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देश में जैविक खाद के बढ़ते प्रयोग से न केवल मिट्टी की उर्वरा शक्ति लौट रही है, बल्कि किसानों को आश्चर्यजनक रूप से भारी-भरकम खर्च से राहत मिल रही है। जैविक खेती के प्रयोग से पैदावार भी बढ़ रही है। सिक्किम जैसे छोटे राज्य ने पूरी तरह से जैविक खेती का रास्ता अपना कर खुशहाल जीवन की राह दिखाई है। इस बार बैसाखी पर्व माटी में नई स्फूर्ति का संदेश दे रहा है
डॉ. रवींद्र अग्रवाल
देश में खेती के तौर-तरीके बदल रहे हैं। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जगह अब किसान जैविक खेती की ओर रुख कर रहे हैं। जैविक कृषि में लागत काफी कम आती है और सिंचाई भी कम करनी पड़ती है, जबकि पैदावार अधिक और गुणवत्तापूर्ण होती है। जैविक कृषि से होने वाले मुनाफे से जहां किसानों के चेहरे खिल रहे हैं, वहीं स्थानीय लोगों को पूरे साल रोजगार भी मिल रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मिट्टी और इनसानों के स्वास्थ्य के लिए भी यह काफी फायदेमंद है।
मध्य प्रदेश में जबलपुर जिले के दूर-दराज के एक गांव में हरियाणा के एक समृद्ध किसान परिवार का फार्म हाउस है। इसमें जैविक सब्जियों और मिर्च की खेती होती है। खास बात यह है कि खेतों में काम करने के लिए किसान परिवार हरियाणा से मजदूर नहीं ले गया, बल्कि वहीं के आसपास के गांवों के 300 मजदूरों को रखा और उन्हें पूरे साल का काम दिया। इसके अलावा, उन्हें घर से लाने और वापस घर तक छोड़ने की व्यवस्था बिल्कुल वैसे ही की, जैसे गुरुग्राम की बहुराष्ट्रीय कंपनियां करती हैं। यानी इस परिवार ने जैविक खेती के लिए विशुद्ध व्यावसायिक तरीका अपनाया। इतने बड़े पैमाने पर व्यावसायिक रूप से खेती करना तभी संभव है जब उसमें लाभ होगा। जाहिर है देश के बड़े कृषि वैज्ञानिक और नौकरशाह आज तक जिस जैविक खेती को घाटे का सौदा बताकर उसे नजरअंदाज कर रहे थे, वह खेती किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि इसके लिए जरूरी माहौल, शीतभंडारण और मंडी की व्यवस्था की जाए।
जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग
वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों की मांग बढ़ रही है। इंटरनेशनल कम्पीटेंस फॉर आॅर्गेनिक एग्रीकल्चर के एक अनुमान के मुताबिक, जैविक उत्पादों की घरेलू मांग सालाना 40-50 फीसदी की दर से बढ़ रही है। वहीं, वैश्विक मांग में 20-25 फीसदी का इजाफा हो रहा है। उपभोक्ता दोगुनी कीमत पर भी जैविक उत्पाद खरीदना चाहता है। हालांकि जिस रफ्तार से जैविक उत्पादों की मांग बढ़ रही है, उस हिसाब से इसकी खेती का क्षेत्र नहीं बढ़ रहा है। अभी देश में करीब 7 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है। 2020 तक इसके 20 लाख हेक्टेयर होने का अनुमान है जो देश के कुल कृषि क्षेत्र का पांच फीसदी ही है। वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग के मद्देनजर यह बहुत कम है। देश का कुल कृषि क्षेत्र 13,99़3 लाख हेक्टेयर है।
क्यों बढ़ रही है मांग?
