उत्तराखंड में भी प्रचंड बहुमत
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उत्तराखंड में भी प्रचंड बहुमत

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Mar 20, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Mar 2017 13:18:33

 

इस बार जनता को तय करना था कि वह मोदी पर भरोसा करे या हरीश रावत पर। नतीजों से साफ है कि उनका भरोसा किस पर है

उत्तराखंड में विधानसभा की 70 में से 57 सीटें जीतकर भाजपा ने सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए। खुद पार्टी के प्रदेश नेताओं को भी अंदाजा नहीं था कि इतनी प्रचंड जीत मिली। 2012 के बाद से राज्य की कांगे्रस सरकार को लेकर लोगों में आक्रोश था, जो मतदान के दिन निकला।

बीते एक साल से हरीश रावत, उनके सलाहकारों और राज्य की अफसरशाही पर भ्रष्टाचार के हमले तेज हो गए थे। सरकार पर उद्योगपतियों से उगाही, पहाड़ों और नदियों में अवैध खनन, पैसे पर अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण, सरकारी योजनाओं में कथित कमीशनखोरी और शराब माफिया से गठजोड़ जैसे गंभीर आरोप लगे। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट खुलेआम कांग्रेसी नेताओं को बगदाद के लुटेरे बोलते रहे, जबकि पार्टी प्रवक्ता अनिल बलूनी ने ‘हरदा टैक्स’ के प्रचार के जरिये कांग्रेस सरकार की पोल-पट्टी खोली। इसके अलावा लोगों ने उत्तराखंड विधानसभा में बहुमत खोने वाले प्रकरण के दौरान हरीश रावत का स्टिंग आॅपरेशन भी देखा। हालांकि अदालत ने इस वीडियो के प्रसारण पर पाबंदी लगा दी थी। इसके बावजूद हरीश रावत की मुश्किलें कम नहीं हुर्इं।

कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका उस वक्त लगा था जब विधानसभा में बहुमत खो देने के वक्त 12 विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इन सभी को टिकट दिया। चुनाव से पहले कांग्रेस के कुछ बड़े नेता भी पार्टी छोड़ गए। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा,पूर्व प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य जो बड़े दलित नेता होने के साथ-साथ काबीना मंत्री भी थे। इसके अलावा, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल, रेखा आर्य भी शामिल थीं। इन नेताओं को साथ लेकर जहां भाजपा मजबूत होती गई, जबकि कांग्रेस साफ तौर से सुरक्षात्मक मुद्रा में दिखने लगी।

हरीश रावत के व्यवहार से नाराज पुराने नेता तो पहले ही पार्टी छोड़ चुके थे। प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय बच गए थे जो टिहरी से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन हरीश रावत के अड़ जाने से उन्हें यह सीट दिनेश धने के लिए छोड़नी पड़ी। किशोर उपाध्याय को सहसपुर से चुनाव लड़ना पड़ा और वह हार गए। खुद हरीश रावत पहाड़ की धारचूला सीट छोड़कर मैदानी इलाके की दो सीटों हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा से चुनाव लड़े। उन्होंने सोचा था कि अपने साथ वह तराई की ज्यादातर सीटें निकाल ले जाएंगे, लेकिन परिणाम इसके उलट निकला। हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा से मुस्लिम मतदाताओं के भरोसे रहने वाले रावत को दोनों जगहों पर हार का सामना करना पड़ा।

हरीश रावत की जिद के आगे कई मौकों पर कांग्रेस आलाकमान भी बेबस सा दिखा। आलम यह था कि पूरे चुनाव में कोई बड़ा नेता प्रचार के लिए राज्य में नहीं आया। राहुल गांधी की भी तीन छोटी जनसभाएं ही हुईं, जबकि भाजपा पूरे आक्रामक अंदाज में चुनाव लड़ी। राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह ने लगभग हर जिले में चुनाव प्रचार किया, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चार बड़ी जनसभाओं में भीड़ जुटाकर प्रत्याशियों के पक्ष में माहौल बना दिया। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, उत्तराखंड में चुनाव भरोसे पर लड़ा गया। यह जनता को तय करना था कि वह मोदी पर भरोसा करे या हरीश रावत पर। चुनाव परिणाम आने के बाद साफ हो गया कि राज्य की जनता ने प्रधानमंत्री पर विश्वास जताया है।

भाजपा की जीत के पीछे कुछ और भी वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह गरीब महिलाओं को गैस के कनेक्शन देना रहा। इसके कारण उन्हें जंगल से लकड़ी काटकर लाने से छुटकारा मिला। दूसरा, राज्य का हर चौथा परिवार फौज से ताल्लुक रखता है। इसलिए प्रधानमंत्री द्वारा एक रैंक, एक पेंशन का वादा पूरा करने के आश्वसन को भी लोगों ने सराहा। इसके अलावा, पार्टी द्वारा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करने का भी भाजपा को फायदा मिला। 2012 में भाजपा ने बीसी खंडूरी को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा, लेकिन भितरघात के कारण खंडूरी ही हार गए थे। इस बार भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगे जिस पर लोगों ने भरोसा किया और प्रचंड बहुमत से पार्टी को जिताया। राज्य में कांग्रेस अब 11 सीटों पर सिमट गई है। दो सीटों पर निर्दलीय विजयी हुए।

भाजपा ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था राज्य का नया मुख्यमंत्री कोई सांसद या पूर्व मुख्यमंत्री नहीं होगा। ऐसे में पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, बीसी खंडूरी, भगत सिंह कोशियारी, विजय बहुगुणा दौर से बाहर हो चुके हैं। पार्टी का कहना है कि विधायकों में से ही नया नेता चुना जाएगा। उत्तराखंड में पार्टी के पिछले जितने भी मुख्यमंत्री बने वे ऊपर से लाए गए थे। पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी भी हाईकमान की पसंद थे तो नारायण दत्त तिवारी, भुवन चंद्र खंडूरी, विजय बहुगुणा भी सांसद से मुख्यमंत्री बने। लेकिन इस बार भाजपा ने इस परंपरा को तोड़ने का फैसला पहले ही ले लिया है।      हल्द्वानी से दिनेश

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