में भी चल रहा है। आज चीन में हालात ऐसे हैं कि, मिशनरियों द्वारा किए गए दावे के अनुसार, चर्च सदस्यों की संख्या वहां के कम्युनिस्टों से अधिक है। यानी चीन में ईसाइयों की संख्या 12 करोड़ है तो कम्युनिस्टों की संख्या केवल 7़ 5 करोड़ रह गई है। इससे भी अधिक गौरतलब बात यह है कि अगले 15 वर्ष में ईसाई मिशनरियों के सामने कन्वर्टिड लोगों की तादाद 30 करोड़ से अधिक करने का लक्ष्य है।
सेंट मेरी कैथोलिक विश्वविद्यालय में ईसाई धार्मिक साहित्य विभाग में प्रोफेसर डा़ स्टीफन ब्लिवांट ने इस सर्वेक्षण के बारे में कहा कि इस नमूना सर्वेक्षण में पाया गया कि यहां के लोग न केवल पंथ को मानने को लेकर नाराज हैं, बल्कि इस संदर्भ में किसी तरह के विचार सामने न लाये जाएं, ऐसा भी उनका आग्रह है। सर्वेक्षण में स्कॉटलैंड एवं उत्तरी आयरलैंड के हिस्से शामिल नहीं हैं, क्योंकि वहां से सामने आने वाले आंकड़े अधिक चौंकाने वाले हैं। स्कॉटलैंड में 1999 में 40 प्रतिशत लोग 'नास्तिक' थे, आज वह तादाद 52 प्रतिशत हो गई है। डा़ॅ ब्लिवांट के अनुसार, एक पंथ के लोगों को दूसरे ईसाई पंथ द्वारा अपनी ओर लाने के लिए फिलहाल म्युजिकल चेयर जैसा खेल चल रहा है, खींचतान चल रही है। ब्रिटेन में 1983 में 44.5 प्रतिशत लोग एंग्लिकन ईसाई थे, 2014 में ये 19 प्रतिशत बचे हैं। वहां कैथलिकों का अनुपात तब 15़ 7 प्रतिशत था जो अब 8़3 प्रतिशत है। इंग्लैंड के लंदन शहर में 'नास्तिकों' का अनुपात जहां 40 प्रतिशत है वहीं वेल्स इलाके में यह 59.5 प्रतिशत है। इसमें भी कुछ बारीकियां सामने आई हैं जिसमें इंग्लैंड और वेल्स में 55 की उम्र से अधिक पुरुषों में पंथ को न मानने वालों का अनुपात अधिक है तो महिलाओं में यह अनुपात 58़ 6 प्रतिशत है।
यूरोपीय और अमेरिकी लोगों के बड़े पैमाने पर 'नास्तिक' होने के जो कारण सामने आ रहे हैं, उनमें 'बढ़ती सुख-सुविधाओं के कारण धर्म की जरूरत नहीं प्रतीत होती' मानने वाले ज्यादा हैं। लेकिन 8 वर्ष पूर्व अमेरिका की मशहूर पत्रिका 'न्यूज वीक' की तत्कालीन संपादक लीशा मिलर ने एक विशेषांक में इसका मार्मिक विवेचन किया था। उन्होंने लिखा था, ''ईसाई मत की सोच कि, 'मेरा ही परमेश्वर सच्चा है' के कारण यह मत लोगों में अरुचि जगा रहा है। आज पश्चिमी जगत में जो जीवनशैली अपनाई जा रही है, उसमें 'दूसरों का ईश्वर भी सच्चा है' को स्वीकारा जाता है। इस तरह अन्यों के ईश्वर को स्वीकारने की उदारता विश्व में केवल हिंदू धर्म में है। आज यूरोप और अमेरिका की नई पीढ़ी में यह मानसिकता नहीं है। वह मान रही है कि 'तुम्हारे ईश्वर पर भी मेरी कोई आपत्ति नहीं है।'' लीशा मिलर द्वारा इस विषय पर प्रकाशित विशेषांक पूरी दुनिया में चर्चित हुआ था। आज दूसरों के ईश्वर के प्रति आदर व्यक्त करने वाला एक नया विश्व आकार ले रहा है। यह सोच केवल हिंदुओं में है, जिसके कारण आगामी समय में अमेरिका और अन्यत्र भी हिंदू धर्म को बड़े पैमाने पर अपनाए जाने की संभावना है। उन्होंने हिंदू धर्म के अंतर्गत योग को बड़े पैमाने पर अपनाए जाने का उदाहरण भी दिया था।
दरअसल योगाभ्यास की स्वीकार्यता की यह स्थिति आज पूरी दुनिया में है। अमेरिका में योगाभ्यास के केंद्र हर ओर दिखते हैं। आने वाले समय में जहां यूरोप और अमेरिका में 'नास्तिकों' की संख्या में बढ़ोतरी होती दिखती हैं, वहीं हिन्दू अथवा सनातन धर्म की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है।
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