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले दुनियाभर के किसान जैविक खेती या प्राकृतिक खेती ही करते थे। 1960 से पहले देश में उर्वरक और कीटनाशक जैसे कृषि रसायनों का उपयोग नगण्य था। हरित क्रांति के दौरान खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग किया गया, जिसके परिणाम सामने हैं। 1965 से पहले जो भारत अनाज के लिए अमेरिका पर आश्रित था, वह देखते-देखते खाद्यान्न का निर्यातक बन गया। लेकिन देश के किसानों, उपभोक्ताओं और खेतों को इस उपलब्धि की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
आज स्थिति यह है कि हम जो अनाज खाते हैं, दूध पीते हैं या चिकित्सकों की सलाह पर स्वास्थ्य लाभ के लिए जो भी फल खाते हैं, उनमें से 99 फीसदी में कृषि रसायनों के जहरीले और प्राणघातक अंश मौजूद रहते हैं। यहां तक कि मां का वह दूध भी विषाक्त हो गया है जो वह अपने बच्चे को पिलाती है।
स्वास्थ्य पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के गंभीर दुष्प्रभावों को देखते हुए दुनियाभर के चिकित्सक बेहद चिंतित हैं। आलम
यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार में तेजी के बावजूद कृषि रसायनों के कारण पैदा हुई गंभीर स्थितियों को देखते हुए सारे प्रयास बौने साबित हो रहे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के विशेषज्ञों का मानना है कि मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे इस खतरे से निपटने का केवल एक ही तरीका है- जैविक उत्पादों के उपभोग को बढ़ना। इसी वजह से दुनियाभर में जैविक उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है, लेकिन किसान उसे पूरा करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं।
दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अभी भी रासायनिक खेती और जीएम खेती के दोहरे कुचक्र से कुछ हद तक बचा हुआ है। हालांकि कृषि रसायन और जीएम फसलों के बीज बनाने और बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत को अपने शिकंजे में लेने के सभी प्रयास कर रही हैं, लेकिन जागरूक किसानों के कारण उनकी चालें कामयाब नहीं हो पा रही हैं। इसके विपरीत कृषि उत्पादों का निर्यात करने वाले कई देश कॉरपोरेट सेक्टर के इस कुचक्र में फंस चुके हैं। वहीं, अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक कई यूरोपीय देशों ने रासायनिक और जीएम उत्पादों के आयात पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं। ऐसे में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने में समर्थ है।
जैविक खेती में बाधाएं
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब जैविक उत्पाद ही स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हंै तो इनकी दिनोंदिन बढ़ रही मांग के बावजूद किसान इनके उत्पादन में रुचि क्यों नहीं ले रहा है? इसके लिए किसानों को दोषी ठहराने से पहले सरकारी तंत्र की पेचीदगियों को समझना पड़ेगा। दरअसल, हार्वर्ड छाप अर्थशास्त्रियों की जमात किसी न किसी बहाने से किसानों के जैविक खेती के मार्ग में तरह-तरह के कांटे बोने में लगी रहती है। देश को आंकड़ों में उलझा कर रखने में कृषि संस्थानों के वैज्ञानिक और नौकरशाह भी पीछे नहीं हैं। लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद इस क्षेत्र में बड़े स्तर पर बदलाव की उम्मीद बढ़ गई है। