|
वेद प्रकाश शर्मा साहित्य के पंचमुखी दीपक थे, जिनमें प्रतिभा की बाती पांचों दिशाओं मंे जलती थी। उन्हें पाठकों से जो प्रेम मिला, वह अप्रतिम है
-अनंत विजय-
बहुधा हिंदी साहित्यकार पाठकों की कमी का रोना रोते रहते हैं। इस पर भी लगातार मंथन होता आया है कि हिंदी की किताबें बिकती नहीं हैं। लेेकिन इस रुदन के पीछे की वजहों पर यदा-कदा, वह भी अगंभीरता से ही बात होती है, जो गोष्ठियों आदि तक ही सीमित रहती है। दरअसल पिछले चार-पांच दशक में साहित्य में एक ऐसी वर्ण व्यवस्था बनाई गई जिसने लेखकों के साथ-साथ पाठकों का भी वर्गीकरण कर दिया है। बेहद लोकप्रिय उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा के निधन के बाद एक बार फिर यह साहित्यिक वर्ण व्यवस्था विमर्श के केंद्र में है। वेद प्रकाश के निधन के बाद जिस तरह कथित मुख्यधारा के लेखकों ने उन्हें लुगदी साहित्यकार कह कर संबोधित किया, वह बेहद क्षुब्ध करने जैसा था। उन्हें लुगदी लेखक कह कर साहित्य में वर्ण व्यवस्था के पोषक फिर से सामने आ गए। लुगदी लेखन, लोकप्रिय लेखन, गंभीर लेखन की पुरानी बहस फिर से साहित्यिक विमर्श के केंद्र में है। पर साहित्य में इस तरह की बहस व्यर्थ है, क्योंकि साहित्य तो साहित्य है। इसे किसी खांचे में ढालकर पाठकों को भ्रमित करने की कोशिश की जाती है और एक खास किस्म के लेखन को बढ़ावा देने की जुगत होती है। बहुधा खोटे सिक्के को चलाने की कवायद भी। हिंदी साहित्य में जिसे लुगदी और जिन लेेखकों को लुगदी साहित्यकार कहकर हाशिए पर डाला जाता रहा है, दरअसल वे हिंदी के पाठकों के केंद्र में रहे हैं। चाहे वे गुलशन नंदा हों, रानू हों, सुरेन्द्र मोहन पाठक हों या फिर वेद प्रकाश शर्मा।
वेद प्रकाश के उपन्यासों को लेकर पाठकों में बेहद दीवानगी थी। उनके उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी। उन्होंने करीब 200 उपन्यास लिखे। कम ही लोगों को मालूम होगा कि उनके मशहूर उपन्यास 'वर्दी वाला गुंडा' की करीब आठ करोड़ प्रतियां बिकी थीं। राजीव गांधी की हत्या पर लिखित इस उपन्यास की शुरुआती 15 लाख प्रतियां छपी थीं। 1993 में प्रकाशित इस उपन्यास के लिए कई शहरों में पोस्टर और होर्डिंग लगे थे। मेरे जानते किसी राजनीतिक शख्सियत की हत्या और साजिश पर लिखा गया हिंदी का यह इकलौता उपन्यास है। उनके उपन्यासों को जासूसी या हल्का माना जाता रहा, पर हिंदी के स्वनामधन्य आलोचक यह भूल जाते हैं कि दुनिया में जासूसी उपन्यासों की जबरदस्त मांग रही है और उनके लेेखक बेहद लोकप्रिय। इस संदर्भ में पाब्लो नेरूदा का एक इंटरव्यू याद आता है। उनसे पूछा गया कि अगर उनके घर में आग लग जाए तो वे क्या बचाना चाहेंगे। उनका जवाब था, ''वे कुछ जासूसी उपन्यासों के साथ घर से निकलना चाहेंगे।'' उनका यह वाक्य जासूसी उपन्यास लेख ने की महत्ता को समझने के लिए काफी है।
वेद प्रकाश के कई उपन्यासों पर फिल्में बनीं। इनमें ''वर्दी वाला गुंडा,' 'सबसे बड़ा खिलाड़ी'' और 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' प्रमुख हैं। 1985 में उनके उपन्यास 'बहू मांगे इंसाफ' पर शशिलाल नायर के निर्देशन में 'बहू की आवाज' फिल्म बनी थी। उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा और धारावाहिकों के लिए भी लेखन किया। वे हर साल दो-तीन उपन्यास लिखते थे और हर उपन्यास की शुरुआती डेढ़ लाख प्रतियां छपती थीं। प्रकाशकों ने उनके 100वें उपन्यास 'कैदी नंबर 100' की ढाई लाख प्रतियां छापने का ऐलान किया था। हिंदी साहित्य के तथाकथित मुख्यधारा लेेखकों के लिए यह संख्या कल्पना से परे किसी दूसरी दुनिया का आंकड़ा लगती है। उनकी लोकप्रियता से प्रकाशकों में आत्मविश्वास था।
दर्शकों के बीच लोकप्रियता की होड़ में न्यूज चैनलों की भाषा को उनके कार्यक्रमों के नाम से समझा जा सकता है जिस पर वेदप्रकाश की छाप दिखई देती है। इसकी चंद बानगी है-'लुटेरी दुल्हन', 'बीबी का नशा,' 'बहू मांगे इंसाफ,' 'साजन की साजिश,' 'हत्यारा कौन,' 'जुर्म, सनसनी,' 'सास बहू और साजिश' आदि। लोकप्रिय होने के बाद किसी लेखक के लिए यह संतोष की बात होती है कि उसने भाषा को किस हद तक अपनी लेखनी से प्रभावित किया और कितने लोगों ने उसका अनुसरण किया।
उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के एक गांव में जन्मे वेद प्रकाश के उपन्यासकार बनने की कहानी कम दिलचस्प नहीं है। 1972 में वे गर्मी की छुट्टियों में गांव गए थे। वहां उन्होंने खाली समय में लिखना शुरू किया और कई कॉपियां भर दीं। जब उनके पिता को पता चला तो उन्होंने शर्मा की जमकर पिटाई की और उनकी मां से बोले- ''लो, पहलेे तो सि.र्फ पढ़ता था। अब लिखने भी लगा है।'' तब किसे मालूम था कि कॉपियां भरने वाला लेेखनी से कीर्तिमान स्थापित करेगा। अगर हम समग्रता में देखें तो वेद प्रकाश शर्मा साहित्य के पंचमुखी दीपक थे जिनमें प्रतिभा की बाती पांचों दिशाओं में जलती थी। कथित मुख्यधारा के लेेखक भले ही उन्हें लुगदी लेेखक मानें, लेकिन उन्हें पाठकों का जो प्यार मिला, वह अप्रतिम है। *
टिप्पणियाँ