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के तत्काल बाद नरेंद्र मोदी ने देश के किसानों से जैविक खेती अपनाने की अपील की थी। इसी क्रम में पिछले साल जनवरी में सिक्किम को पहला पूर्ण जैविक राज्य घोषित किया था। प्रधानमंत्री के इस आह्वान को अमली जामा पहनाने के लिए कृषि मंत्री ने ‘नेशनल टास्क फोर्स फॉर आॅर्गेनिक फार्मिंग’ का गठन किया था। इसमें कृषि वैज्ञानिकों, नौकरशाहों और अर्थशास्त्रियों के साथ जैविक खेती से प्रत्यक्ष रूप से जुडेÞ सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी शामिल किया गया था। इस टास्क फोर्स ने मई 2016 में सरकार को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सौंप भी दी। लेकिन सूत्रों के अनुसार, कृषि मंत्रालय के नौकरशाह इस पर कुंडली मार कर बैठे हैं।
रोजगार के लिहाज से भी फायदेमंद
जबलपुर जैसी जगह पर एक किसान द्वारा जैविक खेती में 300 मजदूरों को लगाने का उदाहरण कई संदर्भों में महत्वपूर्ण है। हरियाणा के इस किसान ने अगर काम नहीं दिया होता तो वे लोग दिहाड़ी के लिए मनरेगा से 100 दिन का रोजगार मिलने की आस में अपने गांव में ही बैठे रहते। फिर भी किसी कारणवश उन्हें मनरेगा के तहत काम नहीं मिलता तो रोजगार की तलाश में मजबूरन उन्हें भोपाल या दिल्ली जैसे महानगरों का रुख करना पड़ता। बड़े शहरों में वे कहां रहते? वहीं जहां दूसरे लाखों प्रवासी मजदूर झुग्गी-झोंपड़ियों में नारकीय जीवन जीने को बाध्य होते हैं? बहुत संभव है कि दिल्ली जैसे शहरों में इन 300 मजदूरों के लिए एक और झुग्गी बस्ती बसा दी जाती। लेकिन उन्हें काम मिला या नहीं, इसकी चिंता किसी को नहीं होती। वास्तव में हरियाणा के इस किसान ने न केवल उन्हें नारकीय जीवन से बचाया, बल्कि महानगरों की नागरिक सेवाओं पर बोझ बढ़ने से भी रोका। खास बात यह कि जैविक कृषि से जुड़े ये मजदूर अपने प्राकृतिक और स्वाभाविक परिवेश में अपने परिवार के साथ स्वस्थ वातावरण में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
सूखे में सुख के संवाहक
महाराष्टÑ के रायगढ़ जिले में कर्जत के निकट खाडवे गांव में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक के उपयोग का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इस गांव के अशोक गायकर और उनके मित्रों ने मिलकर दोनों ओर पहाड़ों से घिरी 60 एकड़ भूमि पर वनदेवता डेयरी एवं कृषि फार्म विकसित किया है। यहां वर्षा जल संरक्षण के लिए चेकडैम तथा पहाड़ों से बहकर आने वाले जल को एक एकड़ में फैले तालाब में एकत्र किया जाता है। साथ ही, यहां 10 भारतीय नस्लों की 150 गायों का संरक्षण और संवर्धन, दूध के अलावा गोबर-गोमूत्र से बने उत्पाद, गोबर गैस का उपयोग तथा कंपोस्ट खाद आदि द्वारा जैविक कृषि, बकरी पालन, मुर्गी पालन और मत्स्य पालन भी किया जा रहा है। बेमौसमी फल-फूल, सब्जी आदि पैदा करने के लिए पॉलीहाउस तथा सूखे के मौसम में भी हाइड्रोपोनिक्स विधि द्वारा पशुओं के लिए हरे और पौष्टिक चारे का उत्पादन भी किया जाता है। साथ ही, आम, आंवला, चीकू सहित अन्य बागवानी फसलें भी हो रही हैं। खेतों में ड्रिप सिंचाई तकनीक का प्रयोग हो रहा है। यहां प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी के ‘मोर क्रॉप पर ड्रॉप’ यानी पानी की हर बूंद से ज्यादा फसल के आह्वान को साकार होते देखा जा सकता है। अगर दो साल बारिश न भी हो तो यहां 60 एकड़ खेती और 150 गायों के लिए पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध है।
देश के कई भागों में, खासकर उत्तराखंड के उफरेखाल में सच्चिदानंद भारती, बुंदेलखंड में मंगल सिंह, जयपुर के लापोड़िया में लक्ष्मण सिंह, मध्यप्रदेश के आईएएस उमाकांत उमराव जैसे लोग आर्थिक और सामाजिक महाशक्ति के उदाहरण हैं, जो सूखे में खुशहाली लाने के लिए लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कृषि मामलों के जानकार हैं)
कैंसर फैलाते कीटनाशक
कीटनाशक कैंसर कारक होते हैं। इनसे भू्रण का विकास रुकता है और गर्भपात हो जाता है। बच्चे में जन्मगत विरूपता उत्पन्न हो जाती है। तंत्रिका तंत्र में खराबी आती है और हार्मोन भी ठीक से नहीं बनते हैं। साथ ही, मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाता, जिससे 80 फीसदी मामलों में लड़कियां प्रभावित होती हैं। कीटनाशक रसायनों के दुष्प्रभाव से आनुवंशिक दोष उत्पन्न हो जाते हैं और संतति प्रभावित होती है। रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है जिससे रोग संंक्रमण के खतरे बढ़ जाते हैं।
यूरोप-अमेरिका में पाबंदी
जिन कीटनाशकों पर अमेरिका और यूरोपीय देशों में प्रतिबंध है, उन्हें भारत में धड़ल्ले से बेचा जा रहा है। भारत में मैंकोजेब, फोरेट, मिथाइल पैराथियान, मोनोक्रोटोफॉस, साइपरमेथ्रियान, क्लोरोपाइरीफॉस, मैलाथियान, कार्बेन्डाजिम, क्यूनिलफॉस और डाइक्लोरोव्स जैसे कीटनाशक व फफूंदीनाशक रसायन प्रयोग किए जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। इनमें से कई रसायन यूरोप एवं अमेरिका जैसे देशों में प्रतिबंधित हैं। इन रसायनों से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होने के अलावा इनका प्रजनन अंगों, लीवर, किडनी, दिल, फेफड़ों और मस्तिष्क पर भी असर पड़ता है।
जैविक खाद
राइजोबियम
एजोटोवैक्टर
एजोस्पाइरिलम
फॉस्फो बैक्टीरिया
एसिटो बैक्टर
एजोला
नील हरित शैवाल
कम्पोस्ट
गोबर की खाद
केंचुआ खाद
हरी खाद
नीम की खल इसके फायदे
बीज, जड़, कंद एवं मृदा उपचार में सहायक होता है
जमीन की जलधारण क्षमता बढ़ाने में मददगार होता है
मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि करता है
जमीन की निचली सतह में सुधार लाने में सक्षम होता है
नाइट्रोजन, फॉस्फोरस के साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता होती है
मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने में कारगर होती है
बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ाने में मददगार होता है
ओजपूर्ण पौधों का विकास होता है
भूमि का स्वास्थ्य ठीक रहता है
वृद्धि कारक हारमोन की उपलब्धता होती है
मिट्टी की जैव सक्रियता बढ़ाने में सक्षम होती है
कृषि संस्थानों की मानसिकता
जैविक खेती के मार्ग में आने वाली बाधाओं के संबंध में खेती विरासत मिशन के निदेशक उमेंद्र दत्त का कहना है कि देश में खेती कैसी हो, किस प्रकार हो, इसकी पूरी जिम्मेदारी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विज्ञान केंद्रों के कंधों पर है। सबसे पहले किसान इन्हीं के संपर्क में आते हैं। यहीं से किसानों को पता चलता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? किस प्रकार की खेती से उन्हें लाभ होगा? किसानों को जागरूक बनाने के लिए यही संस्थाएं देशभर में कृषि मेलों का आयोजन भी करती हैं। लेकिन इस पूरे तंत्र की मानसिकता रासायनिक खेती के प्रति प्रतिबद्ध है और यह किसानों को भी उसी रासायनिक खेती के दुष्चक्र में फंसाए रखना चाहता है। ये नहीं चाहता कि किसान जैविक खेती अपनाएं, कर्ज के जंजाल से बाहर निकलें और खुशहाल हों। किसानों को भ्रमित करने के लिए ही ये देश में शीतभंडारण और मंडी सुविधाएं विकसित नहीं होने देना चाहते, अन्यथा क्या कारण है कि जैविक खेती पर बने राष्ट्रीय टास्क फोर्स की रिपोर्ट को आए हुए एक साल हो गया, परन्तु अभी भी वह सचिवालय में धूल फांक रही है।
गड़बड़ाती प्रजनन व्यवस्था
कीटनाशकों का पहला शिकार गर्भवती महिलाएं, गर्भ में पल रहे भू्रण और बच्चे होते हैं। इसके दुष्प्रभाव के कारण बच्चे विकलांग पैदा होते हैं और मंदबुद्घि भी हो जाते हैं। कीटनाशकों की वजह से मां का दूध भी जहरीला हो गया है। बीते 50 वर्षों में कीटनाशकों के अंधाधुध प्रयोग से इनसानों मेंशुक्राणुओं की संख्या में 50 फीसदी से अधिक की कमी आई है। इसके अलावा, शुक्राणुओं की गुणवत्ता भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है, जिसके कारण महिलाओं में बांझपन एवं गर्भपात, समय पूर्व प्रसव, गर्भ में ही शिशु की मौत, बच्चों में जन्मजात बीमारियां, महामारी और नपुंसकता जैसे दोष आम हो गए हैं। पंजाब में इस तरह के कई मामले सामने आए हैं।
पर्यावरण पर दुष्प्रभाव
जहरीले कीटनाशक केवल इनसानों के लिए ही घातक नहीं हैं, बल्कि प्रकृति के लिए भी सबसे बड़े दुश्मन साबित हुए हैं। इनमें मौजूद रसायनों से जल, जमीन और वायु आदि दूषित हो गए हैं। कृषि रसायनों से ऐसे लाखों सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं जो हमारे लिए फायदेमंद होते हैं। इसके अलावा ये सूक्ष्म जीव मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए भी बहुत आवश्यक होते हैंं। इन रसायनों का जलीय जीवों और पक्षियों पर भी गंभीर असर पड़ा है। इन रसायनों के कारण कई पक्षी लुप्त होते जा रहे हैं।
खेती में जोखिम अधिक
खेती में अधिक लागत लगने के कारण जोखिम अधिक है। इसलिए किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला भी थम नहीं रहा है। पंजाब के मालवा क्षेत्र में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक सबसे ज्यादा प्रयुक्त होते हैं और कैंसर के मरीजों की संख्या भी सबसे ज्यादा यहीं है। किसानों की आत्महत्या के मामले भी सबसे ज्यादा इसी क्षेत्र में हुए हैं। वास्तव में कृषि रसायन और कृषि मशीनरी एक ऐसा दुष्चक्र है जिसकी अंतिम परिणति पानी के संकट, आत्म हत्या व कैंसर है।
जैविक कीटनाशी, कवकनाशी
ट्राइकोग्रामा
ट्राइकोडरमा
ब्यूबेरिया बैसियाना
वैसीकुलस माइकोराईजा
न्यूक्लियर पाली
बैसिलस यूरिजियेंसिस
नीम आधारित कीटनाशक
इसके फायदे
मृदाजन्य एवं बीजजन्य रोगों पर नियंत्रण रखता है
जैविक कीटनाशक केवल लक्षित कीटों को ही नियंत्रित करते हैं
इनके छिड़काव के तुरंत बाद सब्जियों और फलों को उपयोग में लाया जा सकता है
प्राकृतिक रूप से विघटनशील होने के कारण इनका अवशेष नहीं रहता है
जैविक कृषि उत्पादों द्वारा उत्पादित अनाज, फल एवं सब्जियां उच्च गुणवत्तायुक्त तथा स्वास्थ्य के लिए उत्तम होते हैं
जैविक रोगनाशकों से बीज उपचार से रोग नियंत्रण व पैदावार में वृद्धि तथा फसल गुणवत्तापूर्ण होते हैं
घरेलू उपाय के कीट भगाएं
घरेलू कीटों जैसे मक्खी, तिलचट्टा, चींटी और मच्छरों की रोकथाम के लिए रासायनिक कीटनाशक हमें भी नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए जैविक उपाय करना चाहिए। इनमें से अधिकांश उपाय आप अपनी रसोई के मसालों से भी कर सकते हैं। जैसे- चींटियों को नियंत्रित करने के लिए पुदीने की पत्तियों या हल्दी का इस्तेमाल करें। घर और रसोई को साफ रखें। मक्खियों को नियंत्रित करने के लिए लौंग का तेल या यूक्लिप्टिस के तेल में भीगा फाहा कमरे में रखें। मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए नीम के तेल का इस्तेमाल करें और जहां मच्छर हैं वहां लहसुन का रस छिड़कें। जहां काकरोच हैं वहां साबुन के पानी का छिड़काव करें, तेज पत्ता के चूर्ण और लहसुन का रस छिड़कें। ये सब उपाय बहुत सस्ते, हर समय आपको उपलब्ध और सुरक्षित हैं।
जानलेवा कीटनाशक
कीटनाशक स्वास्थ्य पर प्रभाव
एंडोस्लफॉन किडनी, लीवर और भ्रूण को प्रभावित करता है। शुक्राणुओं पर दुष्प्रभाव। प्रोस्टेट व स्तन कैंसर कारक
हेप्टाक्लोर प्रजनन क्षमता प्रभावित करता है
क्लोरडेन प्रजनन क्षमता प्रभावित करता है। मस्तिष्क कैंसर कारक।
फेन्थियान कैंसर कारक एवं प्रजनन अंगों को प्रभावित करता है।
डाइमिथेएट जन्म के समय परेशानी होती है। प्रजनन को प्रभावित करता है।
एक्सीफेट कैंसर कारक व प्रजनन अंगों को प्रभावित करता है।
परमेथ्रिन जीन संबंधी दोष पैदा करता है।
डेल्टामेथ्रिन अंत:स्रावी ग्रंथियों में दोष उत्पन्न करता है।
कार्बरिल जीन संबंधी दोष व मस्तिष्क कैंसर कारक
सीमाजिन व एट्रजिन कैंसर कारक
मैनकोजैब जन्म संबंधी दोष व कैंसर कारक
कैप्टान कैंसर कारक
कारबैंडाजिम प्रजनन संबंधी दोष व भ्रूण के विकास में विकार पैदा करता है।
प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला सीएसई की रिपोर्ट]]
बंजर होते खेत
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से जमीन में पोषक तत्वों की कमी हो गई है। जमीन में लाभकारी सूक्ष्म जीव और केंचुए आदि नष्ट हो गए, जिससे उर्वरता प्रभावित हो रही है। इसके अलावा, रसायनों के इस्तेमाल से खेती में पानी का खर्च अधिक होता है, जिससे भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है और यह प्रदूषित भी हो रहा है। साथ ही, खेत की जल धारण क्षमता लगातार गिरती जा रही है। पंजाब में पेयजल में यूरेनियम जैसा घातक रेडियोधर्मी तत्व पाया गया है। सिंचाई के लिए ट्यूबवेल से बेहिसाब पानी निकालने के कारण पंजाब के 96 प्रतिशत गांवों में पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, पेयजल में ओजोन की मात्रा 10 एमजी प्रति लीटर से कम होनी चाहिए, जबकि हरियाणा में केवल तीन प्रतिशत जगह पर ही पेयजल इस मानदंड पर खरा उतरा। 58 प्रतिशत स्थानों पर प्रदूषण की मात्रा दो गुना से भी ज्यादा थी।
जैविक खेती के लाभ
छोटे किसानों के हितों का संरक्षण होता है।
खाद, बीज व कीट नियंत्रण के लिए बाजार पर निर्भरता नहीं रहती।
रासायनिक खेती की पूरी अर्थरचना केंद्रीकृत है, जबकि जैविक खेती विकेंद्रीकृत अर्थरचना। किसान खेत में ही खाद और कीटनाशक तैयार कर लेता है। बाजार पर निर्भरता खत्म होती है। उत्पादन लागत भी कम आती है।
अनाज में रसायनों की मौजूदगी के कारण हमारा भोजन सुरक्षित नहीं रह गया है। अत: जैविक खाद्य पदार्थ ही सुरक्षित हैं।
सभी प्राणियों के लिए सुरक्षित, टिकाऊ खेती व सतत विकास के लिए एकमात्र विकल्प।
जैविक उत्पादों के निर्यात से विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है।
प्रकृति के अनुकूल, पर्यावरण संरक्षण में सहायक व पारिस्थितिकी तंत्र का अनुरक्षण होता है।
रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के मुकाबले एक चौथाई से भी कम खर्च व सिंचाई के लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है।
उत्पादन लागत कम होने के कारण साहूकार व बैंकों के ऋण से छुटकारा मिलता है।
जहर से कुछ भी नहीं बचा
फल भी रासायनिक हमले से अछूते नहीं हैं। सेब, अनार, अंगूर, कीवी, आम, खुबानी, चेरी, केला, चीकू, लीची आदि अधिकांश फल जिन्हें हम पौष्टिक समझ कर खाते हैं उनमें घातक कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं। खेतों में सैकड़ों तरह के छिड़काव कर भोजन में दाल-रोटी के साथ मोनोक्रोटोफॉस जैसा घातक कीटनाशक भी परोसा जा रहा है। भोजन के सभी नमूनों में कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं, जो सुरक्षित समझी जाने वाली मात्रा से 400 प्रतिशत अधिक हैं। केरल में घातक कीटनाशक इन्डोसल्फॉन का काजू के बागों में प्रयोग होता है जो कई देशों में प्रतिबंधित है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस कीटनाशक के इस्तेमाल पर रोक लगाई है। पंजाब एव हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश पर सब्जियों में कीटनाशकों की जांच में पता चला कि भिंडी में कैप्टान नामक कीटनाशक उच्चतम सुरक्षित मात्रा से 750 गुना अधिक थी। इसी प्रकार गोभी में मेलाथियान की मात्रा 150 गुना ज्यादा, टमाटर में डीडीटी 70 गुना ज्यादा, आलू में पैराथियान व मिथाइल की मात्रा 50 गुना ज्यादा और पालक में एंडोसल्फान की मात्रा 40 गुना ज्यादा पाई गई।
जैव-विविधता क्षरण: हरित क्रांति से पहले पंजाब में गेहूं, ज्वार, चावल, मूंग, मसूर, कपास, मक्का, बाजरा, अरहर, चना, तिलहन सहित 60 से अधिक फसलें होती थीं और उनका उपयोग किया जाता था। लेकिन हरित क्रांति के पश्चात पूरी खेती केवल गेहंू, चावल और कपास जैसी गिनी-चुनी फसलों तक सिमट कर रह गई है।
रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव
रासायनिक खाद और कीटनाशक मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं।
पंजाब, हरियाणा व आंध्र प्रदेश में कीटनाशकों का उपयोग देश में सबसे ज्यादा होता है।
फसलों में डाले जाने वाले कीटनाशक जमीन, पानी और हवा के माध्यम से खाद्य पदार्थों में के जरिये मानव शरीर में पहुंचते हैं।
विषैले पशु आहार और चारे ने पशुओं के दूध को भी जहरीला कर दिया।
पंजाब के लोगों के रक्त के 20 नमूनों मेंं 15 प्रकार के कीटनाशक मिले। डीडीटी, आॅर्गेनो-क्लोरीन, एंडोस्लफॉन जैसे कीटनाशक तय मात्रा 15 से 605 गुना अधिक मिले। अस्थाई प्रकृति के नये कीटनाशकों के अंश भी मिले, जैसे
आॅर्गेनो फॉस्फेट्स
एक्सीफेट
मानोक्रोटोफॉस
मेलाथियान
क्लोरोपाइरीफॉस
डाइक्लोरोव्स
रासायनिक खादोें/कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग एवं कैंसर की संबद्धता है।
सीसा जैसी विषाक्त धातुओं के कारण डीएनए में विकार उत्पन्न होता है।
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